आर्यसमाज के कार्यक्रमों के अराजकतावादी मुख्य अतिथि
ऋषियों मनीषियों द्वारा प्रदत्त दिव्यज्ञान से ओतप्रोत इस वसुन्धरा पर यथा समय अनेक दिव्य आयोजन प्रायोजित होते रहे हैं। ऋषियों की वाणी के प्रचार-प्रसार में लगी हुयी संस्था आर्यसमाज सतत संलग्न हैं। किन्तु वर्तमान परिवेश को देखकर शायद ऐसा प्रतित होता है कि ये संस्थाएं ऋषि की वाणी का प्रचार-प्रसार न करके अपने पेट पूजा में लगी हुयी हैं। ऋषियों की बतायी बातों का प्रचार-प्रसार कैसे हो, शायद ये तो इनको आता ही नहीं है। इनकी दिशा व दशा गलतमार्ग का अनुसरण कर चुकी है।
देश की कुछ शीर्षस्थ संस्थाएं आर्यसमाज के मन्तव्यों को स्वीकार न कर वश पैसे को ही सब कुछ समझती हैं। ऐसी शीर्षस्थ संस्थाओं में यदि किन्हीं का नामोल्लिखत है तो वें हैं आर्य सभाएँ तथा प्रतिनिधि सभाएँ । जिनकों प्रत्येक आर्यसमाजी अपना मार्गदर्शक स्वीकार करता है। आप खुद ही विचार-विमर्श कर सकते हैं कि जिसका नेता आर्यमन्तव्य को स्वीकार नहीं करता हो, जो स्वयं ही अनार्यत्व को स्वीकार करता हो। उसको अपना मार्गदर्शक स्वीकार करने वाली जनता कैसे आर्यत्व को स्वीकार कर पायेगी। जो नया-नया आर्यसमाजी बना हो वह तो आर्यसमाज की विशेषता को स्वीकार कर ही नहीं सकता।
जो व्यक्ति पूर्ण तन्मयता के साथ आर्यसमाज का कार्य कर रहा हो, वह इनके लिए किसी महत्व का नहीं किन्तु यदि कोई राजनेता, व्यापारी इनको ग्यारह सौ रुपये भी दे तो ये उसको आर्यसमाज का सर्वश्रेष्ठ कार्यकर्ता स्वीकार करते हैं।
मुझे वह दिन याद है जब मंच पर एक ओर विद्वान लोग तो बैठे हुए हैं, किन्तु राजनेताओं का सम्मान विद्वानों से पहले हो रहा था। मैंने सोचा शायद बाद में विद्वानों का भी माल्यार्पण से स्वागत होगा किन्तु कार्यक्रम के अन्तिम क्षण तक ऐसा नहीं हुआ।
आज का समय ऐसा आ गया है कि आर्यसमाज के मंचों से सिद्धान्तविरोधी बातों बोली जा रही है, जिनको रोकने का कोई सहास तक नहीं करता। बात कुछ इस प्रकार की है एक साल पहले आर्यसमाज के कार्यक्रम में वी.के.सिंह जी को बुलाया गया। स्वागत व सम्मान हुआ किन्तु अपने वक्तव्य के दौरान वे कहते हैं कि देश के लिए सर्वाधिक कार्य स्वामी विवेकानन्द जी ने किया है, फिर जाकर किन्हीं स्वामी दयानन्द का नाम लिया। ऐसा सुनते हुए वहाॅं बैठे किसी भी मन्त्र-प्रधान की नजरों का पानी नहीं मरा। किसी ने ऐसा दुष्सहास भी नहीं किया जो वी.के.सिंह को बाद में कहता कि स्वामी दयानन्द ने देश के लिए ये-ये कार्य किये। स्वामी विवेकानन्द की बुरायाॅं गिनाने का तो शायद सहास हो ही नहीं सकता था।
किन्तु आज फिर से ऐसा ही इतिहास दोहराया जा रहा है। जब स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती जी के बलिदान दिवस पर किसी भ्रष्टाचारी, असत्यवादी, स्वार्थी नेता केजरीवाल को बुला रहें है। इस नेता की सत्यता से तो आप पूर्णतया परिचित ही हैं, जो देश में बलात्कार करने वालों को 10,000 रुपये तथा सिलाई मसीन दे रहा है। ऐसा नेता आर्यसमाज को क्या दिशा व दशा देगा? जो खुद बलात्कार को बढावा देने वाला है वह कैसे आर्यसमाज को नई दिशा दे सकेगा?
समाज के कार्यकर्ताओं को कुछ तो विचार-विमर्श करके बुलाना चाहिए। एक लक्षण भी तो आर्यसमाज का हो, जिसको हम बुला रहे है। यदि नहीं भी है तो एक समाज में तो उसका अच्छा वातावरण होना चाहिए। दिल्ली की समस्त जनता केजरीवाल के कार्यकाल से पूर्णतया परिचित ही है। इसके विषय में जितना कहा जाये उतना ही कम है।
वैसे आर्यसामज के मंचों पर विद्वानों का ही सम्मान होना चाहिए किन्तु बड़ा दुर्भाग्य है। न जाने किस दिन विद्वानों का सम्मान आर्यसमाजों के मंच से होना प्रारम्भ होगा।
शायद आर्यसमाज का वैचारिक रूप से पतन नित्यप्रति बढ़ता ही जा रहा है। इनका ध्यान केवल पेट, पैसा व मकान ही रह गया है। वेदप्रचार तो इनके लिय दिवास्वन के समान है।
मुझे वो श्लोक याद आ रहा है-
अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूज्यानां तु विमानना।
त्रीणि तत्र प्रवर्तन्ते दुर्भिक्षं मरणं भयम्। -पंचतन्त्र काकोलूकीय
अर्थात् जहाॅ अपूज्या का सम्मान होता है और विद्वानों का तिरस्कार तो वहाॅं निश्चित रूप से पतन, नाश और भय उत्पन्न होता है।
यदि सत्यता में आर्यसमाज की यही गति रही तो अवश्य ही वह दिन दूर नहीं जब आर्यसमाज का नाम केवल स्वार्थवादी संस्थाओं में गिना जायेगा। आज भी समय है……कुछ तो समझ जाओ……………..ऋषि दयानन्द को समझने का प्रयाश तो करो……………….
1983 में परोपकारिणी सभा के अंतर्गत स्वामी दयानंद के 100 वें बलिदान दिवस के उपलक्ष में अजमेर में बृहद आर्य महासम्मेलन का आयोजन किया गया था। मंच पर स्वामी ओमानन्द, स्वामी सत्यप्रकाश सरीखे आर्य सन्यासी उपस्थित थे। उस कार्यक्रम में गौ रक्षा आन्दोलन में हिन्दुओं पर गोली चलवाने वाली, देश में अनेकों बूचड़खाने खोलने वाली, आर्यसमाज का सत्यानाश करने वाली इंदिरा गांधी को परोपकारिणी सभा ने आमंत्रित किया था। इंदिरा गांधी के स्वागत में सभी ने खड़े होकर उनका स्वागत किया था। केवल स्वामी ओमानन्द मंचासीन सभापति होने के नाते अपने पर विराजमान थे। इंदिरा गांधी आर्यसमाज के मंच से सीधा ग़रीब नवाज़ की दरगाह पर माथा टेकने गई थी। उस दिन न तो डॉ धर्मवीर और न ही राजेन्दर जिज्ञासु जी ने मुख खोला।
यह कार्टून बनाने का छिछोरापन छोड़ो। आर्यसमाज ऐसे ही आपसी खींचतान में बर्बाद हो चूका है। अगर कुछ करनाचाहते हो तो सबसे पहले सदाचारी और धार्मिक जीवन जैसा ऋषि ने जिया था। वह जियो।
बालकृष्ण आर्य
नमस्ते बालकृष्ण जी
ऐसा है की मेने आपसे फेसबुक पर भी पूछा था की यह बात कैसे कह सकते है
तब आपने कहा था की यह आपको किसी ने संदेश भेजा है आप उनका नाम नहीं बता सकते
उन श्रीमान को किस बात का भय है नाम बताने में, वो किसी और का कन्धा क्यों उपयोग में ले रहे है ?
क्या उक्त बात असत्य है ? मुझे ऐसा ही लगता है इसलिए वह व्यक्ति घबरा रहा है अपना नाम बताने में
खैर कोई बात नहीं
ऐसा है बालकृष्ण जी मेरा यह संदेश उन महाशय तक अवश्य पहुंचाइएगा
“१९८३ के जिस कार्यक्रम की ये बात कर रहे है क्या उस दिन धर्मवीर जी या राजेन्द्र जिज्ञासु जी मंच पर थे ?
यदि हाँ तो प्रमाण अवश्य दें ”
क्यूंकि जहाँ तक मेरी जानकारी है वे मंच पर नहीं थे दूसरी बात की आपको जिस तरह जिज्ञासु जी के ना बोलने जैसी बात प्रतीत होती है तो आपकी जानकारी के लिए बता दूँ
पिछले वर्ष अजमेर के राजा स्वयं कार्यक्रम में आये थे
उन्होंने अपने भाषण में राममोहन राय के परिवार को देशभक्त बता दिया था
उनके भाषण के समाप्त होते है जिज्ञासु जी ने मंच संभाला और राममोहन राय की असलियत सभी के समक्ष रखी और राजा जी को भी इस बात से अवगत कराया की आपने यह बात गलत कही है की वे या उनका परिवार देशभक्त थे
राजा जी ने इस बात के लिए क्षमा भी मांगी यह कहते हुए की उनका स्वाध्याय कम है
आपको इस बात की रिकॉर्डिंग भी उपलब्ध करवा सकता हु
परन्तु दुःख तो तब होता है जब विवेकानंद जैसे मांसाहारियों की तुलना स्वामी दयानन्द जी से की जाती है और पदासीन मूकदर्शक बने रहते है
और एक बात जिन्हें कार्टूनों से पीड़ा है उन स्वघोषित विद्वानों को कहिये की स्वयं में सुधार कर लो
आपका कोई विरोध नही करेगा
आपकी पीड़ा शायद मेने कुछ हद तक दूर की होगी
फिर भी और कुछ जानना हो तो अवश्य कमेंट कीजियेगा
नमस्ते
धन्यवाद