अभी-अभी आंध्र प्रदेश में गोदावरी नदी के तट पर अंधविश्वास की विनाश लीला का दुखद समाचार सुनकर कलेजा फटे जा रहा है । ऐसा कौनसा धर्म प्रेमी, जाति सेवक सहृदय व्यक्ति होगा जो प्रतिवर्ष अंधविश्वास की विनाश लीला से थोक के भाव हिन्दुओं की मौत पर रक्तरोदन न करता होगा? मीडिया इन मौतों के लिए उत्तरदायी कौन? इस प्रश्न का उत्तर पाने का कर्मकाण्ड करने में जुट जाता है। परोपकारी प्रत्येक ऐसी दुर्घटना पर अश्रुपात करते हुए हिन्दू जाति को अधंविश्वासों व भेड़चाल से सावधान करता चला आ रहा है। सस्ती मुक्ति पाने की होड़ में ये दुर्घटनायें होती हैं। अष्टांग योग का, श्रेष्ठाचरण का, स्वाध्याय, सत्संग, सत्कर्म, मन की शुद्धता का मार्ग अति कठिन है। नदी, पेड, जड़, स्थल व मुर्दों की पूजा यह पगडण्डी बड़ी सरल है। आर्य समाज की न सुनने से सस्ती मुक्ति तो मिलने से रही परन्तु, क्या हिन्दू जाति के शुभ चिन्तक सोचेंगे कि इससे हिन्दुओं के लिए मौत तो बहुत सस्ती हो गई।
जाति के लिए रो-रो कर हमारे नयनों में तो अब नीर भी नहीं रहे। अदूरदर्शी हिन्दू संस्थायें ऐसी सब यात्राओं के लिये लंगर लगवा कर इन्हें प्रोत्साहन देती हैं। कॉवड़िये दुर्घटना ग्रस्त होते हैं। अमरनाथ यात्री मरते हैं, कृपालु महाराज के भक्त मौत का ग्रास बने। हिन्दू नेताओं ने इन दुर्घटनाओं को रोकने के लिए कभी कुछ सोचा? योग का शोर मचाने वालों ने कभी सोचा कि नदियों में डुबकी लगाने व पर्वत यात्रा का योग विद्या से दूर-दूर का भी सबन्ध नहीं। वेद, उपनिषद्, दर्शन साहित्य तथा गायत्री मन्त्र, प्रणव जप का इन यात्रियों को सन्देश, उपदेश तो कभी दिया नहीं जाता। बस भीड़ देखकर सब हिन्दू संस्थायें गद्गद् हो जाती है। आर्य समाज की तो सुनने से पूर्वाग्रह ग्रस्त तथा कथित नेता व गुरु कतराते हैं। ये लोग श्री कबीरजी, सन्त तुकाराम व गुरु गोविन्दसिंह की ही सुन लें तो बार-बार रोना न पड़े।
आत्मा का स्वाााविक गुण-एक नई खोजः- गुजरात यात्रा से लौटते ही फरीदाबाद के एक सज्जन ने प्रश्न पूछ लिया कि क्या धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण है? इस प्रश्न को सुनकर मैं चौंक पड़ा। अपने को आर्य बताने वाला व्यक्ति यह क्या कह रहा है। प्रश्न क्या मेरे लिए तो यह बिजली का झटका सा था। उसी ने बताया कि यह कथन मेरा नहीं। किसी और ने ऐसा लिखा है। मैं तो इस पर आपका विचार जानना चाहता हूँ।
मैंने निवेदन किया कि मेरा विचार तो वही है जो वेद मन्त्रों में मिलता है। जो ऋषि मुनि कहते हैं, मैं वही मानता हूँ। उक्त कथन तो वैसा ही लगता है जैसे उफान में आई नदी किनारे तोड़कर बाढ का दृश्य उपस्थित कर दे। उसे कहा, अरे भाई यदि धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण होता तो परमात्मा को वेद ज्ञान देने की क्या आवश्यकता थी? फिर गायत्री मन्त्र तथा शिव सङ्कल्प मन्त्रों, प्रार्थना मन्त्रों का प्रयोजन व महत्व ही समाप्त हो जाता है।
सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका तो पढ़िये। ऋषि एक सूक्ष्म सत्य का प्रकाश करते हैं, ‘‘मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जानने वाला है, तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि हठ दुराग्रह और अविद्या दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है।’’
ऋषि के इन मार्मिक शब्दों को सुनकर प्रश्नकर्त्ता भाई तृप्त हो गया। इस विषय में और कु छ लिखने की आवश्यकता ही नहीं।
क्या हुआहुआ आंध्रप्रदेश में आर्य जी।