जीविते यस्य जीवन्ति विप्राः मित्राणि बान्धवाः।
सफलं जीवनं तस्य आत्मार्थे को न जीवति।।
अर्थात् जिस व्यक्ति के जीवन से ब्राह्मण, मित्र गण एवं बान्धव जीवित रहते हैं उसका जीवन सफल माना जाता है। अपने लिए तो कौन नहीं जीता। अमर हुतात्मा श्रद्धेय भक्त फूल सिंह का जीवन भी ठीक उसी प्रकार का था।
जन्म व स्थानः- 24 फरवरी सन् 1885 को हरियाणा प्रान्त के अन्तर्गत वर्तमान में सोनीपत जिले के माहरा ग्राम में चौधरी बाबर सिंह के घर माता तारावती की कोख से एक होनहार एवं तेजस्वी बालक ने जन्म लिया। तत्कालीन रीति-रिवाज अनुसार नामकरण सस्ंकार करवाकर बालक का नाम हरफू ल रखा गया। बालक का मस्तक बड़ा प्रभावशाली एवं आकृति आकर्षक रही जिससे पण्डितों ने उसको बड़ा भाग्यशाली बताया।
शिक्षाः- जब हरफूल आठ वर्ष का हुआ तो पिता ने अपने गाँव के समीप जुूआं गांव के स्कूल में पढ़ने ोज दिया। उस काल में कृषकों के बच्चों का पढ़ना या पढ़ाना बड़ा कठिन कार्य था। बालक ने प्रथम, द्वितीय व तृतीय श्रेण्ी उत्तम अंक अर्जित करके उत्तीर्ण की। परन्तु चौथी श्रेणी में बालक पर कुसं ग का रंग चढ़ गया और अनुत्तीर्ण रहा माता-पिता व गुरुजनों के काफी प्रयास से बालक न पुनः प्रवेश लिया औरबड़ी योग्यता से चतुर्थ श्रेणी उत्तीर्ण की। बालक को आगे पढ़ने के लिए ऐतिहासिक स्थल महरौली के स्कूल में भेजा। उस स्कूल से हरफूल ने पांच, छठी और सप्तम श्रेणी उत्तीर्ण की। उस स्कूल के मुयाध्यापक की चरित्रहीनता के कारण पिता ने वह स्कूल छूड़ा कर खरखौदा के स्कूल में प्रवेश दिलवा दिया।
अद्भूत घटना एवं हरफू ल सिंह से फूल सिंह नाम पड़नाः- खरखौदा स्कूल के कूएं में वर्षा ऋ तु में वर्षा की अधिकता के कारण जलस्तर ऊपर आ गया और पानी भी दूषित हो गया। मुयाध्यापक जी ने छात्रों को बालटियों से पानी निकालने का आदेश दिया जब वेपानी निकाल रहे थे तो उनको कुएं में एक विषैला सर्प दिखाई दिया। मुयाध्यापक के पास सर्प होने की सूचना दी गई। सब छात्र भयभीत हो गए। हरफूल सिंह को बुलाया गया। बालक हरफू ल सिंह ने कहा गुरु जी एक मोटी रस्सी से टोकरी को बन्धवा कर कू एं में लटकवा दे और मुझे एक मजबूत डण्डा दे दें। मैं साँप को मारकर बाहर निकाल दूंगा। तदनन्तर टोकरी में हरफूल डण्डा लेकर बैठ गया। पानी से फूट भर ऊपर उसने टोकरी को रुकवा लिया। फिर बड़ी फूर्ती से उस साँप को उसने मार डाला । इसके बाद अपने साथियों को कहा कि टोकरी को खींच लो। उनकेाींचने पर हरफूल लाठी पर साँप लटकाये ं बाहर निकले। बालक की इस वीरता तथा निर्भयता को देख मुयाध्यापक दंग रह गये। वे प्रेम से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले- बेटा फूल सिंह। तू वास्तव में वीर है, साहसी है। इस साहस के बाद से हरफूल को फूल सिंह नाम से पुकारा जाने लगा।
तदुपरान्त मिडिल श्रेणी को उत्तीर्ण कर फूलसिंह ने खलीला गाँव में रहकर पटवार की एक वर्ष तक तैयारी की। समय पर पानीपत में पटवार की परीक्षा देकर उसमें बहुत अच्छे नबरों से उत्तीर्ण हुए। अब बालक फूल सिंह न रहकर फूलसिंह पटवारी कहलाने लगे।
गृहस्थाश्रम में प्रवेशः- पटवारी बने फूल सिंह को आी एक ही वर्ष हुआ था। उनका बीस वर्ष की आयु में रोहतक जिलेके खण्डा गाँव की कन्या धूपकौर के साथ विवाह सपन्न हुआ। माल विभाग की ओर से आप सन् 1904 में पटवारी बनकर सबसे प्रथम सीख पाथरी गाँव जिला करनाल में आये। आप में कार्य करने की क्षमता स्वभाव से ही थी। आप अपने काम को पूरा करके ही विश्राम लेते थे। उस समय पटवारी को गाँव का राजा माना जाता था। छोटे से लेकर बड़े पुरुषों तक सभी आपका बहुत समान करते थे। युवावस्था वाले दोष संस्कृत के महाकवि बाणभट्ट के कथनानुसार ‘‘योवनम् स्खलितं दुर्लभम्’’ अर्थात् यौवन का निर्दोष रहना बड़ा कठिन है। आप भी यौवन के बसन्त काल में मखमल लगा सुन्दर जूता, चमकीले कीमती वस्त्र पहनकर गलियों में घूमना, हुक्का रखने वाले नौकर को साथ लेकर चलना अपनी शान मानते थे आप 1907 में उरलाने में स्थायी पटवारी बनकर आये। वस्तुतः यहीं से पटवारी फूल सिंह का जीवनोद्देश्य परिवर्तित हुआ। अब आपने पटवार का काम के उपरान्त अतिरिक्त समय में जनता जर्नादन की सेवा करना अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया।
आर्य समाज में प्रवेशः- इसराना गाँव के पटवारी प्रीत सिंह उस समय के प्रसिद्ध आर्य समाजी माने जाते थे। वे प्रति सप्ताह पानीपत नगर में आर्य समाज के साप्ताहिक सत्संग में जाया करते थे । आपका तथा पटवारी प्रीतसिंह का परस्पर बड़ा प्रेम था जब दोनों आपस में कभी मिलते तो बड़े प्रसन्न होते थे। देवयोग से एक बार पटवारी प्रीत सिंह व पटवारी फूलसिंह को पटवार के विशेष कार्य से पानीपत नगर में तीन मास तक इकट्ठा रहने का अवसर मिला। प्रीत सिंह आपमें विशेष गुण देखकर आपको आर्य समाजी बनाना चाहते थे। उन्होंने इसका एक उपाय सूझा। वे पानीपत आर्य समाज से भजनों की एक पुस्तक खरीद कर लाये और पटवारी फूल सिंह को पढ़ने के लिए दी। फूलसिंह भजनों को गाते हुए तन्मय हो जाते थे। प्रीत सिंह जी आपको समय-समय पर आर्य समाज के साप्ताहिक सत्संग में चलने की प्रेरणा भी देते रहते थे। पटवारी प्रीत सिंह के साथ साप्ताहिक सत्संग में भी जाना आपने प्रारभ कर दिया। वहाँ पर विद्वानों, सन्यासियों, महात्माओं, प्रसिद्ध भजनोपदेशकों के व्यायान प्रवचन, मधुर गीत और भजन सुने तो आपकी अन्तर्ज्योति जाग उठी। अब तो आप आर्य समाज के प्रत्येक सत्संग में स्वयं जाने लगे तथा मित्रों को भी चलने की प्रेरणा देने लगे।
एक बार आप अपने मित्रों सहित आर्य समाज के प्रसिद्ध गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार के वार्षिकोत्सव पर पधारे। वहाँ पर महात्मा मुन्शी राम (स्वामी श्रद्धानन्द) का मधुर उपदेश व शिक्षाप्रद हो रहा था। महात्मा जी कह रहे थे- ‘‘मानव जीवन दुर्लभ है। इस जीवन को जो लोग भोग विलास तथा प्रदर्शन में नष्ट कर देता है, उसे बाद में पछताना पड़ता है। सुकर्म करो, कुकर्म से सदा दूर रहो। आर्य समाज का मुय उद्देश्य संसार का उपकार करना है। भटके हुए लोगों को सुमार्ग पर लाओ।’’ महात्मा जी के मुखारविन्द से आपने जब ये शद सुने तो आपने मन ही मन निश्चय किया कि मैं आज से ही पटवार के अतिरिक्त समय को आर्य समाज के प्रचार व प्रसार में लगाऊँगा।
गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार से आप आर्य समाज के दीवाने बन कर आये । फिर आपने नियम पूर्वक आर्य समाज का सदस्य बनने का निश्चय किया। आपने इसके लिए योग्य गुरु की तलाश थी। आपकी इच्छानुसार पानीपत आर्य समाज उत्सव में पण्डित ब्रह्मानन्द जी (स्वामी ब्रह्मानन्द)जी के दर्शन हुए। उनसे आपने अपने मन की इच्छा प्रकट की। पण्डित जी ने भी श्रद्धालु शिष्य में दिव्य ज्योति के दर्शन हुए। पण्डित जी ने यज्ञ के उपरान्त आपका यज्ञोपवीत संस्कार कराकर आपको शिक्षाप्रद उपदेश देकर लाभान्वित किया । उसी दिन से आप आर्य समाज के सदस्य बन गये।
वैदिक धर्म का प्रचार एवं जनता की सेवाः- आर्य समाज के रंग में रंगे हुए फूल सिंह पटवारी सरकारी काम के अतिरिक्त अपना सारा समय समाज सेवा में लगाने लगे महात्माओं, सन्यासियों, विद्वानों का अपके यहाँ डेरा लगा रहता था। आप पटवार भवन में धर्म-कर्म चर्चा के साथ-साथ गांव के आस-पास के विवादाी सुलझाने लगे। जब आप उरलाना में पटवारी थे तो उस वर्ष वर्षा न होने के कारण सारी फसलें नष्ट हो गई थी तो आपने उसी गाँव के मुसलमान राजपूत से पाँच हजार रूपये उधार लेकर साी ग्रामवासियों की मालगुजारी सरकारी खजाने में जमा करा दी। ग्राम वासियों के भी संकट मोचक को उक्त राशि सहर्ष एवं सधन्यवाद वापिस कर दी।
प्लेग की महामारी में जनता जनार्दन की महान सेवा का व्रत लेनाः- सन् 1909 में सारे भारत में प्लेग की महामारी सर्वत्र फैल गई। इस महामारी से कोई गाँव या नगर अछूता न बचा था। आप उन दिनों उरलाना गाँव में पटवारी थे। उरलाना गाँव भी महामारी से बचा न रहा। इस महामारी के प्रकोप से चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ था। रोगियों को सभालने वाला कोई नहीं था।
माता-पिता अपने दिल के टूकड़े को,ााई-बहिन को पति-पत्नी को अनजान से बनकर भूल गये थे। ऐसे भयंकर संकट के समय आपने उरलाना गाँव के लोगों की सहायता करने का निर्णय लिया। इस घोर संकट काल में सब आफिसर अवकाश लेकर अपने-अपने परिवारों को सँभालने के लिये अपने-अपने घरों में चले गए पर सेवा भावी फूल सिंह ने अपने कुटुब को भुलाकर उरलाना गाँव के दुःखियों, रोगियों को ही अपना परिवार मानकर उनकी दिन-रात सेवा की। आपके आफिसर भी आपकी निस्वार्थ सेवा से बहुत प्रभावित हुए।
मनुष्य पर संकट सदा नहीं बना रहता है। वह मनुष्य की परीक्षा का समय होता है। एक वह समय आता है कि आकाश के बादलों के हटने के समान उसके संकट स्वयंमेव दूर हो जाते हैं। पटवारी जी ने भी देखा कि उनके पुरुषार्थ से और प्रभु की अपार कृपा से प्लेग के दिन समाप्त हुए। बिछुड़े हुए लोग परस्पर आकर मिले। बेटे ने बाप को, पति ने पत्नी को, भाई ने भाई को पहचाना तथा परस्पर गले मिले। पता नहीं जो महामारी आई थी वह कहाँ चली गई। सब गाँवो वालों ने पटवारी जी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की एवं पावों में गिरकर उनकी सेवा और त्याग और साहस की भूरि-भूरि प्रशंसा की। पटवारी जी नेाी उन सबको उठाकर अपनी छाती से लगाया।
रिश्वत छोड़ने का दृढ़ निश्चयः- आपके ऊपर आर्य समाज के सिद्धान्तों, महात्माओं व विद्वानों के उपदेशों का इतना प्रभाव हुआ कि आप आत्मशोधन के लिए भी उद्यत हो गये। इसके लिये रिश्वत छोड़ने की एक महत्वपूर्ण घटना इस प्रकार हुई कि बुआना लाखू गाँव में एक बनिये ने क्रुद्ध होकर अपनी स्त्री को मार डाला । इसकी सूचना जब पुलिस को लगी वह वहाँ पहुँची पुलिस को देख बनिया बहुत डरा, आपकी शरण में आकर बोला पटवारी जी आप चाहे कितना ही रूपया मुझसे ले लें आप नबरदारों की सहायता से मेरा छुटकारा पुलिस से करा दें। पटवारी जी ने 600 रूपया लेकर बनिये को छुड़ाने का वायदा किया। पटवारी ने नबरदारों की सहायता से उस बनिये का पुलिस से पिण्ड छुड़वा दिया। रिश्वत में लिए हुए तीन सौ रूपये पटवारी जी के तथा तीन सौ नबरदारों के निश्चित हुए थे। आपने 300 रुपये स्वयं लेकर शेष रूपये नबरदारों में बाँट दिये। सब नबरदारों ने अपना-अपना भाग ले लिया परन्तु दृढ़ आर्य समाजी नबदार याली राम ने रिश्वत का रूपया लेना स्वीकार न किया। पूछने पर उन्होंने कहा रिश्वत का रुपया बहुत बुरा होता है, जिसे इसकी चाट लग जाती है फिर इससे छुटकारा कठिन है। आपने 1914 में रिश्वत न लेने की प्रतिज्ञा की तथा जो रिश्वत लेता था उसका डटकर विरोध करते थे। रिश्वत लेने को आप महापाप कहने लगे।
थानेदार से रिश्वत वापिस दिलवानाः- जिन दिनों आप बुवाने में पटवारी थे उन दिनों एक थानेदार ने कात गाँव के लोगों को डरा-धमकाकर उनसे आठ सौ रूपये ले लिये । उसी समय कात से एक आदमी भागा हुआ बुवाना ग्राम आया और आपके सामने सारी घटना कह सुनाई। आप उसके साथ कात गाँव आये और गांव वालों ने बताया कि आठ सौ रूपये थानेदार के मूढ़े के नीचे दबे हुए है। आपका मुख-मण्डल क्रोध से रक्त-वर्ण हो गया और आपने थानेदार को कड़क कर कहा थानेदार बना फिरता है, गरीब ग्राम वासियों को तंग करके रूपये हड़पने में तुझे शर्म नहीं आती। ऐसा कहकर थानेदार को मूढ़े से नीचे धकेल दिया ओर कमर पर जोर से लात मारी ओर कहा पापी निकल यहाँ से नहीं तो तू जीवित नहीं बचेगा। वह थानेदार आपकी गर्जना सुनकर थर-थर काँपने लगा गिड़गिड़ाकर घोड़े पर सवार होकर चुपचाप थाने की ओर चला गया। इसके बाद उसमें कोई भी अदालती आदि कार्यवाही करने का साहस नहीं रहा। ऐसी उदाहरणें अन्य भी हैं।
समाज सेवा करने की अभिलाषा से पटवार से त्याग पत्र देने की इच्छाः- आपका जीवन आर्य समाज की सेवा के लिए अर्पित हो गया। आप सोचने लगे दीन-दुखियों की सेवा करनी है तो पटवार का मोह छोड़ना होगा। इससे भी समाज सेवा में बाधा उपस्थित होती है। कई दिन विचार करते हुए आपने यह बात अपने प्रेमियों से भी कही तो उन्होंने सलाह दी शीघ्रता से कार्य करना लाभप्रद नहीं होता अतः आप त्याग पत्र न देकर एक वर्ष का अवकाश ले लें । आपको साथियों की यह बात समझ आ गई। आपने विचार किया इस अवकाश काल में स्वामी सर्वदानन्द जी महाराज के आश्रम में रहकर सत्यार्थ प्रकाश, संस्कार विधि आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर आर्य समाज के सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त किया जाये। ऐसा निश्चय करके सन् 1916 दिसबर मास में एक वर्ष का अवकाश प्राप्त कर अपना चार्ज बरकत अली नाम के पटवारी को सौंप दिया। ऐसा करके निश्चित होकर आप पटवार गृह में ही सो गये।
सभालका गाँव में गोहत्या स्थल (हत्थे) को रोकनाः- अपने जीवन को देश के लिये अर्पण करने का मानचित्र स्वसंकल्पों से चित्रित कर अभी पटवार घर में सोये ही थे कि उनके परिचित मित्र सभालका निवासी चौ. टोडरमल की आवाज सुनाई दी। उन्होंनें कहा, भक्त जी हम बड़े धर्म संकट में हैं। इधर कु आँ है, उधर खाई है। एक ओर धर्म की पुकार है दूसरी ओर सरकार का विरोध है। हमारे गाँव सभालका में गौ-हत्था खोलने की मुसलमानों को स्वीकृति मिल गई है और कल ही इसकी नींव रखी जायेगी। आपने श्री टोडरमल की बात ध्यान से सुनी और ओजस्वी वाणी में कहा कि हत्था नहीं खुलेगा। तुम जाओ, तुम से जो बन सके तुम भी करो।
प्रातःकाल ही आपने अपने पटवार गृह में बुवाना गाँव के प्रतिष्ठित पुरुषों को इकट्ठा किया और उनके सामने श्री टोडरमल की बात सबके सामने कही। गाँव वालों ने कहा ‘‘हम सब आपके साथ हैं, बताओ हमने क्या करना है?’’ भक्त जी ने कहा ‘‘पहले तो हम शान्ति से निपटाना चाहेंगे अगर ऐसे काम नहीं चला तो लड़ाई भी लड़नी पड़ेगी। बिना हथियारों के लड़ाई नहीं लड़ी जाती है। हथियारों के लिए 1200 रु. की आवश्यकता है। दो दिन में ही गांव वालों ने 1200 रु. एकत्रित कर आपके चरणों में अर्पित कर दिए। आपने उन रूपयों से उपयोगी हथियारों का संग्रह किया। तदन्तर प्रत्येक गांव ूमें आदमी भेजकर निर्धारित तारीख व स्थान पर हत्था तोड़ने के लिए चलने का सन्देश भेजा। आपके सन्देश को सुनक र ग्रामों से ग्रामीण भाई दलबल समेत सभालका गाँव की ओर चल पड़े। जब मुसलमानों को ग्रामीणों की इस चढ़ाई का पता चला तो वे भागकर कस्बे के डिप्टी कमिश्नर की सेवा में पहुँचे और गा्रमवासियों के आक्रमण की सूचना डिप्टी कमिश्नर महोदय को दी।’’
कमिश्नर महोदय ने क्रुद्ध जनता की क्रोध एवं जोशपूर्ण आवाज सुनी, कोई कह रहा था यदि यहाँ हत्था खुला तो खून की नदी बह जायेगी, कोई कह रहा था कि हमारी लाशों पर ही हत्था खुल सकेगा। हम किसीाी कीमत पर हत्था नहीं खुलने देंगे। क्रुद्ध जन समुदाय को शान्त करते हुए कमिश्नर ने घोषणा की ‘‘प्यारेग्राम वासियों। मैं आपकी भावना को जानता हूँ मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि यहां पर हत्था नहीं खुलेगा।’’ आप सब अपने-अपने घरों को जाओ। किन्तु जिलाधीश कीघोषणा के उपरान्त भी कुछ क्रुद्ध वीर युवक आक्रमण की प्रतीक्षा में बाग में छिपे बैठे थे। आपने एक टीले पर चढ़कर चारों ओर चद्द्र घुमाकर सबको संकेत किया कि भाइयों जिस उद्देश्य से हम आये थे वह काम हमारा पूरा हो गया और आप इस स्थान को छोड़कर अपने-अपने घरों को चले जायें। कवि ने ठीक ही कहा है-
इरादे जब पाक होते हैं, सफलता चलकर आती है।
चट्टानें थरथराती हैं और समुद्र रास्ते देते हैं।
पटवारी बरकत अली की नीचताः- इस घटना को साप्रदायिक रंग देने के लिये मुसलमान पटवारी पदवृद्धि के लोभी बरकत अली ने उसी हल्के के अदुल हक नामक गिरदावर के साथ मिलकर एक समिलित रिपोर्ट तैयार की। उस रिपोर्ट में इस विप्लव का मुखिया आपको बतलाते हुए यह सिद्ध किया कि जाटों को भड़का कर मुसलमानों को खत्म करने की योजना थी और धीेरे-धीेरे अंग्रेज सरकार का तता उलटना पटवारी फूल सिंह चाहता था। अतः पटवारी फूल सिंह को बागी घोषित कर जल्दी से जल्दी बन्दी बनाया जाये। इस दोनों की रिपोर्ट पर श्री गोकुल जी नबरदार बिजावा, श्री बशी राम परढ़ाणा, श्री मोहर सिंह सभालका श्री टोडरमल सभालका, श्री चन्द्रभान और सूरज भान सहित सबको बन्दी बना लिया। सब से पाँच-पाँच हजार की जमानत लेकर छोड़ा गया।
आप इन मुकदमों की पैरवी के लिए करनाल के वकीलों व रोहतक के वकीलों के पास गये । किसी में भी सरकार का सामना करने का साहस न हुआ। अन्त में आप निराश होकर ग्रामीण जनता के परम सेवक दीनबन्धु श्री चौधरी छोटूराम जी की सेवा में उपस्थित हुए उनके सामने जो घटना जैसी घटी थी वह सब सुना डाली और यह भी कहा सब स्थानों पर घूम चुका हूँ कोई भी वकील इस मुकदमें की पैरवी करने के लिए तैयार नहीं है। भक्त जी की बातों को सुनकर उन पर गहरा विचार कर चौधरी छोटूराम जी ने उनसे कहा- ‘‘भक्त जी, मैं आपके मुकदमे की पैरवी करुंगा। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आप इस मुकदमे से मुक्त हो जाओगे। यह मेरा निश्चय है आप सर्वदा निश्चित रहें। और मैं आपसे इसकी फीस भी नहीं लूँगा।’’
चौधरी साहब ने अपने वचन के अनुसार उस मुकदमे की पैरवी करने में बड़े वाक् चातुर्य से काम लिया। उन दोनों मुसलमानों की रिपोर्ट की धज्जियाँ उड़ा दी। जब आप पैरवी करते थे तब सुनते ही बनता था। उन्होंने कानून की दृष्टि से मुकदमे का अध्ययन अति सूक्ष्मता से किया हुआ था। विरोधी वकील उनके द्वारा प्रस्तुत तर्कों को काट न सके। आपकी प्रबल पैरवी से भक्त जी के साथ ही अन्य सब साथी अभियुक्त भी मुक्त हो गये।
शेष भाग अगले अंक में……