एक दिन चीनी गणराज्य ने अपने आपको राजशाही से मुक्त कर साम्यवादी शासन घोषित कर दिया। साम्यवादी की विचारधारा ने भले ही इंग्लैण्ड में जन्म लिया हो परन्तु विचारधरा फलित हुई चीन और रूस में। चीन ने 1949 में साम्यवादी शासन का प्रारभ किया। पूंजीवाद के विरोध में संसार का सबसे मुखर स्वर बन कर उभरा। साम्यवादी आक्रमकता ने सभी देशों में पुरानी परपरा और संस्कृति को नष्ट कर साम्यवादी के झण्डे के नीचे लाना अपना कर्त्तव्य माना। चीन ने अपनी विस्तारवादी नीति के माध्यम से पड़ोसी देशों पर बलपूर्वक अधिकार करना प्रारभ किया।
चीन ने 1947 के बाद अपना विस्तार करते हुए 7 अक्टूबर 1950 में 40 हजार चीनी सैनिकों के साथ तिब्बत पर आक्रमण कर दिया। यह आक्रमण तीन ओर से किया गया। तिब्बत एक शान्तिपूर्ण देश था। जहाँ दलाई लामा सन्त का शासन था। छः हजार सैनिकों की छोटी-सी सेना थी, जो की विशाल चीनी से परास्त हो गई और उसने चीनी सेना के सामने आत्म समर्पण कर दिया। 23 मई 1951 को तिबती सरकार ने बीजिंग में चीनी सरकार से शान्तिवार्ता की और 17 सूत्री अनुबन्ध पर हस्ताक्षर कर दिये और तिब्बत ने अपनी दासता का पट्टा लिख दिया। चीन ने इस को तिब्बत की शान्तिपूर्ण मुक्ति बताते हुए तिब्बत के चीन में विलय की घोषणा कर दी। इस प्रकार चीनी आक्रमणकारी तिब्बत के मार्ग से भारत की सीमा पर पहुँच गये।
यह समय भारत की स्वतन्त्रता का समय था। भारत की सरकार एक ऐसे व्यक्ति के नेतृत्व में थी, जिसमें एक साहित्यकार की योग्यता तो थी परन्तु राष्ट्रवादी राजनीतिज्ञ की दृष्टि का अभाव था। जो समझता था भारत ने अहिंसा के मार्ग से स्वतन्त्रता प्राप्त की है। जो सेना को व्यर्थ मानता था। संसार में शान्ति और सह अस्तित्व की बात करता था और चीन को अपना मानकर पंचशील के सिद्धान्त का पालन करने के लिये तत्पर था और हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नारों से देश गुंजा रहा था। तिब्बत में दमन हो रहा था, भारत में चाऊ एन लाई जिन्दाबाद का घोष गूंज रहा था। हमारी सरकार और प्रधानमन्त्री ने अपने पैरों पर स्वयं कुठाराघात करते हुए चीन के इस कदम को उचित बताया और तिब्बत को चीन का भाग स्वीकार किया। पं. नेहरू के इस कदम का गृहमन्त्री सरदार पटेल ने विरोध किया था। पटेल ने कहा था- यह चीन का कार्य अनुचित और एक देश की स्वतन्त्रता का अपहरण है परन्तु पं. नेहरू ने अपने को अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व बनाने की धुन में पटेल की बात को अनसुना कर दिया। पटेल ने अपने जीवन के अन्तिम भाषण में भी इस भय की चर्चा की थी। तिब्बत पर चीन का समर्थन करना एक आत्मघाती कदम था। ऐसा करना न केवल तिब्बत के लिये हानिकर था अपितु एक शक्तिशाली शत्रु को अपने घर पर निमन्त्रण देने जैसा था, पटेल की भविष्यवाणी सच हुई। परिणामस्वरूप भारत को 1962 के युद्ध में पराजय का मुख देखना पड़ा और हजारों वर्गमील भूमि भी गंवानी पड़ी।
इस युद्ध से पूर्व में अनेक राजनीतिक समझ रखने वाले नेताओं ने पं. नेहरू को समझाने का यत्न किया कि चीन की कुदृष्टि तिब्बत के बाद भारत पर है परन्तु पं. नेहरू ने इन बातों की उपेक्षा की समाजवादी नेता और प्रखर राजनीतिज्ञ राम मनोहर लोहिया ने अपने लेखों अपने और व्यक्तव्यों द्वारा भारत सरकार को चेताया था- चीन तिब्बत में जो कुछ कर रहा है, उससे तिब्बत की तो हानि है ही परन्तु भारत का भविष्य संकटमय हो रहा है। लोहिया ने तिब्बत में बनाई जा रही सड़कों, नदियों पर बन रहे, बांधों की चर्चा की थी परन्तु पं. नेहरू ने किसी की न सुनी और न मानी।
जब चीन ने भारत पर आक्रमण करके विशाल भारतीय भूमि पर आक्रमण कर दिया तब भारत की संसद में प्रश्न उठाया गया कि चीन ने भारत की सीमा में घुसकर भारत के विशाल भूभाग पर अधिकार कर लिया है तब प्रधानमन्त्री ने संसद में कहा था- वह भूमि तो बंजर है। वहाँ तिनका भी नहीं उगता, उस समय संसद सदस्य महावीर त्यागी ने पं. नेहरू को उत्तर देते हुए अपनी टोपी सिर से उतार कर कहा था- क्या मेरे सिर पर बाल नहीं उगते तो क्या इसे दूसरे को दे दूँ।
चीनी आक्रमण से पहले तिब्बत भारत के लिये घर आंगन जैसा था। लोहिया ने लिखा था- तिब्बत की डाक व्यवस्था भारत के पास थी। चीनी आक्रमण के बाद हमने अपने कर्मचारियों को वहाँ से बुला लिया। तिब्बत का भारतीय सबन्ध सृष्टि के आदिकाल से रहा है। ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार सृष्टि के प्रारभ में जल से जो भू भाग ऊपर आया वह तिब्बत ही था। प्राणी जगत् और मानव की सृष्टि का आदि स्थान तिब्बत ही है। तिब्बत को भारतीय ग्रन्थों में त्रिविष्टप् नाम से जाना जाता है। ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में लिखा है, आर्य बाहर से नहीं आये हैं। सर्वप्रथम तिब्बत में सृष्टि का प्रारभ हुआ। वहाँ से प्रथम भारत में आकर बसने वाले आर्य मूल भारतीय हैं, विदेशी नहीं। तिब्बत संसार का सबसे ऊँचा पठार है, इसी कारण इसे संसार की छत कहा जाता है। तिब्बत में जहाँ हिमाच्छादित बड़े शिखर हैं, वहाँ पत्थरों के पहाड़ के साथ घने जंगल हैं। एशिया खण्ड की चार बड़ी नदियों का तिब्बत उद्गम स्थान है। इन चार प्रमुख नदियों के नाम हैं- ब्रह्मपुत्र, सिन्धु, मीकांग और मछु। प्रथम दो नदियाँ भारत के पूर्व-पश्चिम में प्रवाहित होती हैं, जो भारत के जल संसाधन का बड़ा स्रोत हैं। इसके अतिरिक्त सैंकड़ों छोटी-बड़ी नदियाँ तिब्बत से होकर भारत की ओर आती हैं। तिब्बत का विशाल मानसरोवर भारतीय संस्कृति की आस्था का केन्द्र है। हिमालय से निकलने वाली सभी नदियों का यह उद्गम स्थल है। भारत का प्राण कहे जाने वाले ये स्रोत तिब्बत की दासता के कारण भारत के शत्रु के हाथ में चल गये हैं। आज मोदी सरकार को मानसरोवर जाने के लिए चीन की सरकार से मार्ग की याचना करनी पड़ रही है। सारे तिब्बत के संसाधनों के साथ जल स्रोतों का दोहन चीन अपने पक्ष में कर रहा है। वर्षों से समाचार आ रहे हैं, ब्रह्मपुत्र नदी पर बड़े बांध बनाकर चीन ने नदी का स्रोत चीन की ओर कर लियाा है।
तिब्बत की दासता का परिणाम है-चीन और पाकिस्तान की मैत्री। इसी आक्रमण के कारण पाकिस्तान ने कश्मीर का भूभाग चीन को दे दिया और चीन ने बड़ी सड़कों का निर्माण करके पाकिस्तानी बन्दरगाह तक अपनी पहुँच बना ली। सीमा पर हमारी सेना का बड़ा भाग पाकिस्तान और चीन के आक्रमण को रोकने में लगता है, यह हमारी अदूरदर्शिता पूर्ण तिब्बत नीति का परिणाम है। रक्षामन्त्री जार्ज फर्नान्डीज ने भारतीय संसद में कहा था- पाकिस्तान से भी अधिक खतरा भारत को चीन से है। हम ने तिब्बत पर चीन आक्रमण का समर्थन न किया होता तो न चीन हमारे दरवाजे पर होता न चीन को पाकिस्तान की निकटता का ऐसा अवसर मिलता।
चीन तिब्बत को लेकर ही सन्तुष्ट नहीं है वह पूरे हिमालय क्षेत्र पर अपना अधिकार जताता है। चीन का कहना है- तिब्बत उसकी हथेली है, उससे लगे भारतीय भू-भाग हाथ की अंगुलियाँ हैं, हाथ मेरा है तो अंगुलिया भी मेरी ही हैं। वह भारत के सिक्किम को अपना भाग मानता है, वहाँ के लोगों को चीन में जाने के लिए वीजा की आवश्यकता नहीं मानता। भारत सरकार के मन्त्री प्रधानमन्त्री की सिक्कम यात्रा पर वह आपत्ति करता है। सिक्किम में भारत सरकार द्वारा किये जाने वाले कार्यों को अवैध और चीनी अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप बताता है। वर्तमान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने चीन को लेकर सीमा पर कठोर दृष्टिकोण अपनाया है जिससे कुछ सुधार की सभावना बनी है परन्तु हानि तो बहुत हो चुकी है।
तिब्बत पर चीनी आक्रमण और अधिकार वह भारत के लिये घातक है, वहीं मानवता के लिये तिब्बत की जनता के साथ घोर अन्याय है। दासता का भारत ने सैंकड़ों वर्षों तक अनुभव किया है। विगत साठ वर्षों से चीन तिब्बत में वे सब अत्याचार कर रहा है, जो एक क्रूर शासक अपने आधीन के साथ कर सकता है। चीन तिब्बत में विकास के नाम पर तिब्बत में सड़कों का जाल बिछा रहा है, दुर्गम पहाड़ियों पर रेल पहुँचाने का काम चल रहा है। यह कार्य कोई तिबती जनता के लिये नहीं किये जा रहे हैं अपितु भारत की सीमा पर सेना की पहुँच के लिये तथा विदेशों से व्यापार की सुविधा के लिये आवागमन को सरल बनाया जा रहा है। जैसे हमारे देश में अंग्रेज सरकार ने रेल व सड़क का निर्माण भारतीय जनता की सुविधा के लिए नहीं किया था, उसने भी सेना को युद्ध क्षेत्र तक पहुँचाने और सामान को बन्दरगाहों तक भेजने के लिए सड़क और रेल का जाल बिछाया था, भोली-भाली जनता समझती है, अंग्रेज सरकार ने भारत का बड़ा विकास किया है और भारतीयों का कितना उपकार किया है। जब कोई देश दूसरे देश पर अधिकार करता है तो वह वहाँ के चिह्न मिटाने का प्रयास करता है। उस देश के अस्तित्व को मिटाता है। इसमें वहाँ की भाषा, शिक्षा, वेशभूषा, भोजन, संस्कृति, परपरा इन सबको नष्ट करने का काम प्रत्येक शासक अपने आधीन देश के साथ करता है। जो तिब्बत तीन भागों में विभक्त था, उसे चीन ने प्रशासनिक सुविधा के लिये छः भागों में बाँट दिया और तिब्बत में वहाँ के धर्म को समाप्त किया, वहाँ चीनी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया। तिब्बत की प्राचीन भाषा, लिपि, शिक्षा, शिक्षण सबको प्रतिबन्धित कर दिया। अलगाववाद क्षेत्रवाद के संघर्ष का बीजारोपण किया। तिबतियों को तिब्बत में द्वितीय श्रेणी का नागरिक बना दिया। वहाँ के छः हजार से अधिक मठ-मन्दिरों का विनाश कर दिया, सपत्ति लूट ली गई। मठ जला दिये गये। भिक्षु, भिक्षुणियों को मार दिया गया या बन्दी बना लिया गया। तिब्बत के भाग को परमाणु परीक्षण का स्थल बनाकर परमाणु कचरे का ढेर बना दिया। किसी भी देश को कितना भी पद दलित किया जाये परन्तु वहाँ की आत्मा प्रतिक्रिया करती है। तिबती जनता ने भी चीनी अत्याचारों के विरोध में आन्दोलन किये हैं। सामूहिक रूप से विरोध प्रदर्शन किया है। एक सौ के लगभग तिबतियों ने चीनी अत्याचारों के विरोध में आत्मदाह किया है, बलिदान हुए हैं। चीनी सरकार का विरोध तिबती जनता में निरन्तर चल रहा है। अभी तक साड़े बारह लाख तिबती चीनी अत्याचारों के कारण मृत्यु के ग्रास बन चुके हैं। आज तिबतियों से अधिक संया तिब्बत में चीनियों की है, जहाँ तिब्बत में साठ लाख तिबती हैं, वहाँ पिचहत्तर लाख चीनियों को चीन सरकार ने लाकर बसा दिया है और तिबती नागरिक अपने देश में अल्पसंयक होने के लिये विवश हैं।
यह एक दुर्योग है जब हम स्वतन्त्रता की वर्षगाँठ मनाते हैं तभी तिब्बत अपनी दासता की अवधि पर आँसू बहाता है।
आज इस तिब्बत के स्वतन्त्रता संग्राम में भारतीयों द्वारा समर्थन किया जाना चाहिए। यह एक राष्ट्रहित के साथ अन्तर्राष्ट्रीय और मानवीय कर्त्तव्य है।
जैसी स्वतन्त्रता की बात का समर्थन फिलीस्तीन आदि के लिए करते हैं, उसी प्रकार भारत सरकार को तिब्बत की स्वतन्त्रता का समर्थन करना चाहिए।
तिब्बत की निर्वासित सरकार का केन्द्र भारत में है। तिब्बत की सरकार और उसकी संसद के अधिवेशन हिमाचल प्रदेश के मेक्डोलगंज में होते हैं। यहाँ तिब्बत के वैध शासक दलाई लामा का स्थान है। जहाँ से वे निर्वासित सरकार का संचालन करते हैं। उनका स्वराज्य के लिये मन्त्र है- यते महि स्वाराज्ये।
वैदिक सत्य सनातन धर्म प्रचार प्रसार मै आप का योगदान सराहनीय है अब आपका बहुत बहुत हार्दिक अभिनंदन करते है..