सत्यार्थ प्रकाशने पौराणिक समाज के पाखण्ड का पर्दाफाश कर दिया था। इसी लिये इतने वर्ष पश्चात् भी पौराणिक समाज सत्यार्थ प्रकाश पर जुठ्ठे आक्षेप करते है क्युं की सत्यार्थ प्रकाश ने उनके पाखण्ड की नींव हिला डाली थी।
यही परम्परा का पालन करते हुवे पौराणिक समाज आज ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के षष्ठसमुल्लास पर एक जुठा आरोप कर रहां है । यह प्रकरणमें स्वामीजी ने राजधर्म की चर्चा करी है तथा मनुस्मृति के कई श्लोक प्रमाण के तोर पे दिये है।
यहां पर उनहोने मनुस्मृति का श्लोक ७.९६ उद्बोधित किया है तथा उस की व्याख्या करी है।रथाश्वं हस्तिनं छत्रं धनं धान्यं पशून्स्त्रियः ।सर्वद्रव्याणि कुप्यं च यो यज्जयति तस्य तत् ॥
व्याख्या – इस व्यवस्था को कभी न तोड़े कि जो-जो लड़ाई में जिस-जिस भृत्य वा अध्यक्ष ने रथ घोड़े, हाथी, छत्र, धन-धान्य, गाय आदि पशु और स्त्रियां तथा अन्य प्रकार के सब द्रव्य और घी, तेल आदि के कुप्पे जीते हों वही उस-उस का ग्रहण करे।।
यहां पौराणिक समाज स्वामीजी पर यह आक्षेप लगा रहां है की सत्यार्थ प्रकाशमें स्वामीजीने शत्रु की स्त्रियां जीतकर उनके भोग करने का आदेश दिया है। आप स्वयं देख ले। स्वामीजी की व्याख्यामें भोग शब्द कहीं पर है? उनहोने ग्रहण करने की बात करी है। क्युं की जरुरी है की युद्ध के पश्चात् धन, धान्य और स्त्री की योग्य व्यवस्था करी जाय। अन्यथा युद्ध के पश्चात् जो अराजकता उत्पन्न होती है उसमें इन सब का नाश होने का भय है। इसी लिये यह सब पदार्थ तथा स्त्रीयों को जीतने वाला राजपुरुष ग्रहण कर ले तथा मनुस्मृतिमें आगे जो नियम बतायें हुवे है उसके अनुसार इन सब की योग्य व्यवस्था करे।
यह मिथ्याप्रचार करते हुवे दो लेख आप यहँ देख सकते हो। एक लेख कथित ‘सत्यमार्ग’ का है तथा दुसरा लेख कथित ‘हिन्दू मन्तव्य‘ का है। दोनो लेख मौलिक नहीं लग रहे क्युं की दोनो साईट चलानेवाले व्यक्तियों का बौद्धिकस्तर ही नहीं है ईतनी चर्चा करने का।
पौराणिक अपना अर्थ करते हुवे कह रहे है की अर्थात- राजा द्वारा युद्ध मे शत्रुओं के रथ, घोडे, हाथी, छत्र, धन-धान्य, मादा पशु तथा घी-तेल आदि जो कुछ भी जीता गया है, उचित है कि, वह सब राजा उसी प्रजा को वापस कर दे (जिस राज्य को उसने जीता है)।
पौराणिक मतखण्डन
आप स्वयं संस्कृत श्लोक पढे। यहां पर आप को प्रजा शब्द कहीं पर दिख रहां है? तो फिर आपने प्रजा शब्द का अर्थ कहां से लिया? मूल श्लोकमें कोई भी शब्द नहीं है जिससे प्रजा शब्द को ग्रहण किया जा सके। भाषान्तरमें प्रजा शब्द की वृद्धि करना आप का बौद्धिक छल है। यह छल तब चल जाते थे जब लोग संस्कृत नहीं पढते थे।
संस्कृतमें स्पष्ट लिखा हैं की ‘यः यत् जयति तत् तस्य‘| ईतने सरल संस्कृत का अर्थ करना भी नहीं आता? चलो हम अर्थ कर देते है। ‘जो जिसको जीतता है वह उसका होगा।’
जब मनुने स्पष्ट लिखा है की धन, धान्य, रथ, अश्व, हाथी, पशु, स्त्री, सब पदार्थ, कुप आदि जो जीते वह उस का है तब आप उसे प्रजा को वापस देने की बात ही कहां से लाये? निश्चय ही मनु का मत है की यह सब विजेता को प्राप्त होता है। इस का प्रमाण उसके पश्चात् के श्लोक से मिलता है।राज्ञश्च दद्युरुद्धारमित्येषा वैदिकी श्रुतिः ।राज्ञा च सर्वयोधेभ्यो दातव्यमपृथग्जितम् ॥९७॥यहां पर जीते हुवे पदार्थ का उद्धार भाग (सोलवा भाग) राजा को देने का विधान है। तथा राजा भी उसे कुल जो उद्धारभाग मिलता है उसमें से उद्धारभाग सब योद्धामें बाँटता है। प्रश्न यह है की श्लोक ९६में पौराणिक कह रहे है की सब प्रजा को वापस दे दो। जब सब वापस ही दे दिया था तो अब योद्धा राजा को उद्धारभाग कहाँ से देगा? अपनी जेब से देगा क्यां? श्लोक ९७ का अर्थ भी पौराणिको द्वारा दिये गये श्लोक ९६ की व्याख्या का खण्डन करता है।
कुल्लुल भट्टने भी अपनी टीकामें कही पर उसे प्रजा को वापस देने की बात नहीं लिखी परन्तु अपने राजा को समर्पित करने की बात कही है। मेधातिथि, गङ्गानाथ झा आदि भाष्यकारोने भी यह सब प्रजा को वापस करने की बात नहीं लिखी।
यह पण्डित गिरिजाप्रसाद द्विवेदी का हिन्दी अनुवाद है। उनहोने भी यह सब विजेता को प्राप्त होने की बात लिखी है।
इस से यह सिद्ध होता है की सारे पुराने तथा आज के टीकाकार यही मानते है की यह सब पदार्थ तथा स्त्रियां विजेता को प्राप्त होती है। प्रजा को वापस देने का कोई विधान मनुस्मृतिमें नहीं है।
स्वामी दयानन्द सरस्वतीने भी यही अर्थ किया है। तो उनको दोष क्युं दिया जा रहा हैं? उनहोने तो वहीं कहां जो मनुने लिखा था। तथा उनहोने भोग करने की बात ही नहीं करी थी वो भी हम स्पष्ट कर चूके है।
स्त्रियः शब्द का अर्थतो फिर यहां पर स्त्री शब्द से क्यां ग्रहण करना चाहीये? आप स्त्री शब्द सामान्य अर्थ में भी ग्रहण कर सकते है। उसका अर्थ हमने उपर समजा दिया है। फिर से उसे लिखते है – जरुरी है की युद्ध के पश्चात् धन, धान्य और स्त्री की योग्य व्यवस्था करी जाय। अन्यथा युद्ध के पश्चात् जो अराजकता उत्पन्न होती है उसमें इन सब का नाश होने का भय है। इसी लिये यह सब पदार्थ तथा स्त्रीयों को जीतने वाला राजपुरुष ग्रहण कर ले तथा मनुस्मृतिमें आगे जो नियम बतायें हुवे है उसके अनुसार इन सब की योग्य व्यवस्था करे।
उपरोक्त अर्थ मनु के अनुकूल है। कुल्लकभट्टने अपनी टीकामें ‘स्त्रियः‘ शब्द से ‘दास्यादिस्त्रियः’ अर्थात् दासी आदि स्त्रीयां यह अर्थ ग्रहण किया है। डॉ. सुरेन्द्रकुमारने भी अपनी ‘विशुद्ध मनुस्मृति’में नौकर स्त्रियां यही अर्थ लिया है। यह अर्थ भी ले तो भी तात्पर्य यहीं निकलता है की जीते हुवे पदार्थ तथा नौकरस्त्रियां विजेता ग्रहण कर ले तथा उनकी योग्य व्यवस्था करे।
वैदिकधर्म और स्त्रीवैदिकधर्ममें स्त्रियों को उपभोग की वस्तु नहीं माना है। सदा उनका सन्मान किया है। इस लिये यहां स्त्रियों को ग्रहण करने का तात्पर्य केवल उनको अपने अधिकारमें कर के उनकी रक्षाकर योग्य व्यवस्था करने से है। उलटा सत्यमार्ग तथा हिन्दूमन्तव्यने उसका गलत अर्थ कर प्रजा को देने की बात करी है।
उपसंहारस्त्रियों को जीतकर उसको बाँटने की परम्परा पौराणिको की है। यह अश्लील कथाये पढपढ कर उनकी बुद्धि उतनी अश्लील हो चूकी है की मनु जैसे महात्मा के वचन भी उनहे स्त्रियां जीतकर उनहे भोग करने का आदेश लगते है। परन्तु यह तो पौराणिक परम्परा है। एष नः समयो राजन् रत्नस्य सहभोजनम् ।न च तं हातुमिच्छामः समयं राजसत्तम ॥ (महा. गीताप्रेस. आदि.१९४.२५) यह श्लोक बोलकर पौराणिकोने सती द्रौपदीको पाञ्च पुरुष की पत्नी बना ही दिया था ना! वहाँ पर स्त्री को बाँटकर उपभोग करने की बात करी गई है। लेकिन महर्षि दयानन्द सरस्वती यह उपभोग की परम्परा से नहीं थे। इसी लिये उनहोने स्त्रियों की रक्षा और व्यवस्था करने के लिये ग्रहण करने का लिखा, उपभोग करने का नहीं।