बहुतायत आर्य समाजों में यज्ञ के पश्चात् ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिन…..’’का पाठ किय जाता है। शंका संया 1- यह श्लोक है या कि मन्त्र है? किसी आर्ष ग्रन्थ से उद्घृत किया गया है?

समाधान 1- यज्ञ के बाद प्रायः यज्ञ प्रार्थना व अन्य श्लोक, गीत आदि गाये जाते हैं, जा रहे हैं। अनेक बार समय का आाव होने पर भी ये प्रार्थना श्लोक आदि यज्ञ के समय को बढ़ा देते हैं, जिससे जो लेगा अपने व्यस्त जीवन में से समय निकालकर यज्ञ करना चाहते हैं तो वे लोग इस लबी प्रक्रिया को देख पीछे हट जाते हैं।

आपको बात दें कि इस यज्ञ प्रक्रिया को ऋषि दयानन्द जितना सरल बना सकते थे, उतना सरल बनाकर गये हैं। इस सरलतम विधि से यज्ञ करते हैं तो अति व्यस्त व्यक्ति भी नित्य प्रति यज्ञार्थ 15-20 मिनट निकाल सकता है। महर्षि दयानन्द ने यज्ञ की पूर्ण आहुति के बाद कुछ करने को नहीं लिखा है, हाँ संस्कार विशेष में ‘वामदेव’ गान की तो बात महर्षि कहते हैं। फिर भी जिसके पास समय है, वह ये यज्ञ प्रार्थना आदि कर सकता है, इसके करने से कोई विशेष पुण्य मिलेगा अथवा न करने से पाप हो जायेगा ऐसी कोई बात प्रतीत नहीं होती।

अब आपकी बात पर आते हैं- आपने जो ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिन…..’’ विषय में पूछा है कि यह मन्त्र है या श्लोक? तो हम आपको बता दें कि यह किसी वेद का मन्त्र नहीं है। यह तो पुराण का श्लोक है। गरुड़ पुराण  में श्लोक कुछ पाठ भेद से दिया गया है। पुराण में यह श्लोक इस रूप में है-

सर्वेषां मंगलं भूयात् सर्वे सन्तु निरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भागभवेत्।।

– ग. पु. अ. 35.51

पुराण में ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’’ के स्थान पर ‘‘सर्वेषां मंगलं भूयात्’’ है। आपकी जिज्ञासा इस श्लोक के कविताशं पर है। आप ‘‘कोई न हो दुःखारी’’ का अर्थ ‘‘क ोई न हो दुःख का शत्रु’’ ऐसा निकाल रहे हैं अर्थात् इस अर्थ के अनुसार सभी दुःखी होवें, ऐसा अभिप्राय आयेगा। इस प्रकार का अर्थ करने में आपका हेतु है ‘पुजारी’ शद इस पुजारी शद का अर्थ आप पूजा का शत्रु कर रहे हैं और इसमें महर्षि दयानन्द का साक्ष्य भी दे रहे हैं। हम आपको बता दें ‘पुजारी’ शद का अर्थ तो ‘‘पूजा करने वाला’’ ही है। इसी अर्थ को ‘पुजारी’ शद लिए है, कहा जा रहा है। महर्षि ने जो अर्थ ‘पूजा का शत्रु’ किया है वह आजकल के पूजा करने वालों पर विनोद में (मजाक में) व्यंग किया है। मात्र वहाँ महर्षि विनोद में यह अर्थ कर रहे हैं, न कि यथार्थ में। यदि महर्षि से कोई यथार्थ में इसका अर्थ पूछता तो महर्षि ‘पूजा करने वाला’ इस अर्थ को ही कहते बताते क्योंकि इस शद का अर्थ ही यह है।

आपने अपनी बात को सिद्ध करने के लिए ‘मुरारि’ शद दिया है, यह पहली  बार आपने ठीक लिखा किन्तु इससे आपकी बात सिद्ध न हुई तो इसको बिगाड़ कर ‘मुरारी’ लिख दिया, जो कि अयुक्त है। कहीं भी किसी भी कोश में आपको ‘मुरारि’ (मुर नामक दैत्य को मारने वाला= कृष्ण) के स्थान पर ‘मुरारी’ नहीं मिलेगा। इसलिए जिस बात को आप सिद्ध करना चाहते हैं, वह सिद्ध न होगी।

आपने यह भी प्रतिबन्ध लगा दिया की मात्रा का भेद न करें। आप भाषा विज्ञान शद विज्ञान को जानेंगे-समझेंगे तो ऐसा भ्रम नहीं होगा। जो शद जैसा है, वह अपने उस स्वरूप के अनुसार, प्रकरण और प्रसंग अनुसार अर्थ देता है। ऐसा ही यहाँ भी समझें।

हमारे चार वेद हैं और वे चारों ज्ञान के भण्डार हैं, लेकिन श्रीकृष्ण ने श्रीमद् भगवद्गीता में सामवेद को ही अपनी विभूति क्यों कहा है?

चारों वेद ज्ञान के भण्डार हैं, यह ठीक है, चारों ही वेदों का बराबर महत्व  है। वेदों के अपने विषय हैं- ज्ञान, कर्म, उपासना, विज्ञान, इनमें से किसी को सभी प्रिय हो सकते हैं और किसी को एक या दो। हो सकता है, जिस समय कृष्ण जी ने यह कहा, उस समय उनको उपासना प्रिय हो, जो कि सामवेद का विषय है।

आपको बता दें कि साम नाम केवल सामवेद का ही नहीं है, अपितु चारों वेदों में जो ऋचाएँ स्वर सहित गाई जाती हैं, उनका नाम साम है। इस आधार पर केवल सामवेद ही विभूति नहीं है, अपितु चारों वेदों में गायी जाने वाली सभी ऋचाएँ विभूति हैं। श्रीकृष्ण जी योगीराज थे, योगीजन उपासना प्रिय होते हैं, उपासना की दृष्टि से उन्होंने सामवेद को अधिक मह        व दिया होगा। अस्तु।

उपनिषद् ग्यारह हैं, उनके नाम मेरे पास हैं, लेकिन प्रत्येक उपनिषद् में किस-किस प्रकार का ज्ञान है, वह नहीं मिलता या प्राप्त है।

आपने कहा ‘उपनिषदों में किस प्रकार का ज्ञान है? वह नहीं मिलता अर्थात् क्या विषय है, यह नहीं मिलता’ यह कहना उपयुक्त नहीं, क्योंकि उपनिषदों को पढ़ने से इनमें आये विषय का स्पष्ट ज्ञान होता है। उपनिषदों में मुख्य आत्मा-परमात्मा का विषय है। आत्मा व परमात्मा के स्वरूप को उपनिषद् बताते हैं। इनकी प्राप्ति कैसे होती है, यह उपनिषद् बताते हैं, प्रकृति का वर्णन भी उपनिषदों में आया है। पुनर्जन्म, सूक्ष्मशरीर, प्राण, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि इन सबके विषय में उपनिषद् वर्णन करते हैं। इतना सब उपनिषदों से ज्ञात होता है, इससे आप उपनिषदों के विषय को जान सकते हैं।

अब तक कितने मनु हुए हैं, उनके क्या नाम हैं, उनमें से प्रत्येक ने किस प्रकार का ज्ञान दिया? श्रीमद् भगवद्गीता में योगीराज श्रीकृष्ण ने चौदह मनु को रेफर किया है, परन्तु इससे अधिक कुछ नहीं कहा।

अब तक कितने मनु हुए? इस विषय में सर्वांशरूप से तो कुछ नहीं कह सकते। मनु नाम के कितने ऋषि वा मनुष्य हुए, यह कहना कठिन है। हाँ, मनुस्मृति के रचनाकार महर्षि मनु वा स्वायम्भुव मनु का इतिहास तो अनेकत्र उपलब्ध  होता है, जो कि आदि सृष्टि में हुए हैं, किन्तु और कितने तथा कौन-कौन नाम वाले मनु हुए, इसका इतिहास प्राप्त नहीं है। हाँ, अनार्ष ग्रन्थ भागवत पुराण में चौदह मनुओं का व उनके पुत्रादि का वर्णन मिलता है, किन्तु यह तो उनकी कल्पना ही लगती है।

मन्वन्तर रूपी काल के नाम तो उपलब्ध  हैं, जैसे दिनों के नाम रवि, सोम एवं महिनों के नाम चैत्र, ज्येष्ठ आदि हैं, उसी प्रकार चौदह मन्वन्तरों के भी नाम हैं- १. स्वायम्भुव, २. स्वरोचिष, ३. उ      ाम, ४. तामस, ५. रैवत, ६. चाक्षुष, ७. वैवस्वत, ८. सावर्णि, ९. दक्षसावर्णि, १०. ब्रह्मसावर्णि, ११. धर्मसावर्णि, १२. रुद्रसावर्णि, १३. देव सावर्णि, १४. इन्द्रसावर्णि। ये मनु हैं, अथवा ये चौदह मन्वन्तर के नाम हैं।

इस विषय में अनार्ष ग्रन्थ भागवत पुराण में लिखा है-

राजंश्चतुर्दशैतानि त्रिकालानुगतानि ते।

प्रोक्तन्येभिर्मितः कल्पो युगसाहस्रपर्ययः।।

– ८.१३.३६

हे राजन! ये चौदह मन्वन्तर भूत, वर्तमान और भविष्य- तीनों ही कालों में चलते रहते हैं। इन्हीं के द्वारा एक सहस्र चतुर्युगी वाले कल्प के समय की गणना की जाती है।

ये चौदह नाम मनु के मिलते हैं और ये समय (काल) के नाम हैं। काल जड़ है, चेतन नहीं है। जड़ होते हुए ये चेतन की भाँति किसी प्रकार का ज्ञान देने में असमर्थ हैं, ज्ञान नहीं दे सकते।

श्रुतियाँ कितनी हैं, उनके क्या-क्या नाम हैं, उनके लेखक/सृजन कर्ता कौन हैं, उनमें किस विषय का ज्ञान है?

महर्षि दयानन्द के अनुसार वेद को ही श्रुति कहते हैं, इस आधार पर श्रुतियों की संख्या चार ही रहेंगी अर्थात् श्रुतियाँ चार हैं। महर्षि दयानन्द ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका के वेदोत्पत्ति  विषय में प्रश्नोत्तर  पूर्वक लिखते हैं-

‘‘प्रश्न- वेद और श्रुति ये दो नाम ऋग्वेदादि संहिताओं के क्यों हुए हैं? उत्तर – अर्थभेद से। क्योंकि एक ‘विद’ धातु ज्ञानार्थ है, दूसरा ‘विद’ सत्तार्थ  है, तीसरे ‘विदलृ’ का अर्थ लाभ हैं, चौथे ‘विद’ का अर्थ विचार है। इन चार धातुओं से करण और अधिकरण कारक में ‘घञ्’ प्रत्यय करने से ‘वेद’ शब्द  सिद्ध होता है तथा ‘श्रु’ धातु श्रवण अर्थ में है। इससे करण कारक में ‘क्तिन्’ प्रत्यय के होने से ‘श्रुति’ शब्द  सिद्ध होता है। जिनके पढ़ने से यथार्थ विद्या का विज्ञान होता है, जिनको पढ़के विद्वान् होते हैं, जिनसे सब सुखों का लाभ होता है और जिनसे ठीक सत्यासत्य का विचार मनुष्यों को होता है, इससे ऋक्संहितादि का वेद नाम है। वैसे ही सृष्टि के आरम्भ से आज पर्यन्त और ब्रह्मादि से लेके हम लोग पर्यन्त। जिससे सब विद्याओं को सुनते आते हैं, इससे वेदों का ‘श्रुति’ नाम पड़ा है, क्योंकि किसी ने वेदों के बनाने वाले देहधारी को साक्षात् कभी नहीं देखा। इस कारण से जाना गया कि वेद निराकार ईश्वर से ही उत्पन्न हुए हैं और सुनते-सुनाते ही आज पर्यन्त सब लोग चले आते हैं।’’

महर्षि के इन वचनों से स्पष्ट हो रहा है कि वेद ही श्रुति है। अब रही नाम की बात तो वह भी सरलता से पता चलता है, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ये श्रुतियों के नाम हैं।

इन श्रुतियों का सृजन कर्ता  कोई देहधारी मनुष्य नहीं था। इनका सृजन कर्ता  तो निराकार, सर्वज्ञ परमेश्वर ही है। इनका ज्ञान परमेश्वर ने आदि सृष्टि में ऋषियों को दिया। किन ऋषियों ने कब इस श्रुतिरूपी ज्ञान को लिपिबद्ध किया अर्थात् लिखा, इसका इतिहास प्राप्त नहीं है, अर्थात् हम यह नहीं बता सकते कि इनको लिखने वाले ऋषि कौन थे और इनको किस समय लिखा।

इनमें किस विषय का ज्ञान है, इसको विस्तार से जानने के लिए महर्षि दयानन्द द्वारा लिखित ऋग्वेदादि-भाष्यभूमिका का अध्ययन करें।

श्रुति के विषय में हमने महर्षि दयानन्द की मान्यता को रखा, जिसको हम भी स्वीकारते हैं। अब अन्य विद्वानों की मान्यता को यहाँ थोड़ा लिखते हैं। कुछ विद्वान् श्रुति से मन्त्र भाग व ब्राह्मण भाग दोनों लेते हैं, अर्थात् मूल वेद और उसके व्याख्या ग्रन्थ शतपथ आदि ब्राह्मण ग्रन्थ। उनका कहना है- ‘श्रूयतेऽनया सा श्रुतिः’ जिससे अर्थ को सुना जाये अर्थात् जाना जाये। ऐसी व्याख्या करके वे दोनों अर्थ ग्रहण करते हैं।

ऐसी मान्यता वाले विद्वान्, जब कभी श्रुति की बात आती है तो व्याख्यान ग्रन्थ ब्राह्मणों का भी प्रमाण मानते हैं, जबकि महर्षि दयानन्द श्रुति से वेद को प्रमाण मानते हैं। इस विषय में आर्यसमाज के योग्य विद्वान् पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने भी अपना विचार रखा है, वे लिखते हैं- ‘‘हमारे विचार से ‘श्रुति’ शब्द  का प्रधान अर्थ गुरु परम्परा से नियमतः अधीयमान मन्त्रों का ही है, परन्तु व्याख्येय-व्याख्यानसम्बन्ध रूप लक्षणा से इनका प्रयोग ब्राह्मण वचनों के लिए भी होता है।’’

ब्राह्मण ग्रन्थ कितने हैं, उनके क्या नाम हैं, उनके रचयिता/लेखक कौन हैं, प्रत्येक ग्रन्थ में क्या ज्ञान है?

मुझे आपके व अन्य विद्वानों के लेख, जो कि परोपकारी पत्रिका में समय-समय पर प्रकाश्ति होते हैं, उनमें हमारी वैदिक संस्कृति से सम्बन्धित ग्रन्थों का सन्दर्भ दिया  जाता है। यह मेरा दुर्भाग्य है कि मैं उनके

बारे में अधिक ज्ञान नहीं रखता और कदाचित कोई इस प्रकार की पुस्तक भी नहीं है, जिसमें उन ग्रन्थों के नाम, उनके प्रकार, लेखक/रचयिता तथा उनमें क्या ज्ञान छिपा हुआ है, प्रकाशित हों।

मेरे प्रश्न इस प्रकार हैं-

१. ब्राह्मण ग्रन्थ कितने हैं, उनके क्या नाम हैं, उनके रचयिता/लेखक कौन हैं, प्रत्येक ग्रन्थ में क्या ज्ञान है?

डॉ. वेदप्रकाश गुप्ता, एफ १-३-३, सेक्टर ३-४, ज्ञानदीप, वाशी, नवी मुम्बई-४००७०३

समाधानमानव संस्कृति, सभ्यता  व ज्ञान के भण्डार, वेद व वेदानुकूल ऋषियों के ग्रन्थ हैं। वेद स्वयं ईश्वर द्वारा बनाये हुए अपौरुषेय हैं, जिससे वे स्वतः प्रमाण हैं अर्थात् वेद के लिए स्वयं वेद ही प्रमाण हैं। जैसे सूर्य को दिखाने के लिए अन्य किसी प्रकार के साधन की आवश्यकता नहीं होती, सूर्य तो अपने आप दिखने में समर्थ है, वैसे ही वेद को जानें।

वेद मन्त्र भाग हैं, मन्त्र संहिताएँ हैं अर्थात् मूल मन्त्र भाग वेद कहलाते हैं। उनके उन मन्त्रों के जो व्याख्या करने वाले ग्रन्थ हैं, वे ब्राह्मण कहलाते हैं। आप इन्हीं ब्राह्मण ग्रन्थों के विषय में जानना चाहते हैं। ब्राह्मण ग्रन्थ कितने हैं, उनके लेखक कौन हैं, उनके विषय क्या हैं, यह लिखने से पहले यह देख लेते हैं कि ब्राह्मण ग्रन्थ किनको कहते हैं? इनकी अपर संज्ञाएँ क्या हैं आदि।

महर्षि दयानन्द ने ब्राह्मण ग्रन्थ बताने के लिए अपनी पुस्तक अनुभ्रमोच्छेदन में लिखा है- ‘‘जिससे ये ऐतरेय आदि ग्रन्थ ब्रह्म अर्थात् वेदों के व्याख्यान भाग हैं, अर्थात् ब्रह्मणां वेदानामिमानि व्याख्यानानि ब्राह्मणानि। अर्थात् शेष भूतानि सन्तीति।’’ इससे महर्षि कहना चाहते हैं कि जो ऐतरेय आदि वेद मन्त्रों की व्याख्या करने वाले ग्रन्थ हैं, वे ब्राह्मण ग्रन्थ कहलाते हैं।

और भी-‘‘वेद का अपर नाम ब्रह्म है। -शतपथ ७.१.१५ में कहा है- ‘‘ब्रह्म वै मन्त्रः’’, अतः वेद मन्त्रों की व्याख्या प्रस्तुत करने वाले ग्रन्थों की ब्राह्मण संज्ञा है। ‘ब्रह्म’ श       द का अर्थ यज्ञ भी है। इस आधार पर मन्त्रों की व्याख्या करने के साथ-साथ यज्ञ में उनका विनियोग करने तथा कर्मकाण्ड की व्याख्या एवं विवरण प्रस्तुत करने के कारण भी उन्हें ब्राह्मण नाम से अभिहित किया गया है। भट्टभास्कर ने कर्मकाण्ड तथा मन्त्रों की व्याख्या करने वाले ग्रन्थों क ो ब्राह्मण कहा है-

‘ब्राह्मणं नाम कर्मणस्तन्मन्त्राणां व्याख्यानग्रन्थः’

– तै    िारीय संहिता १.५.१का भाष्य।’’ स.भा

ब्राह्मण ग्रन्थों के ही अपर नाम इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा और नाराशंसी हैं। इन ब्राह्मण ग्रन्थों में जो (देवासुराः संप ाा आसन्) अर्थात् देव (विद्वान्) असुर (मूर्ख) ये दोनों युद्ध करने को तत्पर हुए थे- इत्यादि कथा भाग है, उसका इतिहास नाम है, जिसमें

‘सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’,

‘आत्मा वा इदमेकमेवाग्र आसीन्नान्यत् किंचन मिषत्’

‘आपो ह वा इदमग्रे सलिलमेवास’,

‘इदं वा अग्रे नैव किंचिदासीत्।’

इस प्रकार के वर्णन पूर्वक जगत् की उत्प    िा को कहा है, वह भाग पुराण कहलाता है।

‘‘कतपा मन्त्रार्थसामर्थ्यप्रकाशकाः।’’ जो वेदमन्त्रों के अर्थ अर्थात् जिनमें द्रव्यों के सामर्थ्य का कथन किया है, उनका नाम कल्प है।

इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य, जनक, गार्गी, मैत्रेयी आदि की कथाओं का नाम ‘गाथा’ है।

जिनमें नर अर्थात् मनुष्यों ने ईश्वर, धर्मादि पदार्थ विद्याओं और मनुष्यों की प्रशंसा की है, उनको नाराशंसी कहते हैं। यह वर्णन महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेद संज्ञा विचार प्रकरण में किया है।

अब आपके मूल प्रश्न पर आते हैं- ब्राह्मण ग्रन्थ कितने हैं? आज वर्तमान में चार ब्राह्मण मुख्य रूप से प्रचलित हैं, किन्तु ब्राह्मणों की संख्या इतनी ही है, ऐसा नहीं है। विद्वानों का ऐसा मानना है कि वेद की सभी शाखाओं के अपने-अपने ब्राह्मण थे। उनमें से अनेकों के आज नाम तक ज्ञात नहीं हैं। जो ब्राह्मण आज उपल   ध हैं वे लगभग अठारह हैं और जो उपलध नहीं हैं, केवल जिनके नामों का पता मिलता है, उनकी संख्या लगभग इक्कीस है। इन ब्राह्मण ग्रन्थों, लेखकों अथवा प्रवक्ताओं के नाम कुछ को छोड़कर प्रायः नहीं मिलते हैं। इसमें कारण ऋषियों की यश कामना से रहितता होना लगता है।

प्रसिद्ध प्रचलित चार ब्राह्मण ऐतरेय, शतपथ, ताण्ड्य और गोपथ ब्राह्मण हैं। अब कौन-सा ब्राह्मण किस वेद का है, उस वेद के कितने ब्राह्मण हैं यह लिखते हैं। ऋग्वेद के मुख्य तीन ब्राह्मण हैं-

. ऐतरेय ब्राह्मण :इस ब्राह्मण का प्रवक्ता इतरा का पुत्र ऐतरेय महीदास था। इस ऐतरेय ब्राह्मण में आठ पंचिकाएँ हैं। प्रत्येक पंचिका में पाँच अध्याय हैं। सम्पूर्ण ब्राह्मण में चालीस अध्याय हैं।

. कौषीतकि ब्राह्मण :इस ग्रन्थ का परिमाण तीस अध्यायों का है। इस ग्रन्थ के प्रवचनक     र्ाा कौषीतकि अथवा शाङ्खायन इन दोनों में से कोई एक है, ऐसी विद्वानों की मान्यता है।

. शाङ्खायन ब्राह्मणः इस ग्रन्थ में तीस अध्याय हैं। इस ग्रन्थ के नाम से पता लगता है कि इसके प्रणेता शाङ्खायन रहे होंगे।

यजुर्वेद के भी तीन ब्राह्मण उपल    ध होते हैं-

. माध्यन्दिन शतपथ ब्राह्मण :यह ब्राह्मण सबसे अधिक प्रचलन में है । इसके नाम के अनुसार इसमें एक सौ अध्याय हैं। इस ब्राह्मण में चौदह काण्ड, एक सौ अध्याय, चार सौ अड़तीस ब्राह्मण और सात हजार छः सौ चौबीस कण्डिकाएँ हैं। इसका दूसरा नाम वाजसनेय ब्राह्मण भी मिलता है। इसके रचयिता महर्षि याज्ञवल्क्य रहे हैं।

. काण्व शतपथ ब्राह्मणः इस ब्राह्मण के काण्ड विभाग या वाक्य रचना के स्वतन्त्र भेद को छोड़कर यह ब्राह्मण माध्यन्दिन शतपथ के समान ही है। इसमें एक सौ चार अध्याय, चार सौ चवालीस ब्राह्मण और पाँच हजार आठ सौ पैंसठ कण्डिकाएँ हैं।

. कृष्ण यजुर्वेदीय तै       िारीय ब्राह्मणः इस ब्राह्मण का संकलन वेशम्पायन के शिष्य ति िारि ने किया था। इस ब्राह्मण में तीन अष्टक हैं।

सामवेद के ग्यारह ब्राह्मण मिलते हैं-

. ताण्ड्य ब्राह्मण-सामवेद का यह ब्राह्मण मुख्य रूप से प्रचलित है। इसका संकलन सामविधान ब्राह्मण (२.९३) के अनुसार ताण्डि नामक एक आचार्य ने किया था। इसमें पच्चीस प्रपाठक और तीन सौ सैंतालीस खण्ड हैं।

. षड्विंश ब्राह्मण-इस ब्राह्मण का संकलन भी विद्वान् लोग आचार्य ताण्डि अथवा उनके निकटवर्ती शिष्यों के द्वारा किया गया मानते हैं। इस ब्राह्मण में पाँच प्रपाठक और अड़तालीस खण्ड हैं।

. मन्त्र ब्राह्मण-इस ब्राह्मण का परिमाण दो प्रपाठकों और सोलह खण्डों का है।

. दैवत अथवा देवताध्याय ब्राह्मण-दैवत ब्राह्मण का दूसरा नाम देवताध्याय ब्राह्मण है। यह ब्राह्मण आकार की दृष्टि से छोटा-सा ही है, इसके केवल तीन खण्ड व बासठ कण्डिकाएँ हैं।

. आर्षेय ब्राह्मण-यह ब्राह्मण सामवेद की कौथुम शाखा को मानने वालों का ही है। इसमें सामवेद के सामगान के नामों का मुख्यतः वर्णन है। इसमें तीन प्रपाठक और बयासी खण्ड हैं।

. सामविधान ब्राह्मण-इस ब्राह्मण में अभिचार आदि कर्मों का बहुत वर्णन है। इसमें तीन प्रपाठक व पच्चीस खण्ड हैं।

. संहितोपनिषद् ब्राह्मण-यह बहुत छोटा-सा है। सारा ही एक प्रपाठक और पाँच खण्डों का है। इस ब्राह्मण में सामवेद के अरण्य गान व ग्रामगेय गान का वर्णन है।

. वंश ब्राह्मण-यह भी लघु ही है, केवल तीन खण्ड का ही है। इसमें सामवेद के आचार्यों की वंश परम्परा दी गई है।

. जैमिनीय ब्राह्मण-इस ब्राह्मण का संकलन महर्षि व्यास के प्रसिद्ध शिष्य सामवेद के आचार्य जैमिनी और उनके शिष्य तवलकार का किया हुआ है। इसके मुख्य तीन भाग है। पहले में तीन सौ साठ खण्ड, दूसरे में चार सौ सैंतीस  और तीसरे में तीन सौ पिच्चासी खण्ड हैं।

१०. जैमिनीय आर्षेय और ११. जैमिनीयोपनिषद्  ब्राह्मण-ये ग्यारह सामवेद के ब्राह्मण मिलते हैं।

अथर्ववेद का एक ही ब्राह्मण ‘गोपथ ब्राह्मण’उपल   ध होता है। इस ब्राह्मण के पूर्व और उ   ार दो भाग हैं। पूर्व भाग में पाँच प्रपाठक और उ    ार में छः प्रपाठक हैं, कुल मिलाकर ग्यारह प्रपाठक का यह ब्राह्मण है। इसमें एक ही स्थान पर बहुत यज्ञों के नाम लिखे हुए हैं। इसमें मन्त्र, कल्प, ब्राह्मण का एक ही स्थान पर उल्लेख है। इसके पूर्व भाग में विपाट् नदी के मध्य में बड़ी-बड़ी शिलाओं पर वशिष्ठ के आश्रमों का वर्णन है। यह अनेक प्राचीन साम्राज्यों का कथन करता है। यही ब्राह्मण ओंकार की तीन मात्राओं का वर्णन करता है।

चारों वेदों के ये अठारह ब्राह्मण उपल       ध हैं। इनका विषय है- आत्मा का अस्तित्व और पुनर्जन्म, अमर आत्मा, परमेश्वर (प्रजापति), तीन लोक, मानव आयु व उसके पूर्ण भोगने के उपाय, सुखी गृहस्थ, गृहस्थ में स्त्री का स्थान, विवाह, सत्य, पाप का स्वरूप, यज्ञ का स्वरूप, यज्ञों के मुख्य भेद, यज्ञ तथा पाप विमोचन, यज्ञ और बलिदान व देवता, आपः (जल) का विषय, हिरण्यगर्भ= तेजोमय महद्अण्ड का वर्णन, अग्नि का स्वरूप, वृष्टि का वर्णन, वर्षा, समुद्र, सूर्य, प्राणायाम का कथन, पृथिवी का इतिहास अर्थात् आर्द्रा (शिथिल पृथिवी), आर्द्रा पृथिवी पर क्रमशः सृष्टियाँ – फेन, मृत ऊष, सिकता, शर्करा, अश्मा, अयः और हिरण्यम् औषधि वनस्पति का प्रादुर्भाव, आग्नेयी पृथिवी, अग्निगर्भा पृथिवी, परिमण्डला पृथिवी, अयस्मयी पृथिवी, सर्व राज्ञी पृथिवी आदि, अन्तरिक्ष मरुत, अन्तरिक्षस्थ पशु, धातुओं को टाँका लगाना, रेखागणित व स्वर्ग- ये इतने सारे इन ब्राह्मण ग्रन्थों के विषय हैं, अर्थात् इतने विषयों का ज्ञान कराने वाले ये हैं।

कुछ अनुपल ध ब्राह्मण ग्रन्थों के नाम भी मिलते हैं, इनके विषय में विस्तार से जानने के लिए विद्वान् पण्डित भगवद्द   ा जी द्वारा लिखित विशेष ग्रन्थ ‘वैदिक वाङ्मय का इतिहास’ तृतीय खण्ड देखना चाहिए। हमने भी यह सब इसी ग्रन्थ को देखकर लिखा है।

आपके अन्य प्रश्नों के उत्तर  आगे लिखेंगे, अस्तु।

ऋषिउद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

नरक, स्वर्ग व मोक्ष क्या हैं ? – आचार्य सोमदेव

नरक, स्वर्ग व मोक्ष  क्या हैं ?  – आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा मैं आपसे अपनी ही नहीं अपितु आम व्यक्तियों की जिज्ञासा हेतु कुछ जानना चाहता हूँ। कृपया समाधान कर कृतार्थ करें-

(क) तमाम कथावाचक, उपदेशक, साधु व सन्त नरक, स्वर्ग व मोक्ष की बातें करते हैं। आप इन को विस्तृत रूप से समझायें और अपने विचार दें।

समाधन– (क) वेद विरुद्ध मत-सम्प्रदायों ने अनेक मिथ्या कल्पना कर, उन कल्पनाओं को जन सामान्य में फैलाकर पूरे समाज को अविद्या अन्धकार में फँसा रखा है, जिससे जगत् में दुःख की ही वृद्धि हो रही है। ये मत-सम्प्रदाय ऊपर से अध्यात्म का आवरण अपने ऊपर डाले हुए मिलते हैं। यथार्थ में देखा जाये तो जो वेद के प्रतिकूल होगा वह अध्यात्म हो ही नहीं सकता। कहने को भले ही कहता रहे। महर्षि दयानन्द के काल में व उनसे पूर्व और आज वर्तमान में इन मत-सम्प्रदायों की संख्या देखी जाये तो हजारों से कम न होगी। उन हजारों में शैव, शाक्त, वैष्णव, वाममार्ग, बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम आदि प्रमुख हैं। महर्षि दयानन्द के समय से कुछ पूर्व स्वामी नारायण सम्प्रदाय, रामस्नेही सम्प्रदाय, वल्लभ सम्प्रदाय, गुसाईं मत आदि और महर्षि के बाद राधास्वामी मत, ब्रह्माकुमारी मत, हंसा मत, सत्य सांई बाबा पंथ (दक्षिण वाले), आनन्द मार्ग, महेश योगी, माता अमृतानन्दमयी, डेरा सच्चा सौदा, आर्ट ऑफ लिविंग, निरंकारी, विहंगम योग, शिव बाबा आदि कितनों के नाम लिखें। ये सब अवैदिक मान्यता वाले हैं। इन्होंने अपने-अपने मत की पुस्तकें भी बना रखी हैं। इन पुस्तकों में इन मत वालों ने अपनी मनघड़न्त कल्पनाओं के आधार पर ही अधिक लिख रखा है। स्वर्ग, नरक, मोक्ष, आकाश में देवताओं का निवास स्थान, यमराज, यमदूत आदि की व्याख्याएँ अविद्यापरक ही हैं।

आपने स्वर्ग, नरक, मोक्ष के विषय में जो आज के तथाकथित उपदेशक, कथावाचक, साधु-सन्त कहते-बतलाते हैं, उसके सम्बन्ध में जानना चाहा है। यहाँ हम महर्षि की मान्यता को लिखते हैं व इन तथाकथित कथावाचकों की इन विषयों में क्या दृष्टि है उसको भी लिखते हैं। ‘‘स्वर्ग- जो विशेष सुख और सुख की सामग्री को जीव का प्राप्त होना है वह स्वर्ग कहाता है। नरक- जो विशेष दुःख और दुःख की सामग्री को जीव का प्राप्त होना है उसको नरक कहते हैं।’’ आर्योद्दे. १४-१५ स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश में महर्षि इनके विषय में लिखते हैं- ‘‘स्वर्ग- नाम सुख विशेष भोग और उनकी सामग्री प्राप्ति का है। नरक- जो दुःख विशेष भोग और उनकी सामग्री प्राप्ति को प्राप्त होना है।’’ सत्यार्थप्रकाश ९वें सम्मुल्लास में महर्षि लिखते हैं- ‘‘…….सुख विशेष स्वर्ग और विषय तृष्णा में फँसकर दुःख विशेष भोग करना नरक कहाता है। ‘स्वः’ सुख का नाम है, स्व सुखं गच्छति यस्मिन् स स्वर्गः, अतो विपरीतो दुःखभोगो यस्मिन् स नरक इति। जो सांसारिक सुख है वह सामान्य स्वर्ग और जो परमेश्वर की प्राप्ति में आनन्द है, वही विशेष स्वर्ग कहाता है।’’

महर्षि की इन परिभाषाओं के आधार पर (परमेश्वर की प्राप्ति रूप विशेष स्वर्ग को छोड़) स्वर्ग-नरक किसी लोक विशेष या स्थान विशेष पर न होकर, जहाँ भी मनुष्य आदि प्राणी हैं, वहाँ हो सकते हैं। जो इस संसार में सब प्रकार से सम्पन्न है अर्थात् शारीरिक स्वस्थता, मन की प्रसन्नता, बन्धु जन आदि का अनुकूल मिलना, अनुकूल साधनों का मिलना, धन सम्प   िा पर्याप्त मिलना आदि है, जिसके पास ये सब हैं वह स्वर्ग में ही है। इसके विपरीत होना नरक है, नरक में रहना है। वह नरक भी इसी संसार में देखने को मिलता है।

नरक के विषय में किसी नीतिकार ने लिखा है

अत्यन्तकोपः कटुका च वाणी, दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम्।

नीचप्रसङ्गः कुलहीनसेवा चिह्नानि देहे नरकस्थितानाम्।।

अत्यन्त क्रोध, कटुवचन, दारिद्र्य, अपने स्वजनों से वैर-भाव, नीच-दुर्जनों का संग और कुलहीन की सेवा, ये चिह्न नरकवासियों की देह में होते हैं। ये सब चिह्न इसी संसार में देखने को मिलते हैं। इस आधार पर स्वर्ग अथवा नरक के लिए कोई लोक पृथक् से हो ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा। यह काल्पनिक ही सिद्ध हो रहा है।

जिस स्वर्ग लोक की कल्पना इन लोगों ने कर रखी है, वह तो इस पृथिवी पर रहने वाले एक साधन सम्पन्न व्यक्ति से अधिक कुछ नहीं है।

मोक्ष निराकार परमेश्वर को प्राप्त कर, उसके आनन्द में रहने का नाम है अर्थात् जब जीव अपने अविद्यादि दोषों को सर्वथा नष्ट कर, शुद्ध ज्ञानी हो जाता है तब वह सब दुःखों से छूट कर परमेश्वर के आनन्द में मग्न रहता है, इसी को मोक्ष कहते हैं। वहाँ आत्मा अपने शरीर रहित अपने शुद्ध स्वरूप में रहता है। कथावाचकों के मोक्ष की कल्पना और उसके साधनों की कल्पना सब मिथ्या है। किन्हीं का मोक्ष गोकुल में, किसी का विष्णु लोक क्षीरसागर में, किसी का श्रीपुर में, किसी का कैलाश पर्वत में, किसी का मोक्षशिला शिवपुर में, तो किसी का चौथे अथवा सातवें आसमान आदि पर। इस प्रकार के मोक्ष के उपाय भी मिथ्या एवं काल्पनिक हैं। जैसे-

गङ्गागङ्गेति यो ब्रूयाद् योजनानां शतैरपि।

मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति।।

– ब्रह्मपुराण. १७५.९२/पप.पु.उ. २३.२

अर्थात् जो सैकड़ों सहस्रों कोश दूर से भी गंगा-गंगा कहे, तो उसके पाप नष्ट होकर वह विष्णु-लोक अर्थात् वैकण्ठ को जाता है।

हरिर्हरति पापानि हरिरित्यक्षरद्वयम्।।

अर्थात् हरि इन दो अक्षरों का नामोच्चारण सब पापों को हर लेता है, वैसे ही राम, कृष्ण, शिव, भगवती आदि नामों का महात्म्य है।

इसी तरह

प्रातः काले शिवं दृष्ट्वा निशि पापं विनश्यति।

आजन्म कृतं मध्याह्ने सायाह्ने सप्तजन्मनाम्।।

अर्थात् जो मनुष्य प्रातः काल में शिव अर्थात् लिंग वा उसकी मूर्ति का दर्शन करे तो रात्रि में किया हुआ, मध्याह्न में दर्शन से जन्मभर का, सायङ्काल में दर्शन करने से सात जन्मों का पाप छूट जाता है।

इस प्रकार के उपाय पाप छूटाने मोक्ष दिलाने के मिथ्या ग्रन्थों में लिखे हैं और इन्हीं प्रकार के उपाय आज का तथाकथित कथावाचक बता रहा है। पाठक स्वयं देखें, समझें कि ये उपाय पाप छुड़ाने वाले हैं या अधिक-अधिक पाप कराने वाले। भोली जनता इन साधनों से ही अपना कल्याण समझती है, जिससे लोक में अविद्या अन्धकार, अन्धविश्वास, पाखण्ड और अधिक फैल रहा है।

वेद व ऋषियों द्वारा मुक्ति व उसके उपाय ऐसे नहीं हैं। वहाँ तो सब बुरे कामों और जन्म-मरण आदि दुःख सागर से छूटकर सुखस्वरूप परमेश्वर को प्राप्त होकर सुख ही में रहना मुक्ति कहाती है। और ऐसी मुक्ति के उपाय महर्षि दयानन्द लिखते हैं ‘‘…..ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना का करना, धर्म का आचरण और पुण्य का करना, सत्संग, विश्वास, तीर्थ सेवन (विद्याभ्यास, सुविचार, ईश्वरोपासना, धर्मानुष्ठान, सत्य का संग, ब्रह्मचर्य, जितेन्द्रियतादि उत्तम कर्मों का सेवन), सत्पुरुषों का संग और परोपकारादि सब अच्छे कामों का करना तथा सब दुष्ट कर्मों से अलग रहना, ये सब मुक्ति के साधन कहाते हैं।’’ इन मुक्ति के साधनों को देख पाठक स्वयं विचार करें कि यथार्थ में मुक्ति के साधन, उपाय ये महर्षि द्वारा कहे गये हैं वा उपरोक्त मिथ्या ग्रन्थों व तथाकथित कथावाचकों द्वारा कहे गये हैं वे हैं। निश्चित रूप से ऋषि प्रतिपादित ही मुक्ति के उपाय हो सकते हैं, दूसरे नहीं।

मिथ्या पुराणों जैसी ही मुक्ति ईसाइयों व मुसलमानों की भी है। ईसाइयों के यहाँ खुदा का बेटा जिसे चाहे बन्धन में डलवा दे। ईसाई जगत् में तो जीवितों को मुक्ति के पासपोर्ट मिल जाते हैं। समय से पूर्व अपना स्थान सुरक्षित कराया जाता है। जितना कुछ चाहिए उससे पूर्व उतना धन चर्च के पोप को पूर्व में जमा कराया जाता है।

मुसलमानों के यहाँ भी ‘नजात’ होती है और वहाँ पहुँच कर सब सांसारिक ऐश परस्ती के साधन विद्यमान हैं, मोहम्मद की सिफारिश के बिना उसकी प्राप्ति नहीं है अर्थात् उन पर ईमान लाये बिना। कबाब, शराब, हूरें, गितमा आदि सभी ऐय्याशी के साधन मिलते हैं। क्या यह भी कभी मुक्ति कहला सकती है? अर्थात् ऐय्याशी करना कभी मुक्ति हो सकती है? इस मुक्ति पर मुसलमानों का विश्वास भी है। वे कहते हैं-

अल्लाह के पतले में वहदत के सिवाय क्या है।

जो कुछ हमें लेना है ले लेंगे मोहम्मद से।।

इतना सब लिखने का तात्पर्य यही है कि जो वेद व ऋषि प्रतिपादित नरक, स्वर्ग व मोक्ष की परिभाषाएँ हैं, वही मान्य हैं इससे इतर नहीं। स्वर्ग व मोक्ष के उपाय भी वेद व ऋषियों द्वारा कहे गये ही उचित हैं। इन मिथ्या पुराणों व इनके कथावाचकों द्वारा कहे गये नहीं।

 

जिज्ञासा – मेरे मन में एक छोटी-सी शंका है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आगे स्वामी और बाद में सरस्वती क्यों लगाते थे स्वामी जी! उस का अर्थ क्या है? हमें बताईएगा। – एन. रणवीर, नलगोंडा, तेलंगाना

समाधान-२ स्वामी दयानन्द सरस्वती जी आगे तो स्वामी इसलिए लगाते हैं क्योंकि वे संन्यासी थे, संन्यासी के लिए यह शब्द  आदर के लिए लगाया जाता है। यह शब्द  संन्यासी के लिए रुढ़ सा हो गया है। इसका अर्थ स्वत्वाधिकारी होता है अर्थात् अपने आपका अधिकारी चूंकि संन्यासी स्वत्वाधिकारी होता है इसलिए उनके नाम के आगे स्वामी लगाते हैं। स्वामी का एक अर्थ उच्च कोटि का धार्मिक पुरुष होता है।

दूसरी सरस्वती लगाने वाली बात- आचार्य शंकर से दस नामी संन्यासियों की परम्परा चली आयी है उनमें से एक सरस्वती भी है। स्वामी दयानन्द जी ने सरस्वती परम्परा वाले संन्यासी से संन्यास दीक्षा ग्रहण की थी, इसलिए संन्यास गुरु परम्परा अनुसार स्वामी दयानन्द के पीछे (सरस्वती) लग गया। इस सरस्वती शब्द  का अर्थ महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के प्रथम समुल्लास में दिया है-

सरो विविधं ज्ञानं विद्यते यस्यां चित्तौ  सा सरस्वती।

जिसको विविध विज्ञान अर्थात् शब्द  सम्बन्ध प्रयोग का ज्ञान यथावत होवे उसको सरस्वती कहते हैं। विद्या, वाणी आदि का नाम भी सरस्वती है।

मृत्यु के बाद आत्मा दूसरा शरीर कितने दिनों के अन्दर धारण करता है? किन-किन योनियों में प्रवेश करता है? क्या मनुष्य की आत्मा पशु-पक्षियों की योनियों में जन्म लेने के बाद फिर लौट के मनुष्य योनियों में बनने का कितना समय लगता है? आत्मा माता-पिता के द्वारा गर्भधारण करने से शरीर धारण करता है यह मालूम है लेकिन आधुनिक पद्धतियों के द्वारा टेस्ट ट्यूब बेबी, सरोगसि पद्धति, गर्भधारण पद्धति, स्पर्म बैंकिंग पद्धति आदि में आत्मा उतने दिनों तक स्टोर किया जाता है क्या? यह सारा विवरण परोपकारी में बताने का कष्ट करें। – एन. रणवीर, नलगोंडा, तेलंगाना

समाधान १ मृत्यु के  बाद आत्मा कब शरीर धारण करता है, इसका ठीक-ठीक ज्ञान तो परमेश्वर को है। किन्तु जैसा कुछ ज्ञान हमें शास्त्रों से प्राप्त होता है वैसा यहाँ लिखते हैं। बृहदारण्यक-उपनिषद् में मृत्यु व अन्य शरीर धारण करने का वर्णन मिलता है। वर्तमान शरीर को छोड़कर अन्य शरीर प्राप्ति में कितना समय लगता है, इस विषय में उपनिषद् ने कहा-

तद्यथा तृणजलायुका तृणस्यान्तं गत्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्यात्मानम्

उपसँ्हरत्येवमेवायमात्मेदं शरीरं निहत्याऽविद्यां गमयित्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्य् आत्मानमुपसंहरति।।

– बृ. ४.४.३

जैसे तृण जलायुका (सुंडी=कोई कीड़ा विशेष) तिनके के अन्त पर पहुँच कर, दूसरे तिनके को सहारे के लिए पकड़ लेती है अथवा पकड़ कर अपने आपको खींच लेती है, इसी प्रकार यह आत्मा इस शरीररूपी तिनके को परे फेंक कर अविद्या को दूर कर, दूसरे शरीर रूपी तिनके का सहारा लेकर अपने आपको खींच लेता है। यहाँ उपनिषद् संकेत कर रहा है कि मृत्यु के बाद दूसरा शरीर प्राप्त होने में इतना ही समय लगता है, जितना कि एक कीड़ा एक तिनके से दूसरे तिनके पर जाता है अर्थात् दूसरा शरीर प्राप्त होने में कुछ ही क्षण लगते हैं, कुछ ही क्षणों में आत्मा दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है। आपने पूछा है- आत्मा कितने दिनों में दूसरा शरीर धारण कर लेता है, यहाँ शास्त्र दिनों की बात नहीं कर रहा कुछ क्षण की ही बात कह रहा है।

मृत्यु के विषय में उपनिषद् ने कुछ विस्तार से बताया है, उसका भी हम यहाँ वर्णन करते हैं-

स यत्रायमात्माऽबल्यं न्येत्यसंमोहमिव न्येत्यथैनमेते प्राणा अभिसमायन्ति स एतास्तेजोमात्राः समभ्याददानो हृदयमेवान्ववक्रामति स यत्रैष चाक्षुषः पुरुषः पराङ् पर्यावर्ततेऽथारूपज्ञो भवति।।

– बृ. उ.४.४.१

अर्थात् जब मनुष्य अन्त समय में निर्बलता से मूर्छित-सा हो जाता है, तब आत्मा की चेतना शक्ति जो समस्त बाहर और भीतर की इन्द्रियों में फैली हुई रहती है, उसे सिकोड़ती हुई हृदय में पहुँचती है, जहाँ वह उसकी समस्त शक्ति इकट्ठी हो जाती है। इन शक्तियों के सिकोड़ लेने का इन्द्रियों पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका वर्णन करते हैं कि जब आँख से वह चेतनामय शक्ति जिसे यहाँ पर चाक्षुष पुरुष कहा है, वह निकल जाती तब आँखें ज्योति रहित हो जाती है और मनुष्य उस मृत्यु समय किसी को देखने अथवा पहचानने में अयोग्य हो जाता है।

एकीभवति न पश्यतीत्याहुरेकी भवति, न जिघ्रतीत्याहुरेकी भवति, न रसयत इत्याहुरेकी भवति, न वदतीत्याहुरेकी भवति, न शृणोतीत्याहुरेकी भवति, न मनुत इत्याहुरेकी भवति, न स्पृशतीत्याहुरेकी भवति, न विजानातीत्याहुस्तस्य हैतस्य हृदयस्याग्रं प्रद्योतते तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्क्रामति चक्षुष्टो वा मूर्ध्नो वाऽन्येभ्यो वा शरीरदेशेभ्यस्तमुत्क्रामन्तं प्राणोऽनूत्क्रामति प्राणमनूत्क्रामन्तं सर्वे प्राणा अनूत्क्रामन्ति सविज्ञानो भवति, सविज्ञानमेवान्ववक्रामति तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञा च।।

– बृ.उ. ४.४.२

अर्थात् जब वह चेतनामय शक्ति आँख, नाक,जिह्वा, वाणी, श्रोत्र, मन और त्वचा आदि से निकलकर आत्मा में समाविष्ट हो जाती है, तो ऐसे मरने वाले व्यक्ति के पास बैठे हुए लोग कहते हैं कि अब वह यह नहीं देखता, नहीं सूँघता इत्यादि। इस प्रकार इन समस्त शक्तियों को लेकर यह जीव हृदय में पहुँचता है और जब हृदय को छोड़ना चाहता है तो आत्मा की ज्योति से हृदय का अग्रभाग प्रकाशित हो उठता है। तब हृदय से भी उस ज्योति चेतना की शक्ति को लेकर, उसके साथ हृदय से निकल जाता है। हृदय से निकलकर वह जीवन शरीर के किस भाग में से निकला करता है, इस सम्बन्ध में कहते है कि वह आँख, मूर्धा अथवा शरीर के अन्य भागों-कान, नाक और मुँह आदि किसी एक स्थान से निकला करता है। इस प्रकार शरीर से निकलने वाले जीव के साथ प्राण और समस्त इन्द्रियाँ भी निकल जाया करती हैं। जीव मरते समय ‘सविज्ञान’ हो जाता है अर्थात् जीवन का सारा खेल इसके सामने आ जाता है। इसप्रकार निकलने वाले जीव के साथ उसका उपार्जित ज्ञान, उसके किये कर्म और पिछले जन्मों के संस्कार, वासना और स्मृति जाया करती है।

इस प्रकार से उपनिषद् ने मृत्यु का वर्णन किया है। अर्थात् जिस शरीर में जीव रह रहा था उस शरीर से पृथक् होना मृत्यु है। उस मृत्यु समय में जीव के साथ उसका सूक्ष्म शरीर भी रहता, सूक्ष्म शरीर भी निकलता है।

आपने पूछा किन-किन योनियों में प्रवेश करता है, इसका उत्तर  है जिन-जिन योनियों के कर्म जीव के साथ होते हैं उन-उन योनियों में जीव जाता है। यह वैदिक सिद्धान्त है, यही सिद्धान्त युक्ति तर्क से भी सिद्ध है। इस वेद, शास्त्र, युक्ति, तर्क से सिद्ध सिद्धान्त को भारत में एक सम्प्रदाय रूप में उभर रहा समूह, जो दिखने में हिन्दू किन्तु आदतों से ईसाई, वेदशास्त्र, इतिहास का घोर शत्रु ब्रह्माकुमारी नाम का संगठन है। वह इस शास्त्र प्रतिपादित सिद्धान्त को न मान यह कहता है कि मनुष्य की आत्मा सदा मनुष्य का ही जन्म लेता है, इसी प्रकार अन्य का आत्मा अन्य शरीर में जन्म लेता है। ये ब्रह्माकुमारी समूह यह कहते हुए पूरे कर्म फल सिद्धान्त को ताक पर रख देता है। यह भूल जाता है कि जिसने घोर पाप कर्म किये हैं वह इन पाप कर्मों का फल इस मनुष्य शरीर में भोग ही नहीं सकता, इन पाप कर्मों को भोगने के लिए जीव को अन्य शरीरों में जाना पड़ता है। वेद कहता है-

असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः।

ताँऽस्ते प्रेत्यापि गच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।।

– यजु. ४०.३

इस मन्त्र का भाव यही है कि जो आत्मघाती=घोर पाप कर्म करने वाले जन है वे मरकर घोर अन्धकार युक्त=दुःखयुक्त तिर्यक योनियों को प्राप्त होते हैं। ऐसे-ऐसे वेद के अनेकों मन्त्र हैं जो इस प्रकार के कर्मफल को दर्शाते हैं। किन्तु इन ब्रह्माकुमारी वालों को वेद शास्त्र से कोई लेना-देना नहीं है। ये तो अपनी निराधार काल्पनिक वाग्जाल व भौतिक ऐश्वर्य के द्वारा भोले लोगों को अपने जाल में फँसा अपनी संख्या बढ़ाने में लगे हैं। अस्तु।

(क) सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में वर्णानुसार सन्तान-परिवर्तन की व्यवस्था दी है परन्तु ऋग्वेद में इसका निषेध है- नहि ग्रभायारणः सुशेवोऽन्योदर्यो मनसा मन्तवा उ। अधा चिदोकः पुनरित्स एत्या नो वाज्यभीषाळेतु नव्यः।। – ऋ. ७-४-८ इस स्थिति में शंका उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि महर्षि जी ने किस आधार पर सन्तान-परिवर्तन की व्यवस्था दी है तथा अब समाधान कैसे होगा? २. यजुर्वेद के ‘सत्याःसन्तु यजमानस्य कामाः’ मन्त्रांश को बदलकर कुछ पुरोहित आशीर्वाद रूप में सत्याः सन्तु यजमानायोः अथवा यजमानानां बोलते हैं। मन्त्रों में परिवर्तन का अधिकार उन्हें हैं या नहीं? ३. सन्ध्या के अन्तर्गत मार्जन मन्त्रों में प्रथम कहा है- ओं भूः पुनातु शिरसि अर्थात् हे ईश! आप प्राणों के भी प्राण हैं। मेरा शिर पवित्र करें। इस में शंका है कि प्राणों का सम्बन्ध नासिका से है। भूः का सम्बन्ध नासिकाओं से उचित प्रतीत होता है- ‘ओं भूः पुनातु प्राणयोः’ अथवा ‘ओं भूः पुनातु नासिक्योः।’ कृपया ‘ओं भूः पुनातु शिरसि’ में से भूः व शिरसि की संगति स्पष्ट कीजिएगा। ४. इसी प्रकार मार्जन मन्त्रों के अन्तर्गत तृतीय मन्त्र पर शंका है- ओं स्वः पुनातु कण्ठे। अर्थात् हे सुखस्वरूप प्रभो! अपने उपासकों को सुख प्रदान करने हारे हो। मेरे कण्ठ को सुख प्रदान करो ….। यदि यह मन्त्र ऐसे होते तो अच्छा होवे- ओं स्वः पुनातु शिरसि। शिर में शुद्धि हो, विचारों में शुद्धि हो तो सारी शुद्धि स्वतः होगी। मनुष्य विचारों को अपवित्र बनाता है तो शेष सब अशुद्ध व अपवित्र बनता है। शिर पवित्र बने बिना सुख नहीं आएगा। उपरोक्त दोनों वेद मन्त्रांश नहीं जान पड़ते। अतः इन में परिवर्तन करना वेद में परिवर्तन नहीं माना जाएगा परन्तु ऐसा तब प्रश्न उत्पन्न होगा, जब मेरा विचार संगत माना जाएगा। समाधान दीजिएगा। – इन्द्रजित् देव चूना भट्ठिया, सिटी सैन्टर के निकट, यमुनानगर-१३५००१ (उ.प्र.)

समाधान (क)- आपकी जिज्ञासा, महर्षि के द्वारा वर्णित वर्णानुसार सन्तान होनी चाहिए, इस पर है। यदि ब्राह्मण कुल में उत्पन्न क्षत्रिय गुण कर्म वाला पुत्र है तो वह क्षत्रिय वर्ण का कहलावे। और ऐसा क्षत्रिय परिवार जिसका पुत्र ब्राह्मण गुण कर्म वाला है, वह ब्राह्मण वर्ण का कहावे। वे दोनों आपस में पुत्रों को बदल लें ऐसा अन्य वर्णों के लिए भी है। दूसरा वेद में कहा अपने गोत्र में उत्पन्न को ही ग्रहण करे। इन दोनों स्थलों को देखने पर आपकी जिज्ञासा स्वाभाविक है।

पहले हम यहाँ महर्षि के दोनों स्थलों को दे रहे हैं।

नहि ग्रभायारणः सुशेवोऽन्योदर्यो मनसा मन्तवा उ।

अधा चिदोकः पुनरित्स एत्या नो वाज्यभीषाळेतु नव्यः।।

-ऋ. ७.४.८

पदार्थ- हे मनुष्य! जो (अरणः) रमण न करता हुआ (सुशेवः) सुन्दर सुख से युक्त (अन्योदर्य्यः) दूसरे के उदर से उत्पन्न हुआ हो (सः) वह (मनसा) अन्तःकरण से (ग्रभाय) ग्रहण के लिए (नहि) नहीं मानने योग्य है (चित्, उ, पुनः इत्) भीर भी वह (ओकः) घर को नहीं (एति) प्राप्त होता है (अथ) उसके अनन्तर जो (नव्यः) नवीन (अभीषाड्) अच्छा सहनशील (वाजी) विज्ञान वाला (नः) हमको (आ, एतु) प्राप्त हो।

भावार्थ- हे मनुष्यो! अन्य गोत्र में अन्य पुरुष से उत्पन्न हुए बालक को पुत्र करने के लिए नहीं ग्रहण करना चाहिए क्योंकि वह घर आदि का दाय भागी नहीं हो सकता किन्तु जो अपने शरीर से उत्पन्न वा अपने गोत्र से लिया हुआ हो वही पुत्र वा पुत्र का प्रतिनिधि होवे।

दूसरा स्थल सत्यार्थप्रकाश से है- ‘‘प्रश्न- जो किसी के एक ही पुत्र वा पुत्री हो, वह दूसरे वर्ण में प्रविष्ट हो जाये तो उसके माँ-बाप की सेवा कौन करेगा और वंशच्छेदन भी हो जायेगा, इसकी क्या व्यवस्था होनी चाहिए? उ     ार- न किसी की सेवा का भंग और न वंशच्छेदन होगा, क्योंकि उनको अपने लड़के-लड़कियों के बदले स्ववर्ण के योग्य दूसरे सन्तान, विद्यासभा और राजसभा की व्यवस्था से मिलेंगे इसलिए कुछ भी अव्यवस्था नहीं होगी।’’ सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ४। इन दोनों स्थलों में विरोध दिख रहा है, यथार्थ में कोई विरोध नहीं है। वेद ऊँची स्थिति को कह रहा है और ऋषि आपत् स्थिति में एक अन्य विकल्प दे रहे हैं कि वेद के अनुसार यदि स्वगोत्र की सन्तान न मिल रही हो तो स्ववर्ण के गुण कर्म वाली सन्तान को अपना लें।

इस विषय में व अन्य प्रश्नों के उ   ार के लिए आर्यसमाज के योग्य विद्वान् आचार्य आनन्द प्रकाश जी (अलियाबाद, तेलंगाना) ने जो विचार हमें लिखकर दिये हैं जो कि हमें उचित लग रहे हैं, उनको यहाँ आपके समाधान हेतु प्रस्तुत कर रहे हैं।

‘‘(१) सबसे अच्छा तो वह है, कि जो अपने वर्ण के गुण कर्मों से युक्त भी हो और आत्मज भी हो अर्थात् अपने से उत्पन्न भी हो, क्योंकि बन्धु-बान्धवों में उससे किसी का विरोध नहीं होता अर्थात् सबको वह स्वीकार्य होता है।

(२) यदि अपना पुत्र न हो, तो जो अपने गोत्र का अपने वर्ण के गुण कर्म से युक्त हो उसे अपना सकते हैं।

(३) तीसरी स्थिति यह है कि यदि अपना वा अपने गोत्र में भी स्ववर्ण के योग्य न हो तो अपने गोत्र से भिन्न दूसरे की सन्तान अपने गुण कर्म से युक्त होने पर, उसे अपना लेवें।’’ यह आपत स्थिति है, श्रेष्ठ स्थिति तो पूर्व-पूर्व वाली है। यह इसलिए कि जो प्रश्न उठाया था- ‘‘जो किसी के एक ही पुत्र……. सेवा कौन करेगा और वंशच्छेदन भी हो जायेगा……।’’ इस स्थिति के लिए महर्षि ने यह व्यवस्था रखी है।

इस प्रकार से यदि दोनों स्थलों को देखेंगे तो जो विरोध दिख रहा है वह विरोध नहीं दिखेगा। फिर भी इस विषय में कोई इससे अच्छा समाधन करना चाहे तो उसका स्वागत है।

(ख) दूसरा प्रश्न आपका ‘सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः’ -य. १२.४४। इस मन्त्रांश के ‘यजमानस्य’ पद पर है। इस मन्त्र के ‘यजमानस्य’ पद में जाति (समूह को शास्त्रीय भाषा में जाति कहते हैं) में एक वचन समझना चाहिए, जिससे एक वा अनेक यजमानों के लिए यह वाक्य ठीक बैठ जाता है। पुनरपि यदि कोई इस पद को ‘व्यक्ति’ (एक इकाई) रूप में बोलना चाहें और ‘जाति’ में एकत्व का ज्ञान न हो, तो ‘यजमानयोः’ या ‘यजमानानाम्’ का प्रयोग भी कर सकते हैं। इसका समाधान व्याकरण महाभाष्य के प्रथम आह्निक में दिया है-

न सर्वैर्लिङ्गैर्न च सर्वाभिर्विभक्तिभिर्वेदे मन्त्रा निगदिताः।

ते चावश्यं यज्ञगतेन पुरुषेण यथायथं विपरिणमयितव्याः।

तान् नावैयाकरणः शक्नोति यथायथं विपरिणमयितुम्

अर्थात् – ‘वेद में मन्त्र सब लिङ्गों ’और सब विभक्तियों से युक्त नहीं पढ़े हैं। उन्हें यज्ञगत पुरुष के द्वारा यथावत् (त    ात् यज्ञ के अनुरूप) विपरिणमित करना (बदलना) होगा। उनको अवैयाकरण नहीं बदल सकता। ऐसा करना मूल मन्त्र के संहितापाठ में परिवर्तन नहीं, अपितु विनियोग में सुविधानुसार परिवर्तन होगा।

(ग) सन्ध्या के मार्जन मन्त्रों में आये ‘ओं भूः पुनातु शिरसि’ पर आपकी शंका है। हे प्रभु- आप प्राणों के भी प्राण हैं मेरे शिर को पवित्र कर दें। इस विषय में हम आपको बता दें कि सम्पूर्ण शरीर में सबसे अधिक प्राणवायु की आवश्यकता मस्तिष्क को होती है। इस तथ्य को आज का आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करता है। नासिका प्राणवायु लेने का मार्ग है, नासिका मार्ग से लिया गया प्राण सम्पूर्ण शरीर को संचालित करता है। मुख्य रूप से मस्तिष्क को। जब मस्तिष्क को पर्याप्त प्राणवायु नहीं मिलता तब मस्तिष्क काम करना कम कर देता है। उस समय हमें ऊँघ आने लगती है, तमोगुण की वृद्धि होने लगती है और हमें नींद आ जाती है। इसलिए प्राण का अधिक सम्बन्ध मस्तिष्क से होने के कारण ‘भूः पुनातु शिरसि’ कहा है।

दूसरा सभी ज्ञान एवं कर्मेन्द्रियों का मूल उद्गम शिर (मस्तिष्क) में है। और इन्द्रियों को भी प्राण कह देते हैं। जैसा कि वैदिक साहित्य में कहा है- ‘‘प्राणा इन्द्रियाणि’’ (काठ.सं. ९.१/ताण्ड्य ब्रा. २२.४.३) इसी प्रमाण से महर्षि दयानन्द के सांख्यदर्शन से तथाकथित विरोधाभास का समन्वय भी हो जाता है। क्योंकि सांख्य दर्शन में सूक्ष्म शरीर के घटकों में ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ गिनाए हैं, जबकि महर्षि दयानन्द ने ५ प्राण, ५ ज्ञानेन्द्रियाँ कहा है। किन्तु प्राण को इन्द्रिय कहने पर यह तथाकथित विरोध समाप्त हो जाता है। पवित्रता के लिए यहाँ प्रार्थना है। यहाँ शिरः पर प्राणरूपी ज्ञान व कर्मेन्द्रियों के मूल उद्गम स्थान मस्तिष्क भाग को संकेतित करता है और ‘सत्यं पुनातु पुनश्शिरसि’ वाला ‘शिरः’ पद मस्तिष्क स्थानीय मेधा=बुद्धि के लिए प्रयुक्त हुआ है।

(घ) इसी प्रकार ‘स्वः पुनातु कण्ठे’ भी उचित ही है। आप इसको शिर से जोड़ कर देखना चाहते हैं और शिर की पवित्रता से सुख होगा यह भी देख रहे हैं। यह ठीक है किन्तु शिर की पवित्रता के लिए महर्षि ने पृथक् से ‘सत्यं पुनातु पुनश्शिरसि’ मन्त्र लिखा है। जो तर्क आप ‘स्वः’ के साथ शिर को जोड़ कर दे रहे हैं, वही तर्क ‘सत्यं’ को जोड़ कर भी दिया जा सकता है। इसलिए महर्षि ने जो क्रम रखा है वही अधिक संगत है। ‘सत्य’ सत्यस्वरूप परमेश्वर हमारे शिर को पवित्र करें। अर्थात् हमारे विचारों में सत्यता हो और यही सत्यता ही पवित्रता है। जब हमारे विचारों में सत्यता=पवित्रता होगी तो हम अपने कण्ठ से सुखकारी वचन बोलेंगे, जिससे हमें व अन्यों को सुख मिलेगा। इसलिए ऋषिवर ने ‘स्वः’ को कण्ठ के साथ जोड़ा है और ‘सत्य’ को शिर के साथ, स्वयं एवं दूसरों को सुख व दुःख पहुँचाने में कण्ठ का विशेष मह  व है। विचारों की पवित्रता सत्य से है और कण्ठ की पवित्रता सुखकारक, मधुर वचनों से है।

इसलिए ये मन्त्र भले ही वेद के नहीं है ऋषि वचन हैं फिर भी इनको परिवर्तित करने का अधिकार हम अल्पबुद्धि वालों का नहीं है और जब ये युक्तिसंगत हैं ही तो बदलने की बात भी व्यर्थ है। अस्तु।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर