काफी समय से यह पढ़ते और सुनते आए हैं कि पौराणिक लोग कहते थे कि वेदों को शंखासुर पाताल में लेकर घुस गए हैं, इसलिए अब शेष बचे 18 पुराणों से ही काम चलाओ। ऐसी स्थिति में स्वामी दयानन्द जी ने जर्मनी से चारों वेदों को मंगवा कर पण्डितों को दिखाया और सब को बताया। इससे पता चलता है कि स्वामी जी के आने, से पहले चारों वेद भारत में उपलध ही नहीं रह गए थे। इसीलिए तो विदेश से मंगवाने पड़े। अर्थात् आर्ष ग्रन्थों और इतिहास आदि में वेदों के नाम चर्चा ही थी और वे संहिताओं के रूप में उपलध नहीं थे। यह हमारी हालत हो चुकी थी। क्या यह बात ठीक है।

-(क) वेदों के विषय में स्वार्थी लोगों ने जन सामान्य में भ्रान्ति फैला रखी थी। जैसे वेदों को शूद्र और स्त्री पढ़-सुन नहीं सकते । वेदों में केवल कर्मकाण्ड है, वेदों में मानवीय इतिहास है आदि-आदि के साथ यह भी भ्रान्ति फैलाई कि वेदों को शंखासुर राक्षस पाताल में ले गया। यह  भ्रान्तियाँ स्वार्थी लोगों के द्वारा फैलाई गई थीं। महर्षि दयानन्द ने इन सभी भ्रान्तियों को दूर किया। महर्षि ने वेद के प्रमाण से ही सिद्ध किया कि वेद के पढ़ने का अधिकार सभी को है, वेद का मुय निहितार्थ परमेश्वर है, वेद में किसीाी प्रकार का मानवीय इतिहास नहीं है। और वेद को हम भारतीयों के आलस्य प्रमाद रूपी शंखासुर ने पाताल में पहुँचा दिया। वेद के विषय में यह विशुद्ध स्पष्टीकरण महर्षि दयानन्द का ही था।

अब आपकी बात पर आते हैं, महर्षि दयानन्द ने जर्मन से चारों वेदों को मंगवाया………। उससे पहले हमारे यहाँ मूल वेद नहीं थे। यह बात अनेक वक्ता, विद्वान् बोलते व लिखते हैं। जब इस बात के वास्तविक तथ्य को देखते हैं तो कुछ और ज्ञात होता है। महर्षि ने जर्मन से वेद मंगवाया वह भी केवल ऋग्वेद, यह बात तो सत्य है किन्तु यह कहना की इससे पहले हमारे यहाँ वेद नहीं थे सर्वथा मिथ्या है। महर्षि के द्वारा जर्मन से मंगवाया हुआ वेद अपने यहाँ उपलध सहिंताओं से मिलान करने के लिए था। अन्यथा वेद तो अपने यहाँ विद्यमान थे ही। आज भी महर्षि दयानन्द के समय वा उनसे पूर्व की पाण्डुलिपियाँ उपलध होती हैं। महर्षि स्वयं अपने जन्मचरित्र में लिखते हैं- ‘‘और मुझको यजुर्वेद की संहिता का आरभ करा के उसमें प्रथम रुद्राध्याय पढ़ाया गया……। इस प्रकार 14 चौदहवें वर्ष की अवस्था के आरभ तक यजुर्वेद की संहिता सपूर्ण और कुछ अन्य वेदों कााी पाठ पूरा हो गया था। ’’ दयानन्द ग्रन्थ माला भाग 2. पृष्ठ 768 महर्षि के इन वचनों से ज्ञात होता है कि वेद अपने यहां पहले से विद्यमान रहे हैं।

दक्षिण के ब्राह्मणों में जो वेद कण्ठस्थ करने की परपरा आज भी है और महर्षि के समय में वा उनसे पूर्व भी थी। कण्ठ किये हुए वेद तो थे ही। जो वेद कण्ठस्थ करते थे निश्चित रूप से ये उनके पास वेद संहिताएँ रही होंगी। इसलिए यह कहना कि वेद महर्षि ने जर्मन से मंगवाये उससे पहले यहाँ वेद नहीं थे सर्वथा अनुचित है।

जिज्ञासाः- निम्न लिखित वेद मन्त्रों से शंका और उपशंका उत्पन्न होता है। यजुर्वेद अ. 29 के मन्त्रों 40,41 और 42 संया वाले…. ‘‘छागमश्वियोस्वाहा। मेषं सरस्वत्ये स्वाहा, ऋषभमिन्द्राय….। 40’’ ‘‘छागस्य वषाया मेदसो…..मेषस्य वषाया मेदसो, ऋषभस्य वषाया मेदसो……41’’ छागैर्न मेषै, र्मृषमैःसुता…..42 इनमें से 41 और 42 मन्त्रों का अर्थ ‘‘दयानन्द संस्थान से प्रकाशित भाष्य में भी बकरे, भेड़ों और बैल किया गया है। ये सब पौराणिक के जैसा भाष्य देखने को आया शंका होता है इस शंका के समाधान कर के उत्तर भेजें।’’ पं. गभीर राई अग्निहोत्री, कोलाखाम, पोस्ट लावा बाजार- 734319, कालिपोङ

समाधानमहर्षि दयानन्द आर्यावर्त की उन्नति, सुख, समृद्धि का एक कारण यज्ञ को कहतेहैं। महर्षि सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय समुल्लास में लिखते हैं- ‘‘आर्यवर शिरोमणि महाशय, ऋषि, महर्षि, राजे महाराजे लोग बहुत सा होम करते और कराते थे। जब तक इस होम करने का प्रचार रहा तब तक आर्यावर्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था, अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाये।’’ महर्षि ने यहाँ यज्ञ की महत्ता को प्रकट किया है। यज्ञ से रोग कैसे दूर होंगे? जब हवन की अग्नि में रोगनाशक पदार्थ डालेंगे तब रोग दूर होगें। यज्ञ में माँस आदि पदार्थ डालने से रोग दूर होकर कैसे कभी सुख की वृद्धि हो सकती है? उलटे मांसादि द्रव्य अग्नि में होम करने से तो रोग उत्पन्न हो दुःख की वृद्धि होगी। महर्षि होम से रोग दूर होना और सुख का बढ़ना देख रहे हैं। यज्ञ में मांसादि का डालना कब और क्यों हुआ वह अन्य पाठकों को दृष्टि में रखकर आगे लिखेगें। पहले आपकी जिज्ञासा का समाधान करते हैं। आपने जो यजुर्वेद 21 वें अध्याय के 40-42 मन्त्र उद्धृत किये हैं वह जो उन मन्त्रों का महर्षि ने भाष्य किया है सो ठीक है। इस भाष्य को देखने पर पौराणिकों जैसा भाष्य न लगकर अपितु और दृढ़ता से आर्ष भाष्य दिखता है। यहाँ पाठकों को दृष्टि में रखकर मन्त्र व उसका ऋषि भाष्य लिखते हैं।

(1) होता यक्षदाग्नि ँ स्वाहाज्यस्य स्तोकानाथंस्वाहा मेदसां पृथक् स्वाहा

छागमश्वियाम् स्वाहा मेषं सरस्वत्यै स्वाहाऽऋषभमिन्द्राय

…..पयः सोमः परिस्रुता घृतं मधु व्यन्त्वाज्यस्य होतर्यज।।

19.40

मन्त्रों को पूरा पदार्थ न लिखकर, जिन पर आपकी जिज्ञासा है उनका अर्थ व मन्त्रों का भावार्थ यहाँ लिखते हैं- (छागम्)  दुःख छेदन करने को (अश्वियाम्) राज्य के स्वामी और पशु के पालन करने वालो से (स्वाहा) उत्तम रीति से (मेषम्)सेचन करने हारे को (सरस्वत्यै) विज्ञानयुक्त वाणी के लिए (ऋषभम्) श्रेष्ठ पुरुषार्थ को (इन्द्राय) परमैश्वर्य के लिए।

भावार्थइस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोप्मालङ्कार है। जो मनुष्य विद्या, क्रियाकुशलता और प्रयत्न से अग्न्यादि विद्या को जान के गौ आदि पशुओं का अच्छे प्रकार पालन करके सबके उपकार को करते हैं वे वैद्य के समान प्रजा के दुःख के नाशक होते हैं।

(2) होता यक्षदश्विनौ छागस्य वपाया मेदसो जुषेताम्…

………मेषस्य वपाया मेदसो जुषताम् हविर्होतर्यज……..

….ऋषभस्य वपाया मेदसो जुषताम्……..   19.41

(छागस्य) बकरा, गौ, भैंस आदि पशु सबन्धी (वपाया) बीज बोने वा सूत के कपड़े आदि बनाने और (मेदसः) चिकने पदार्थ के (हविः) लेने देने योग्य व्यवहार का (जुषेताम्) सेवन करें…………(मेषस्य) मेढ़ा के (वपायाः) बीज को बढ़ाने वाली क्रिया और (मेदसः) चिकने पदार्थ सबन्धी (हविः) अग्नि में छोड़ने योग्य संस्कार किये हुए अन्न आदि पदार्थ (जुषताम्) सेवन करें…………(ऋषभस्य) बैल की (वपायाः) बढ़ाने वाली रीति और (मेदसः) चिकने पदार्थ सबन्धी (हविः) देने योग्य पदार्थ का (जुषताम्) सेवन करें।

भावार्थ जो मनुष्य पशुओं की संया और बल  को बढ़ाते हैं वे आपाी बलवान् होते और जो पशुओं से उत्पन्न हुए दूध और उससे उत्पन्न हुए  घी का सेवन करते वे कोमल स्वभाव वाले होते हैं और जो खेती करने आदि के लिए इन बैलों को युक्त करते हैं वे धनधान्य युक्त होते हैं।

(3)होता यक्षदश्विनौ सरस्वतीमिन्द्रम…छागैर्नमेषैर्ऋषभैः

सुता …………मधु पिवन्तु मदन्तु व्यन्तु होतर्यज।। 19.42

पदार्थ (छागैः) विनाश करने योग्य पदार्थों वा बकरा आदि पशुओं (न) जैसे तथा (मेषैः) देखने योग्य पदार्थों वा मेढ़ों (ऋषभैः) श्रेष्ठ पदार्थों वा बैलों (सुताः) जो अभिषेक को पाये हुए हों वे।

भावार्थजो संसार के पदार्थों की विद्या, सत्यवाणी और भली भांति रक्षा करने हारे राजा को पाकर पशुओं के दूध आदि पदार्थों से पुष्ट होते हैं वे अच्छे रसयुक्त अच्छे संस्कार किये हुए अन्न आदि जो सुपरीक्षित हों, उनको युक्ति के साथ खा और रसों को पी धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के निमित्त अच्छा यत्न करते हैं, वे सदैव सुखी होते हैं।

यहाँ इन मन्त्रों के भाष्य और भावार्थ में कहीं भी पौराणिकता नहीं लग रही है। मन्त्रों में छाग, ऋ षभ, मेष आदि शद आये हैं, उनका महर्षि ने जो युक्त अर्थ था वह किया है। छाग का अर्थ लौकिक भाषा में बकरा होता है किन्तु महर्षि ने छाग का अर्थ दुःख छेदन किया है। मेष का अर्थ सामान्य भेड़ होता है, और महर्षि का अर्थ सेचन करने हारा है। ऐसे ही ऋषभ का सामान्य अर्थ बैल और महर्षि का अर्थ श्रेष्ठ पुरुषार्थ है। जब ऐसे पौराणिकता से परे होकर महर्षि ने वैदिक अर्थ किये हैं तब कै से कोई कह सकता है कि यह पौराणिकों जैसा भाष्य दिखता है। भेड़ बैल, बकरा आदि शद आने मात्र से पौराणिकों जैसा भाष्य नहीं हो जाता।

हाँ यदि महर्षि मन्त्र में आये हुए वपा और मेद का अर्थ चर्बी करके उसकी हवन में आहूति की बात कहते तो यह महर्षि का भाष्य अवश्य पौराणिकों वाला हो जाता किन्तु महर्षि ने ऐसा कहीं भी नहीं लिखा। अपितु वपा का अर्थ महर्षि बीज बढ़ाने वाली क्रिया करते हैं और मेद का अर्थ चिकना पदार्थ जो कि महर्षि ने मन्त्रों के भावार्थ में घी-दूध आदि पदार्थ लिखे हैं।

महर्षि का किया वेद भाष्य तो पौराणिकता से दूर वैदिक रीति का भाष्य है। जो पौराणिकों ने इन्हीं वेद मन्त्रों के अर्थ भेड़, बकरा, बैल आदि पशुओं के मांस को यज्ञ में डालना कर रखे थे, उनको महर्षि ने दूर कर शुद्ध भाष्य किया है। पौराणिक लोगों ने लोक प्रचलित अर्थ वेद के साथ जोड़कर भाष्य किया, जिससे इतना बड़ा अनर्थ हुआ कि संसार के जो सभी मनुष्य एक वेद मत को मानकर चल रहे थे, उसको छोड़ नये-नये मत बनाकर चलने लग गये। यह वही वेदमन्त्रों के अनर्थ करने का परिणाम था।

वपा और मेद का अर्थ चर्बी, वसा लोक में है जो कि यही अर्थ पौराणिकों ने लिया। पौराणिकों को ज्ञात नहीं की वेद में रूढ शद और अर्थों का प्रयोग नहीं है अपितु यौगिक शद और अर्थों का प्रयोग है जो कि महर्षि दयानन्द ने योगिक मानकर ही वेदमन्त्रों का अर्थ किया है।

यज्ञ में मांस आदि का डालना महाभारत युद्ध के पश्चात् ब्रह्मणों के आलस्य प्रमाद के कारण हुआ। महर्षि दयानन्द इस  विषय में कहते हैं- ‘‘परन्तु ऐसे शिरोमणि देश को महाभारत के युद्ध ने ऐसा धक्का दिया कि अब तक भी यह अपनी पूर्व दशा में नहीं आया। क्योंकि जब भाई को भाई मारने लगे तो नाश होने में क्या संदेह?………….।’’

जब ब्राह्मण विद्याहीन हुये तब क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के अविद्वान् होने में तो कथा ही क्या कहानी? जो परपरा से वेदादिशास्त्रों का अर्थ सहित पढ़ने का प्रचार था, वहाी छूट गया। केवल जीविकार्थ पाठमात्र ब्राह्मण लोग पढ़ते रहे। सो पाठ मात्र भी क्षत्रियों आदि को न पढ़ाया। क्योंकि जब अविद्वान् हुए, गुरु बन गये, तब छल-कपट-अधर्म भी उनमें बढ़ता चला।…….’’ स.प्र.स. 11।।

यज्ञ में मांसादि का कारण ब्राह्मणों का आलस्य प्रमाद व विषयासक्ति रहा है, यह मान्यता महर्षि दयानन्द की है जो युक्त है।

जब यज्ञों में अथवा यज्ञों के नाम पर पशु हिंसा का प्रचलन हुआ तो अश्वमेघ, गोमेध, नरमेध आदि यज्ञों का यथार्थ स्वरूप न रखकर उल्टा कर दिया अर्थात् अश्वमेघ यज्ञ जो चक्रवर्ती राजा करता था, इसमें इन पोप ब्राह्मणों ने घोड़े के मांस की आहुति का विधान यज्ञ कर दिया। ऐसे गोमेध जो कि गो का अर्थ इन्द्रियाँ अथवा पृथिवी था, जिसमें इन्द्रिय संयमन किया जाता था उस गोमेध यज्ञ में गाय के मांस का विधान इन तथाकथित ब्राह्मणों ने कर दिया। इसके विधान के लिए सूत्रग्रन्थों में ब्राह्मण ग्रन्थों का प्रक्षेप कर दिया। यज्ञों के यथार्थ अर्थ, स्वरूप को समझकर जो पशु यज्ञ व यजमान् के उपकारक थे, उन पशुओं को मार-मारकर यज्ञकुण्डों में उनकी आहुति देने लगे। धीरे-धीरे अनाचार इतना बढ़ा कि वैदिक मन्त्रों का विनियोग यज्ञों में और उनके माध्यम से पशुहिंसा में होने लगा। जिस प्रकार के मन्त्र ऊपर दिये हैं ऐसे मन्त्रों का विनियोग ब्राह्मण वर्ग यज्ञ में पशुहिंसा के लिए करने लगे थे।

वेदों में यज्ञ के पर्याय अथवा विशेषण रूप में ‘अध्वर’ शद का प्रयोग सैकड़ों स्थानों पर आया है। निघण्टु में ‘ध्वृ’ धातु हिंसार्थक है। अध्वर शद में हिंसा का निषेध है अर्थात् नञ् पूवर्क ध्वृ धातु से अध्वर शद बना है। इस अध्वर शद का निर्वचन करते हुए महर्षि यास्क ने लिखा है- अध्वर इति यज्ञनाम-ध्वरहिंसाकर्मा तत् प्रतिषेधः। (निरुक्त-1.8)

अध्वर यज्ञ का नाम है, जिसका अर्थ हिंसा रहित है। अर्थात् जहाँ हिंसा नहीं होती वह अध्वर=यज्ञ कहलाता है। ऐेसे हिंसा रहित कर्म को भी इन पोपों ने महाहिंसा कारक बना दिया था।

मेध शद ‘मेधृ’ धातु से बना है। मेधृ– मेधाहिंसनयोः संगमे च यह धातुपाठ का सूत्र है। मेधृ धातु के बुद्धि को बढ़ाना, लोगों में एकता या प्रेम को बढ़ाना और हिंसा ये तीन अर्थ हैं। इन तीनों अर्थों में से पोप जी को हिंसा अर्थ पसन्द आया और इससे यज्ञ को भी हिंसक बना दिया। जिस धर्म और समाज में अहिंसा को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था वहाँ यज्ञों हिंसा करना एक विडबना ही थी।

वेदों में अनेकत्र ऐसे वचन उपलध हैं जिसमें स्पष्ट ही पशु रक्षा का निर्देश है। यजुर्वेद के प्रारा में यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म कहते हुए कहा है – ‘पशुन्पाहि’ पशु मात्र की रक्षा करो। इसी यजुर्वेद के मन्त्र 1.1 में गौ को ‘अघ्न्या’ न मारने योग्य कहा है। यजु. 6.11 में गृहस्थ को आदेश दिया है- ‘पशुंस्त्रायेथाम्’ पशुओं की रक्षा करो। 14.3 में कहा- ‘द्विपादवचतुष्पात् पाहि’ दो पैर वाले मनुष्य और चार पैर वाले पशुओं की रक्षा करो। वेद में ऐसे-ऐसे निर्देश अनेक स्थलों पर हैं। जो वेद पशुओं की रक्षा करने का निर्देश देता हो उसमें पशुओं की हिंसा का अर्थ निकालना भी पशुता ही है।

महर्षि दयानन्द वेदों के अनुयायी थे। वेदों को सर्वोपरि प्रमाण मानते थे। महर्षि की वेदों के प्रति दृढ़ आस्था थी। और महर्षि ने वेदों को यथार्थ में समझा था। यथार्थरूप में वेद को समझने वाले ऋषि के वेद भाष्य में पौराणिकता कैसे हो सकती है, ऐसा होना सर्वथा असभव है। अस्तु

-ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

(ङ) पंच भौतिक तत्वों में से एक आकाश भी है और भौतिक तत्व प्रकृति के परमाणुओं से बनते हैं, जिनसे पृथ्वी, सूर्यादि पूरा जगत् बनता है। यदि आकाश को निराकार कहा जाए, तो अभाव से भाव कैसे बनेगा। यदि आकाश साकार है तो ‘ओ3म् खम् ब्रह्म’ क्यों कहते हैं। कृपया समाधान करने का कष्ट करें।

) आकाश को ऋषि दो प्रकार का मानते हैं, एक- जो शद तन्मात्रा से बना है, दूसरा- जो अवकाश रूप आकाश है। उपरोक्त आकार की परिभाषा 3 के आधार पर देखेंगे तो यह शद सूक्ष्म भूत से निर्मित आकाश भी निराकार कहलायेगा और दूसरा जो अवकाश रूप आकाश है वह तो है ही निराकार। यदि आप इस परिभाषा 3 को न मानकर 1 को माने तो भी कोई बाधा नहीं आयेगी क्योंकि अवकाश रूप आकाश तो निराकार है ही। यदि आप निराकार आकाश को लेकर ‘ओ3म् खं ब्रह्म’ को घटाना चाहते हैं तो इस प्रकार आपकी बात घट जायेगी।

किन्तु यहाँ ‘ओ3म् खं ब्रह्म’ में साकार निराकार को लेकर बात नहीं कही जा रही है, यहाँ तो ब्रह्म की विशालता को कहा जा रहा है कि वह ब्रह्म आकाश के समान व्यापक है, विशाल है, बड़ा है। यहाँ यह नहीं कहा जा रहा कि वह ब्रह्म आकाश के समान निराकार है। इस प्रकार यहाँ ब्रह्म की व्यापकता को जो आकाश की उपमा देकर कहा है वह उपमा दोनों आकाश से कही जा सकती है क्योंकि दोनों ही आकाश व्यापक है।

(घ) ईश्वर अनन्त, असीम है परन्तु आत्मा ससीम है, इसलिए अणुस्वरूप होने के कारण उसकी कुछ न कुछ लबाई-चौड़ाई तो होगी ही। इसलिए क्या उसे हम साकार नहीं कह सकते, क्योंकि उसकी सीमाएँ हैं? निराकार-साकार की परिभाषा क्या है?

(घ) आत्मा ससीम, अणुस्वरूप है, इस कारण उसकी कुछ न कुछ तो लबाई-चौड़ाई होगी ही इसलिए उसको साकार कह सकते हैं। यह कहने वाला इसी कारण उसको साकार मानता है तो वह मानता रहे क्योंकि ऐसा मानने वाला साकार-निराकार की परिभाषा ही नहीं जानता। वह तो महत्स्वरूप को निराकार और अणु स्वरूप को साकार मानता है, जो कि इस आधार पर साकार, निराकार की परिभाषा ठीक नहीं है।

(1) साकार वह है जो प्रकृति से बना हुआ है, इससे अतिरिक्त निराकार।

(2) साकार वह जिसमें रूप, रस, गन्ध आदि पाँचों गुण प्रकट हों, इनसे भिन्न अर्थात् जिसमें ये पाँचों प्रकट न हों, वह निराकार।

(3) साकार वह जिसमें रूप गुण प्रकट रूप में हो, इससे भिन्न निराकार।

उपरोक्त साकारा-निराकार की किसी भी परिभाषा से आत्मा साकार सिद्ध नहीं हो रहा और यदि इन परिभाषाओं

की अवहेलना करके कोई व्यक्ति आत्मा को साकार मानता है तो आत्मा सदा नित्य और चेतन सिद्ध न हो पायेगा जो कि वह सदा नित्य और चेतन है। इसलिए उपरोक्त ऋषि प्रमाणों व साकार-निराकार की परिभाषा के अनुसार आत्मा साकार नहीं अपितु निराकार ही है।

(ग) आत्मा निराकार है या साकार? आपने लिखा है कि निराकार है, तो क्या आप किसी आर्ष ग्रन्थ या वेद का प्रमाण इस बारे में दे सकते हैं, जैसे कि परमात्मा के बारे में अनेक दिए जा सकते हैं (वेद, उपनिषद, अन्य आर्ष ग्र्रन्थ)।

(ग) आत्मा निराकार है वा साकार? मैंने अपने समाधान में आत्मा को निराकार लिखा, मेरे ऐसा लिखने पर आपने आर्ष प्रमाण माँगा है। मैं आपको आर्ष प्रमाण देने से पहले निवेदनपूर्वक पूछता हूँ कि क्या आपने साकार मानने वालों से और साकार के विषय में कोई एक-आध आर्ष प्रमाण प्राप्त किया? अस्तु।

आत्मा निराकार है इसके लिए मैंने पहले भी तीन आर्ष प्रमाण दिये थे। अब फिर लिखता हूँ- सत्यार्थप्रकाश, प्रकाशक- सत्यधर्म प्रकाशन, शोधकर्त्ता-समीक्षक- सपादक व भाष्यकार- डॉ. सुरेन्द्र कुमार, पृष्ठ- 557 व सत्यार्थप्रकाश, प्रकाशक- परोपकारिणी सभा, अजमेर, संस्करण 40वाँ, पृष्ठ- 551।

(1) ‘‘बदला दिये जावेंगे कर्मानुसार ।।और प्याले हैं भरे हुए।। जिन दिन खड़े होंगे रूह और फ़रिश्ते सफ़ बांधकर।।मं. 7/सि. 30/सू. 78/आ. 26/34/38 समीक्षा- यदि कर्मानुसार फल दिया जाता है तो…… और रूह निराकार होने से वहाँ खड़ी क्योंकर हो सकेगी।’’ सत्यार्थप्रकाश समुल्लास 14

(2) ‘‘इसी प्रकार भक्तों की उपासना के लिए ईश्वर का कुछ आकार होना चाहिए, ऐसा भी कुछ लोग कहते हैं, परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि शरीर स्थित जो जीव है, वह भी आकार रहित है, यह सब कोई मानते हैं…… प्रत्यक्ष कभी न देखते हुए भी केवल गुणानुवादों ही से सद्भावना और पूज्य बुद्धि मनुष्य के विषय में रखते हैं।’’ देखें पूना प्रवचन व्या. 1

(3) ‘‘प्रश्न- मूर्त पदार्थों के बिना ध्यान कैसे करते बनेगा?

उत्तर – शद का आकार नहीं तो भी शद ध्यान में आता है वा नहीं? आकाश का आकार नहीं तो भी आकाश का ज्ञान करने में आता है वा नहीं? जीव का आकार नहीं तो भी जीव का ध्यान होता है वा नहीं?…….।’’ पूना प्रवचन व्या. 4

इन सभी स्थलों पर महर्षि ने आत्मा को निराकार लिखा और कहा है। महर्षि की इन बातों की कोई अवहेलना कर आत्मा साकार माने मनवावे तो उसका कौन क्या कर सकता है?

(ख) यदि आत्मा अर्थात् मैं या मेरा आत्मा स्थान बदलता है तो मुझे पता क्यों नहीं चलता। किसके बदलने से बदलता है, संचालन कौन करता है?

(ख) यदि आत्मा स्थान बदलता है तो हमें पता क्यों नहीं चलता? इसमें मैं इतना ही कहूँगा कि यह व्यवस्था ईश्वराधीन है। ईश्वर ने ऐसी अवस्था कर रखी है कि आत्मा स्थान बदलता है। यहाँ व्यवस्था ईश्वर की है और संचालक स्वयं आत्मा है।

स्थान बदलता है तो हमें पता क्यों नहीं चलता? इसको तो आप छोड़िए कितनी सारी स्थूल बातों का ही हमें पता नहीं चल पा रहा। कैसे हमारे अन्दर भोजन विखण्डन हो रहा है, उससे रक्तादि का निर्माण कैसे हो रहा है, हमारे पूरे शरीर के ऊपर रोम-बाल कितने हैं, नेत्र की संरचना कैसी है और भी बहुत सारी स्थूल बातों को हम नहीं जान पा रहे, जान पाते। और फिर आत्मा का विषय तो अति सूक्ष्म है। हाँ, हो सकता है इस स्थान वाली स्थिति को योगी लोग जान लेते हों।

परोपकारी जुलाई प्रथम में जिज्ञासा नं. 2 का समाधान करते हुए यह तो बता दिया गया है कि आत्मा का शरीर में मुय निवास स्थान हृदय प्रदेश में ही है, परन्तु जिज्ञासु की इस जिज्ञासा का समाधान नहीं बताया गया कि सुषुप्ति, स्वप्न और जागृत अवस्था में शरीर में आत्मा एक ही स्थान पर रहती है या स्थान बदलती रहती है। यदि स्थान बदलती है तो क्यों?

समाधान – आपने जो अपनी पीड़ा कही है वह युक्तियुक्त है। निश्चित रूप से जब एक ही बिन्दु पर दो विद्वान् भिन्न-भिन्न विचार प्रकट करते हैं तो सामान्य जन में भ्रान्ति उत्पन्न होती है। वह दोनों के प्रति विश्वास का भाव रखता है, ऐसा होते हुए वह सामान्य जन किसको नकारे वा किसको स्वीकारें। इस विषय में हमारा निवेदन है कि जब-जब ऐसी परिस्थिति बने तब-तब यह अवश्य देख लें कि किस विद्वान् की बात ऋषि समत है और किसकी बात ऋषियों से मेल नहीं रख पा रही। इन दोनों में जिस किसी की बात ऋषियों से प्रमाणित हो उसी विद्वान् की बात को सामान्य जन स्वीकार करें अन्य की नहीं। अस्तु।

अब मैं आपके एक-एक बिन्दु पर विचार करते हुए समाधान लिखता है-

(क) जुलाई प्रथम-2015 की जिज्ञासा-2 के समाधान में मैंने आत्मा का मुय स्थान इसलिए बताया क्योंकि जिज्ञासु आत्मा-परमात्मा को जानना चाहता है, सो इन दोनों का ज्ञान महर्षि दयानन्द के अनुसार हृदय प्रदेश में ही होता है। जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति में आत्मा के जो स्थान जिस उपनिषद् में कहे हैं, वे स्थान युक्ति व ऋषि दयानन्द के मन्तव्य से मेल नहीं रखते। ब्रह्मोपनिषद् में लिखा है-

नेत्रस्थं जागरितं विद्यात् कण्ठे स्वप्नं समाविशेत्।

सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मुर्ध्नि संस्थितम्।।

अर्थात् जागृत अवस्था में आत्मा को नेत्र में जानें, स्वप्न में कण्ठ में रहता है, सुषुप्ति में हृदयस्थ रहता है और तुरीय अवस्था में आत्मा मूर्धा में निवास करता है।

महर्षि दयानन्द ने दश उपनिषदों को प्रमाण माना है, ग्यारहवें श्वेताश्वतर के प्रमाण भी महर्षि ने अपने ग्रन्थों में कहे हैं इसलिए इस उपनिषद् को भी मिलाकर ग्यारह उपनिषदें प्रामाणिक हैं। यह ब्रह्मोपनिषद् इन ग्यारह से अतिरिक्त है, इस उपनिषद् में पौराणिकता से युक्त बातें भी कही गई हैं जो कि आर्षानुकूल नहीं हैं।

उपरोक्त श्लोक में आत्मा के कहे गये स्थान कितने युक्त हैं, आप करके देखे, जागते हुए जब हमें भय, दुःख, अशान्ति वा प्रसन्नता की अनुभूति आँखों  में होती है वा ऋषि द्वारा वर्णित हृदय में। जब ये सारी अनुाूतियाँ हृदय में होती हैं तो आत्मा को वहीं मानना होगा, अर्थात् आत्मा का निवास स्थान हृदय है, इसलिए मैंने उस लेख में लिखा कि आत्मा का मुय निवास स्थान हृदय है। इसी प्रकार स्वप्न में भय अथवा प्रसन्नता अनुभूति कहाँ होती है, उसको देख विचार करें, वह अनुाूति भी हदृय में ही मिलेगी क्योंकि जहाँ आत्मा है, वहीं उसी स्थान पर प्रसन्नता-अप्रसन्नता की अनुभूति वह करता है। इस प्रकार यह कहना असंगत न होगा कि आत्मा का मूल निवास स्थान हृदय है।

क्या ईश्वर संसार में किसी स्थान विशेष में, किसी काल विशेष में रहता है? क्या ईश्वर किसी जीव विशेष को किसी समुदाय विशेष के कल्याण के लिए और दुष्टों का नाश करने के लिए भेजता है? – आचार्य सोमदेव जी

ईश्वर इस संसार के स्थान विशेष वा काल विशेष में नहीं रहता परमेश्वर संसार के प्रत्येक स्थान में विद्यमान है। जो परमात्मा को एक स्थान विशेष पर मानते हैं वे बाल बुद्धि लोग हैं। वेद ने परमेश्वर को सर्वव्यापक कहा है। वेदानुकुल सभी शास्त्रों में परमात्मा को सर्वव्यापक कहा है। एक स्थान विश्ेाष पर परमेश्वर को कोई सिद्ध नहीं कर सकता , न ही शद प्रमाण और न ही युक्ति तर्क से। हाँ ईश्वर शद प्रमाण और युक्ति तर्क से विभु= सर्वत्र व्यापक तो सिद्ध हो रहा है, हो सकता है। वेद में कहा-

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः।

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।

– प. 31.3

इस पुरुष की इतनी महिमा है कि यह सारा ब्रह्माण्ड परमेश्वर के एक अंश में है अर्थात् वह ईश्वर इस समस्त ब्रह्माण्ड में समाया हुआ अनन्त है, यह समस्त जगत् परमात्मा के एक भाग में है अन्य तीन भाग तो परमात्मा के अपने स्वरूप में प्रकाशित हैं अर्थात् परमात्मा अनन्त है अर्थात् सर्वत्र विद्यमान है उसको किसी एक स्थान पर नहीं कह सकते।

नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः।

जेषः स्वर्वतीरपः सं गा अस्मयं धूनुहि।।

– ऋ. 1.10.8

इस मन्त्र के भावार्थ में महर्षि लिाते हैं – ‘‘जब कोई पूछे कि ईश्वर कितना बड़ा है तो उत्तर यह है कि जिसको सब आकाश आदि बड़े-बड़े पदार्थ भी घेर में नहीं ला सकते, क्योंकि वह अनन्त है। इससे सब मनुष्यों को उचित है कि उसी परमात्मा को सेवन उत्तम उत्तम कर्म करने और श्रेष्ठ पदार्थों की प्राप्ति के लिए उसी से प्रार्थना करते रहें। जब जिसके गुण और कर्मों की गणना कोई नहीं कर सकता, तो कोई अंत पाने को समर्थ कैसे हो सकता है। और भी -’’

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविंर शुद्धमपापाविद्धम्।

कविर्मनीषी परिभूः स्वयभूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीश्यः समायः।।

– य. 40.8

इस मन्त्र में परमेश्वर को सब में व्याप्त कहा है, इस व्याप्ति से ज्ञात हो रहा है कि परमात्मा किसी एक स्थान विशेष पर नहीं अपितु सर्वत्र है। इस प्रकार परमेश्वर के सर्वत्र व्यापक स्वरूप को सिद्ध करने के लिए शास्त्र के हजारों प्रमाण दिये जा सकते हैं। कोईाी प्रमाण ऐसा उपलध नहीं होता जो परमात्मा को एकदेशीय सिद्ध करता हो।

युक्ति से भी कोई परमात्मा को किसी स्थान विशेष पर सिद्ध नहीं कर सकता। आज विज्ञान का युग है, वैज्ञानिकों ने समस्त पृथिवी, समुद्र, आकाश आदि को देख डाला है। जिन किन्हीं का भगवान् समुद्र, पहाड़ आकाश आदि में होता तो अब तक वह भगवान् वैज्ञानिकों के हाथ में होता। जो लोग ईश्वर को ऊपर सातवें वा चौथे आसमान अथवा इससे कहीं और ऊपर मानते हैं वे यह सिद्ध नहीं कर सकते कि कौनसा ऊपर, कौनसा आसमान। क्योंकि प्रमाण सिद्ध यह पृथिवी गोल है। इस गोल पृथिवी के लगभग चारों और मानव आदि प्राणी रहते हैं।

जो मनुष्य भारत में रहते हैं अर्थात् पृथिवी के ऊपरी भाग पर रहते हैं उनका आसमान उनके शिर के ऊपर और जो मनुष्य अमेरिका आदि देशों में है अर्थात् पृथिवी के निचलेााग में रहते हैं उनका आकाश (आसमान) भारत आदि देश में रहने वालों की अपेक्षा विपरीत होगा अर्थात् भारत वालों को पैरों में आकाश होगा ऐसा ही पृथिवी के अन्य स्थानों पर रहने वाले मनुष्य का आकाश जाने । पृथिवी के चारों ओर आकाश है, आसमान है, पृथिवी पर रहने वाले मनुष्यों के शिर जिस ओर होंगे उनका आसमान उसी ओर होगा। ऐसा विचार करने पर जो परमात्मा को आसमान में मानते हैं वे भी एक स्थान विशेष पर सिद्ध नहीं कर सकते। इस विचार से भी परमात्मा सर्वत्र ही सिद्ध होगा। इसलिए परमात्मा सब स्थानों पर विद्यमान है  न कि किसी एक स्थान विशेष पर।

स्थान विशेष की कल्पना ब्रह्माकुमारी मत वालों की भी है। उनका कहना है कि यदि ईश्वर को सर्वव्यापक मानते हैं तो ईश्वर गन्दगी में शौच आदि मेंाी होगा। यदि ऐसा होगा तो ईश्वराी गन्दा हो जायेगा। इन ब्रह्माकुमारी बाल बुद्धि वालों ने ईश्वर को कितना कमजोर बना दिया कि जो ईश्वर सदा पवित्र रहने वाला है, इन ब्रह्माकुमारी वालों का ईश्वर गन्दगी से गन्दा हो जाता है। इनको यह नहीं पता कि यह गन्दगी भौतिक है और ईश्वर अभौतिक। परमेश्वर के अभौतिक ओर सदा पवित्र होने से परमेश्वर के ऊपर इस गंदगी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हमारे ऊपर भी जो प्रभाव पड़ता है वह इसलिये क्योंकि हमारे पास भौतिक शरीर इन्द्रियाँ आदि हैं, इनसे रहित होने पर हम जीवात्माओं पर भी उस गंदगी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ईश्वर तो सर्वथा इनसे रहित है तो ईश्वर पर इस गंदगी का प्रभाव कैसे पड़ेगा। इसलिए मलिनता से बचाने के लिए ईश्वर को एक स्थान विशेष पर मानना मूर्खता ही है।

इसी प्रकार ईश्वर किसी काल विशेष में होता हो ऐसा नहीं है, परमेश्वर तो सदा सभी कालों में वर्तमान रहता है। काल विशेष में होने की कल्पना अवतारवादी कर सकते हैं, जो कि उनकी यह मान्यता सर्वथा असंगत है। वर्तमान, भूत, भविष्यत काल की आवश्यकता हम जीवों की अपेक्षा से है। परमेश्वर के लिए तो सदा वर्तमान रहता है, भूत भविष्य परमात्मा के लिए नहीं है। परमात्मा सदा एक रस रहता है।

परमात्मा किसी जीव विशेष को किसी समुदाय विशेष की रक्षा वा दुष्टों के नाश के लिए भेजता हो ऐसा नहीं है। यह कल्पना भी अवतारवादियों की है। परमात्मा तो जीवों के कर्मानुसार उनको जन्म देता है। जो जीव विशेष संस्कार युक्त होता हैं वे जगत् के कल्याण और दुष्टों के नाश में प्रवृत्त होते हैं। ऐसा करने पर परमात्मा उनको आनन्द उत्साह आदि प्रदान करता है। किन्तु ऐसा कदापि नहीं है कि परमात्मा ने किसी जीव विशेष को इस कार्य में लगााया है यदि ऐसा मानेंगे तो जीव की स्वतन्त्रता न रहेगी। ऐसा मानने पर सिद्धान्त की हानि होगी। कर्म फल व्यवस्था की सिद्धि ठीक से न हो पायेगी। किसी समुदाय की रक्षा करे तो दोष का भागी हो जायेगा क्योंकि ऐसा कदापि नहीं हो सकता कि पूरे समुदाय में सभी लोग एक जैसे धर्मात्मा हों, उस समुदाय में उलटे लोग भी हो सकते हैं। समुदाय में होने से उनकी भी रक्षा करनी पड़ेगी तो न्याय न हो सकेगा। जब कि परमेश्वर न्याय कारी है उसके द्वारा भेजी गई आत्मा को भी न्याय करना चाहिए जो कि वह कर न सकेगी।

अधिकतर लोगों की मान्यता है कि परमेश्वर किसी आत्मा को न भेजकर स्वयं अवतार लेते हैं । ऐसा करके परमात्मा सज्जनों की रक्षा और दुर्जनों का नाश करते हैं। इस प्रकार की यह मान्यता भी ईश्वर के स्वरूप से विपरीत तथा वेद-शास्त्र के प्रतिकूल है। क्योंकि ईश्वर विभु है, अनन्त है, वह अनन्त प्रभु एक छोटे से शान्त शरीर में कैसे आ सकता है? परमेश्वर जन्म मरण से परे है फिर शरीर में आकर जन्म-मृत्यु को कैसे प्राप्त कर सकता है? परमेश्वर का अवतार मानने पर इस प्रकार की अनेक दोषयुक्त बातों को मानाना पड़ेगा।

अवतारवादियों का अवतार मानने का मुय आधार ये दो श्लोक हैं-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अयुत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजायहम्।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।

इन श्लोकों में अवतार लेने का कारण कि जब-जब धर्म की हानि होगी तब-तब धर्म के उत्थान और अर्धा के नाश के लिए तथा श्रेष्ठों के परित्राण =रक्षा और दुष्टों के नाश के लिए अवतार लेता है। अब यहाँ विचारणीय यह है कि जिस परमात्मा ने बिना शरीर के इस सब ब्रह्माण्ड को रच डाला, हम सब प्राणियों के शरीरों की रचना की है, उस परमात्मा को कुछ क्षुद्र, दुष्ट व्यक्तियों को मारने के लिए शरीर धारण करना पड़े यह बात बुद्धिग्राह्य नहीं है। इससे तो ईश्वर का ईश्वरत्व न रहकर ईश्वर का बहुत लघुत्व सिद्ध हो रहा है। यदि परमात्मा को यही करना है तो वह इस प्रकार के कार्य बिना शरीर के भी कर सकता है क्योंकि वह पूर्ण समर्थ है। अस्तु

इन उपरोक्त गीता के श्लोकों में अवतार का कारण हमने देखा अब देवी भागवत पुराण में अवतार लेने का कारण देखिये कया लिखा –

शपामि त्वां दुराचारं किमन्यत् प्रकरोमिते।

विध्ुारोहं कृतः पाप त्वयाऽहं शापकारणात्।।

अवतारा मृत्युलोके सन्तु मच्छापसंभवाः।

प्रापो गर्भभवं दुःख भुक्ष्ंव पापाज्जनार्दन।।

इन देवी भागवत के श्लोकों में अवतार का कारण धर्म की रक्षा वा अधर्म के नाश करने के लिए नहीं कहा अपतिु भृगु का शाप कहा है। अर्थात् महर्षि भृगु ने विष्णु को उसके दुराचार कर्म के कारण शाप दिया उनके शाप के प्रााव  से विष्णु का मृत्य ुलोक में अवतार हुआ। गीता के और देवी भागवत पुराण में अवतार के कारणों में परस्पर विरोध है। और देखिये-

बौद्धरूपस्त्वयं जातः कलौ प्राप्ते भयानके।

वेदधर्मपरायन् विप्रान् मोहयामास वीर्यवान्।

निर्वेदा कर्मरहितास्त्रवर्णा तामासान्तरे ।।

यहाँ गीता से सर्वथा विपरीत अवतार का कारण कहा है। गीता धर्म की रक्षा कारण कहती है और यहाँ तो धर्म के नाश के लिए अतवार ले लिया, अर्थात् भागवत पुराण कहता है- भगवान ने बुद्ध का अवतार लेकर, सबको विरुद्ध उपदेश देकर नास्तिक बनाया तथा वेद मार्ग का नाश किया। यहाँ ये अवतारवादियों के ग्रन्थ परस्पर विरुद्ध कथन कर रहे हैं।

यथार्थ में तो ईश्वर के किसी भी रूप में जन्म धारण करने की कल्पना ही युक्ति व शास्त्र विरुद्ध है। क्योंकि ईश्वर को किसी भी प्रकार के सहारे की आवश्यकता नहीं, चाहे वह सहारा किसी शरीर का हो अथवा किसी अन्य प्राणी का। परमेश्वर अपने सब कार्य करने में समर्थ है, उसको कोई अवतार लेने की आवश्यकता नहीं है।

वेद में ईश्वर को ‘‘अकायमव्रणमस्नाविरम्’’ कहा है। वह परमात्मा सूक्ष्म और स्थूल शरीर के बन्धन से रहित है अर्थात् इन बन्धन में नहीं पड़ता। श्वेताश्वतर उपनिषद् मेंऋषि ने कहा-

वेदाहमेतमजरं पुराणं सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात्।

जन्मनिरोधं प्रवदन्ति यस्य ब्रह्मवादिनो हिप्रवदन्ति नित्यम्।।

– 4.21

अर्थात् वह परमात्मा अजर है, पुरातन (सनातन) है, सर्वान्तर्यामी है, विाु और नित्य है। ब्रह्मवादी सदा उसका बखान करते हैं वह कभी जन्म नहीं लेता।

उपरोक्त सभी प्रमाणों से सिद्ध हो रहा है कि परमात्मा जीव के कर्मानुसार उसके भोग के लिए शरीर स्थान, समुदाय आदि देता है न कि अपनी इच्छा से किसी का नाश वा रक्षा के लिए उसको भेजता है और ऐसे ही स्वयं भी अवतार लेकर कुछ नहीं करता अर्थात् स्वयं शरीर धारण करके किसी की रक्षा वा नाश नहीं करता।

आचार्य सोमदेव समानीय आचार्य सोमदेव जी को मेरा सादर प्रणाम। जिज्ञासा- श्रद्धास्पद आचार्य जी! मैं उदालगुरी आर्यसमाज का पुरोहित हूँ। मैं 2012 जून महीने में अनुष्ठित योग-साधना-शिविर में उपस्थित रहकर एक सप्ताह तक योग-साधना आप ही से सीखकर आया हूँ। उसी समय से परोपकारिणी सभा की ओर से नियमित रूप से परोपकारी पत्रिका उदालगुरी आर्यसमाज को निःशुल्क मिल रही हूँ। सभा को उदालगुरी आर्यसमाज की ओर से धन्यवाद ज्ञापन करते हैं। आचार्य जी! मैं तीन साल से अन्य द्वारा पूछे गये जिज्ञासा-समाधान पढ़-पढ़ कर उपकृत होता आया हूँ। लेकिन आज मेरे मन में भी एक जिज्ञासा है, समाधान चाहता हूँ। प्रश्न- महोदय! यजुर्वेद के बारे में जानना था- प्रायः यजुर्वेद के बारे में शुक्ल और कृष्ण शद व्यवहार होता है। किन्तु मेरे पास जो वेद हैं, उसमें सिर्फ ‘यजुर्वेद’ लिखा हुआ है। कृष्ण-शुक्ल कुछ भी नहीं लिखा है। कोई पौराणिक पण्डित संकल्प पढ़ते समय ‘शुक्ल यजुर्वेदाध्यायी’ ऐसााी पढ़ लेते हैं। कृपया शुक्ल और कृष्ण के बारे में स्पष्टिकरण देने की कृपा करें। – रुद्र शास्त्री, गाँव- गोलमागाँव, पो.जि.- उदालगुरी, आसाम

समाधान चारों वेदों में से यजुर्वेद दो प्रकार का मिलता है। शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद। इसके इन दोनों नामों का कारण है कि शुक्ल यजुर्वेद में केवल मन्त्र भाग है, अर्थात् इसमें मूल मन्त्र होने से शुक्ल (शुद्ध) वेद कहलाता है। कृष्ण यजुर्वेद विनियोग, मन्त्र व्याया आदि से मिश्रित होने के कारण मूल न होकर मिश्रित वा कृष्ण यजुर्वेद कहलाता है। मुय रूप से यही कारण शुक्ल और कृष्ण कहने का है।

शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएँ वर्तमान में मिलती हैं, वाजसनेयि माध्यन्दिन संहिता और काण्व संहिता। दोनों में चालीस अध्याय हैं, काण्व संहिता का चालीसवां अध्याय ईशोपनिषद् के रूप में प्रयात है। कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएँ मिलती हैं- तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक और कठ कपिष्ठल शाखा।

महर्षि दयानन्द के अनुसार मूल वेद शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा है। इसी का महर्षि ने भाष्य किया है।

आपके प्रश्न का उत्तर तो इतने से ही है। इस विषय में पौराणिकों ने इन दोनों शुक्ल, कृष्ण को सिद्ध करने के लिए अपनी कथाएँ कल्पित कर रखी हैं। इन कत्थित कथाओं को छोड़ शुक्ल-कृष्ण का यथार्थ कारण उपरोक्त ही है।

अब यजुर्वेद के विषय में कुछ और लिखते हैं। वेदों की कुल शाखा 1127 होने का प्रमाण पातञ्जल महाभाष्य में मिलता है। वहाँ लिखा है- एकविंशतिधा वाह्वृच्यम्, एकशतम् अध्वर्युशाखाः, सहस्रवर्त्मा सामवेदः, नवधाऽऽथर्वणो वेदः, अर्थात् इक्कीस शाखा ऋग्वेद की, एक सौ एक शाखा यजुर्वेद की, एक हजार शाखा सामवेद की और नौ शाखा अथर्ववेद की।

यजुर्वेद की एक सौ एक शाखाओं में से छः शाखाएँ उपलध होती हैं। जो कि ऊपर कह दिया है। शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मण शतपथ ब्राह्मण है, जिसके रचयिता महर्षि याज्ञवल्क्य हैं। कृष्ण यजुर्वेद का ब्राह्मण तैत्तिरीय ब्राह्मण है, जिसकी रचना तित्तिरि आचार्य ने की है। शुक्ल यजुर्वेद का श्रौतसूत्र कात्यायन कृत है जो कि कात्यायन श्रोतसूत्र कहलाता है। कृष्ण यजुर्वेद से सबन्धित आठ श्रौतसूत्र हैं- 1. बौधायन, 2. आपस्तब, 3. सत्यषाढ़ या हिरण्यकेशी, 4. वैखासन, 5. भारद्वाज, 6. वाधूल, 7. वाराह, 8. मानव श्रौतसूत्र।

महर्षि दयानन्द यजुर्वेद के प्रतिपाद्य विषय के सबन्ध में अपने भाष्य के प्रारभिक प्रकरण में लिखते हैं कि ‘‘ईश्वर ने जीवों को गुण-गुणी के विज्ञान के उपदेश के लिए ऋग्वेद में सब पदार्थों की व्याया करके यजुर्वेद में यह उपदेश किया कि उन पदार्थों से यथायोग्य उपकार ग्रहण करने के लिए कर्म किस प्रकार करने चाहिए। उसके लिए जो-जो अङ्ग और जो-जो साधन उपेक्षित हैं, उन सबका प्रकाश यजुर्वेद में किया गया है। जब तक ज्ञान क्रियानिष्ठ नहीं होता, तब तक उससे श्रेष्ठ सुख कभी नहीं हो सकता। विज्ञान क्रिया में निमित्त बनता है, प्रकाशकारक होता है, अविद्या की निवृत्ति करता है, धर्म में प्रवृत्ति करता है और धर्म तथा पुरुषार्थ का मेल कराता है, जो-जो कर्म विज्ञाननिमित्तक होता है, वह-वह सुखजनक हो जाता है। अतः मनुष्यों को चाहिए कि विज्ञानपूर्वक ही नित्य कर्मानुष्ठान करें। जीव चेतन होने से बिना कर्म किये नहीं रह सकता। कोई भी मनुष्य आत्मा मन, प्राण और इन्द्रियों के संचालन के बिना क्षणभर भी नहीं रह सकता। ‘यजुर्भिः यजन्ति’ इस प्रमाण से यजुर्वेद के मन्त्रों से यजन किया जाता है। जिससे मनुष्य ईश्वर का और धार्मिक विद्वानों का पूजा सत्कार करते हैं, पदार्थों के संगतिकरण द्वारा शिल्पविद्या की सिद्धि किया करते हैं, शुभ विद्या और शुभ गुणों का दान किया करते हैं, यथायोग्य सबके उपकार में शुभ व्यवहार में और विद्वानों में धनादि का व्यय करते हैं वह यजुः है।’’ इस प्रकार यजुर्वेद में मुय करके कर्मकाण्ड का विषय है। महर्षि ने इसी बात को सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में भी कहा है।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

मेरा प्रश्न है कि ऋषि के सत्यार्थ प्रकाश के अनुसार शरीर की चार अवस्था मानी गई हैं। सुषुप्ति, स्वप्न और जागृत व तुरीय। हम सामान्य पुरुषों की तुरिय न होकर अन्य तीन अवस्थाएँ मैं समझती हूँ। इन तीन अवस्थाओं में आत्मा का निवास कहाँ होता है। ये मेरी शंका है क्योंकि मैंने स्वाध्याय में पाया है- प्रथम आत्मा का ज्ञान होगा तो तभी ईश्वर का ज्ञान होगा, अन्यथा नहीं। त्रैतवाद का दूसरा अंग आत्मा ही है। अतः मैं आत्मा के विषय मैं पूरा-पूरा ज्ञान जानना चाहती हूँ। कृपया मुझे बताईये। – सुमित्रा आर्या, 961/10, आदर्श नगर, सोनीपत, हरियाणा।

सत्यार्थप्रकाश के 9वें समुल्लास में महर्षि ने मुक्ति साधन कहे हैं, उन साधनों में तीन अवस्थाओं का वर्णन है- जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति। वहाँ तुरीय को अवस्था न कहकर ऋषि ने चौथे शरीर रूप में वर्णन किया है। इस तुरीय शरीर की व्याया करते हुए महर्षि लिखते हैं – ‘‘तुरीय शरीर वह कहाता है, जिसमें समाधि से परमात्मा के आनन्दस्वरूप में जीव होते हैं। इसी समाधि संस्कारजन्य शुद्ध शरीर का पराक्रम मुक्ति में भी यथावत् सहायक रहता है।’’ इस प्रकार यह तुरीय अवस्था न होकर तुरीय शरीर है।

आप शरीर में आत्मा निवास को जानना चाहती हैं, इस विषय में उपनिषद् में लिखा हुआ कि उसका निवास स्थान हृदय है। महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में उपासना विषय में इस हृदय स्थान की व्याया स्पष्ट की है। यह भी लिखा है कि इसी हृदय प्रदेश में योगी जन अपने आत्मा का मेल परमात्मा से करते हैं। यह मेल जाग्रत अवस्था समाधि में होता है, सुषुप्ति में नहीं। इससे ज्ञात होता है कि आत्मा का शरीर में मुय निवास स्थान हृदय प्रदेश में ही है। इसकी अनुभूति आप स्वयं भी कर सकते हैं, जब हमें भय लगता है तो भय की अनुभूति न तो आँखों में होती न ही कण्ठ व अन्य स्थान पर, यह अनुभूति हृदय प्रदेश में ही होती है। क्योंकि वहाँ आत्मा रहता है, जो कि अनुभव करने वाला है। भय के समान सुख-दुःख आदिकी अनुभूति समझें।

रही आत्मा के स्वरूप की बात तो यह स्वरूप ऋषियों ने शास्त्र में वर्णित कर रखा है। जीवात्मा नित्य है, चेतन, अनादि, निराकार, अल्पज्ञ एकदेशीय, अल्पशक्तिवाला, जन्म-मरण में जाने आने वाला, कर्म करने में स्वतन्त्र, फल भोगने में परतन्त्र है इत्यादि स्वरूप आत्म का वर्णन मिलता है।

लिंग की दृष्टि से देखें तो आत्मा स्त्री, पुरुष, नपुंसक लिंग भेद नहीं। पुरुष का आत्मा अन्य जन्म में स्त्री शरीर में और स्त्री का आत्मा पुरुष शरीर में आता-जाता है, आ-जा सकता है। लिंग निर्धारण तो शरीर के आधार पर होता है, यथार्थ आत्मा का कोई लिंग नहीं है। इस प्रकार आत्मा के स्वरूप को जानने के लिए ऋषियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय करें विस्तार से जानकारी मिलेगी। अस्तु।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।