2. यदि चारों वेद संहिताएं विदेश से मंगवाए गए तो फिर यह क्यों कहा जाता है कि स्वामी दयानन्द ने 2 वर्ष 10 महीने में अपने गुरु विरजानन्द जी से चारों वेदों का अध्ययन किया और शंकाओं का समाधान किया। जब वेद मंगवाए ही बाद में हैं तो अपने गुरु जी से कैसे पढ़े? और यदि वेद पहले ही उपलध थे तो मंगवाने की क्या जरूरत थी। इससे यह भी प्रतीत होता है कि स्वामी दयानन्द जी ने भी अपने गुरु जी के पास से शिक्षा पूरी करने के बाद ही चारों वेद पढ़े। गुरु जी के पास तो जो आधे अधूरे उपलध थे वे ही पढ़ पाए। फिर पूरे वेद बाद में पढ़े हैं तो स्वामी जी को पढ़ाने वाले अन्य कौन गुरु मिले जो स्वामी विरजानन्द जी से भी भली प्रकार पढ़ा सकते थे।

ऊपर हमने देखा कि वेद हमारे पास पहले ही उपलध रहे हैं, यह भ्रान्ति फैलाई गई कि वेद जर्मन में थे भारत में नहीं। महर्षि दयानन्द ने गुरु विरजानन्द से चारों वेद को पढ़ा यह वर्णन कहीं देखने को नहीं मिलता हाँ कुछ वक्ता लोग इस प्रकार की अप्रमाणिक बातें बोलते हैं। महर्षि ने गुरु विरजानन्द से 2 वर्ष 10 महीने में मुय रूप से व्याकरण महाभाष्य पढ़ा था। हाँ जहाँ कहीं व्याकरण में वेद का विषय आया है वहाँ गुरुवर ने वेद मन्त्रों के उद्धरण अवश्य दिये होंगे। इस विषय में डॉ. रामप्रकाश जी द्वारा लिखित ‘गुरु विरजानन्द दण्डी जीवन एवं दर्शन’ पुस्तक की पंक्तियाँ लिखता हूँः- ‘‘कुछ लेखक मानते हैं कि दयानन्द ने दण्डी जी से केवल व्याकरण पढ़ा और कुछ नहीं परन्तु यह कैसे सभव है कि जिस आर्ष अनार्ष ग्रन्थ निर्णय के लिए पूरा एक दशक (1859-1868) लगा दिया तथा किसी भी पण्डित से एतद् विषयक चर्चा अथवा शास्त्रार्थ का अवसर हाथ से न जाने दिया, वह चिन्तन वे अढ़ाई साल की लबी अवधि में अपनी आशा के केन्द्र बिन्दु दयानन्द से सांझा न करते। वे तो व्याकरण मात्र को मानते ही वेदादि के अध्ययन के लिए थे। अतः संहिता विशेष भले ही न पढ़ाई हो पर यत्र तत्र वेद से उदाहरण देकर व्याकरण समझाना तो स्वभाविक था। स्वामी दयानन्द ने भी गुरु से जितना पढ़ा, उससे कहीं अधिक सीखा। यद्यपि अभी वैदिक साहित्य का सपूर्ण ज्ञान करना शेष था परन्तु उन्हें आर्ष – अनार्ष ग्रन्थों के विवेक की सूझ अवश्य प्राप्त हुई।’’

इस समस्त कथन से ज्ञात हो रहा है कि महर्षि ने गुरु विरजानन्द जी से चारों वेद संहिताओं का अध्ययन नहीं किया अपितु आंशिक रूपसे कुछ अध्ययन किया और मुय रूप से व्याकरण का अध्ययन किया। चारों वेदों का अध्ययन महर्षि ने व्यक्तिगत रूप से अपनी योग्यता के आधार पर स्वयं किया। इस आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि गुरु विरजानन्द के समय वेद आधे अधूरे थे, ऊपर इस विषय में लिखा जा चुका है।