समाधान– प्रायः यज्ञ में आहुति देते समय ‘स्वाहा’ शद का प्रयोग किया जाता है। यह स्वाहा शद मूल वेद मन्त्रों में भी अनेकत्र आया है। इस स्वाहा का जो अर्थ मुझे आप्त लोगों का मिला है वहा यहाँ लिख रहा हूँ-
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने इस स्वाहा शद की व्याया निरुक्त के आधार पर अपनी लघु पुस्तक पञ्चमहायज्ञविधि में सन्ध्योपासना के ‘‘चित्रंदेवानामुदगादनीकम्…….।’’ इस मन्त्र के अन्त में आये स्वाहा को लेकर की और महर्षि ने वेदभाष्य में भी जहाँ-जहाँ स्वाहा शद आया है वहाँ-वहाँ की है। यहाँ पहले पञ्चमहायज्ञविधि वाली व्याया देखते हैं-
‘‘स्वाहा अथात्र स्वाहाशदार्थे प्रमाणम् निरुक्तकारा आहुः- स्वाहाकृतयः स्वाहेत्येतत्सु आहेति वा, स्वा वागाहोति वा, स्वं प्राहेति वा, स्वाहुतं हविर्जुहातीति वा, तासामेषा भवति। – निरु. अ. 8/खं 20।।’’
‘‘स्वाहाशदस्यायमर्थः- (सु आहेति वा) सु सुठु कोमलं मधुंर कल्याणकरे प्रियं वचनं सर्वैर्मनुष्यैः सदा वक्तव्यम्। (स्वा वागाहेति ना) या स्वकीय वाग् ज्ञान मध्ये वर्त्तते, सा यदाह तदेव वागिन्द्रियेण सर्वदा वाच्यम्। (स्वं प्राहेति वा) स्वं स्वकीय पदार्थ प्रत्येव स्वत्वं वाच्यम् न पर पदार्थ प्रति चेति। (स्वाहुतं ह.) सुष्ठुरीत्या संस्कृत्य संस्कृत्य हविः सदाहोतव्यमिति स्वाहाशदस्यपर्य्यायार्याः स्वमेव पदार्थ प्रत्याह वयं सर्वदा सत्यं वदाम इति, न कदाचित् पर पदार्थ प्रति मिथ्या वदेमेति।’’ – पंचमहा.
अर्थात्- 1. जिस क्रिया के द्वारा सुन्दर मधुर कल्याणकर शद या वचन बोले जाते हैं, 2. अपनी वाणी के द्वारा वही वचन बोलना जो हृदय में है,3. अपने ही पदार्थ को अपना कहना दूसरे के पदार्थ में लालसा न करना, 4. सुसंस्कृत हवि सत्यवाणी, सत्य-आचरणयुक्त क्रिया, त्याग एवं सुखकारी क्रिया, सुसंस्कृत हवि प्रदान करने की क्रिया, प्रशंसायुक्त वाणी, अपने पदार्थ के प्रति सदा सच बोलना और दूसरे के पदार्थ के प्रति कभी मिथ्याभाषण न करना आदि स्वाहा के अर्थ हैं। निघण्टु में वाक् को स्वाहा कहा है।
पौराणिक लोग इस स्वाहा के इतने महत्वपूर्ण अर्थ को छोड़कर अपनी काल्पनिक कथा के अनुसार लेते हैं। भागवत पुराण के अनुसार स्वाहा दक्ष की कन्या और अग्नि की पत्नी है। ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रकृति खण्ड, स्वाहोपायान नामक अध्याय में स्वाहा की उत्पत्ति आदि को विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है।
स्वाहा देवहविर्दाने प्रशस्ता सर्वकर्मसु।
पिण्डदाने स्वधा शस्ता दक्षिणा सर्वतो वरा।।1.
प्रकृतेः कलया चैव सर्वशक्तिस्वरूणिणी ।
बभूव वाविका शक्तिरग्ने स्वाहा स्वकामिनी।।2.
ईषद् हास्यप्रसन्ननास्या भक्तानुग्रकातरा।
उवाचेति विधेरग्रे पद्मयोने । वरंश्रुणु।।3.
विधिस्तद्वचनं श्रुत्वा संभ्रमात् समुवाच ताम्।4.
त्वमग्नेर्दाहिका शक्तिर्भव पत्नी च सुन्दरी।
दग्धुं न शक्तस्त्वकृती हुताशश्च त्वया बिना।।5.
तन्नामोच्चार्य मन्त्रान्ते यो दास्यति हविर्णरः।
सुरेश्यस्तत् प्राप्नुवन्ति सुराः स्वानन्दपूर्वकम्।।6.
इन पुराण के श्लोकों में ‘स्वाहा’ को एक स्त्री के रूप में दर्शाया है। उसको अग्नि की पत्नी कहा है, जैसे अन्य देवियों की स्तुति पुराणों में मिलती है इन श्लोकों में भी स्वाहा रूप अग्नि की पत्नी की स्तुति की गई है। ऊपर जो सत्य शास्त्रोक्त अर्थ लिखा उससे यह पौराणिक मान्यता सर्वथा भिन्न व अवैदिक है।
महर्षि दयानन्द के वेदभाष्य व अन्य ग्रन्थों में स्वाहा अर्थ लगभग तरेसठ (63)स्थलों पर आया है जो शास्त्र समत है। यहाँ महर्षि दयानन्द द्वारा कुछ और स्थलों पर स्वाहा के लिए किये गये अर्थों को लिखता हूँ-
‘‘सत्यभाषणयुक्ता वाक्, यच्छोभनं वचनं सत्यकथनं, स्वपदार्थान् प्रति ममत्ववचो, मन्त्रोच्चारणेन हवनं चेति स्वाहा-शदार्था विज्ञेयाः।’’ – यजुर्वेद 2.2
जो सत्यभाषणयुक्त वाणी, भ्रमोच्छेदन करने वाला सत्य कथन, अपने ही पदार्थों के प्रति ममत्व अर्थात् अपनी वस्तु को ही अपना कहना और मन्त्रोच्चार के साथ हवन आहुति देना ये सब स्वाहा के अर्थ हैं।
‘‘सुष्ठु जुहोति, गृहणाति, ददाति यथा क्रियया तथा, सुशिक्षितया वाचा, विद्याप्रकाशिकया वाण्या सत्यप्रियत्वादिगुणविशिष्टयावाचा।’’ – यजु. 4.6
जिस क्रिया के द्वारा अच्छे प्रकार ग्रहण किया और दिया जाता है, सुशिक्षा से युक्त, विद्या को प्रकाशित करने वाली, सत्य और प्रियता रूपी गुणों से विशिष्ट वाणी के द्वारा जो क्रिया की जाती है वह स्वाहा कहलाती है।
‘‘पुष्टायादि कारक घृतादि उत्तम पदार्थों के होम करने।’’ स.प्र.
‘‘सत्यमानं, सत्यभाषणं सत्याचरणं सत्यवचनश्रवणश्च’’ – ऋ. भा. भू.।
सत्य को मानना, सत्य भाषण करना, सत्य का आचरण करना और सत्यवचन का सुनना।
‘‘जैसा हृदय में ज्ञान वैसा वाणी से भाषण।’’
– आर्याभि.
ये सब महर्षि द्वारा किये गये स्वाहा के अर्थ हैं। अधिक जानने के लिए महर्षि दयानन्दकृत यजुर्वेद भाष्य व शतपथादि ग्रन्थों का अध्ययन करें। अलम्
– सोमदेव ऋषि उद्यान, अजमेर