श्रौत-यज्ञ-मीमांसा’ पुस्तक के पृष्ठ 177 व 178 पर श्रद्धेय युधिष्ठिर मीमांसक जी ने कश्यप-पुत्र असुर को इस पृथिवी का प्रथम शासक बताया है। साथ ही वे (तैत्तिरीय-संहिता 6-3-7-2 का सर्न्दा देकर) लिखते हैं कि पहले निश्चय ही यज्ञ असुरों में था….बाद में देवों के हाथ में आ गया……यहाी लिखा है कि असुरों का यज्ञ ध्वंसनात्मक (यज्ञ क्या ध्वंसनात्मक भी होता है) था । कृपया, इस पूरे प्रकरण का सही-सही भाव बताने का कष्ट करें।
समाधान– (क) शास्त्रों में यज्ञ का वर्णन विस्तार से मिलता है। यज्ञ का अर्थ करते समय ऋषियों ने व्यापक दृष्टि रखी है। यज्ञ केवल अग्निहोत्र ही नहीं है, अपितु इस ब्रह्माण्ड में जो हो रहा है वह भी यज्ञ ही है। प्रातः काल से ही सूर्य संसार को अपनी ऊर्जा देकर यज्ञ कर रहा होता है। रात्रि में चन्द्रमा अपना शीतल प्रकाश फैलाकर यज्ञ कर रहा होता है। इस प्रकार यज्ञ के व्यापक रूप को देख प्रलय और सृष्टि को भी यज्ञ का ही रूप दे डाला। प्रलय को ध्वंसनात्मक यज्ञ और सृष्टि उत्पत्ति को सृजनात्मक यज्ञ कहा गया है।
पं. युधिष्ठिर जी मीमांसक ने इस को लेकर अपनी पुस्तक में विस्तार से वर्णन किया है। पाठकों की दृष्टि से उनके वचन ही यहाँ लिखते हैं- ‘‘यज्ञों के सबन्ध में कथानक वैदिक वाङ्मय में मिलता है वह दो प्रकार का है। एक सृष्टिगत आसुर और दैव यज्ञों के सबन्ध में, और दूसरा श्रोतसूत्रोक्त मानुष द्रव्य यज्ञों के सबन्ध में। दोनों के वर्णन में स्थान-स्थान पर देव और असुर शदों का प्रयोग मिलता है, अतः इन वचनों के विषय में बड़ी कठिनाई होती है। हम अपनी बुद्धि के अनुसार दोनों वचनों का विभाग करके लिखते हैं।’’
प्रस्तुत आसुर यज्ञों पर विचार करने से पूर्व यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि भारतीय दर्शन के अनुसार सृष्टि और प्रलय का चक्र सदा चलता ही रहता है। परन्तु जब वर्तमान सृष्टि के विषय में लिखना होता है तो भारतीय ग्रन्थकार वर्तमान सृष्टि से पूर्व जो प्रलयावस्था रही थी, उसका पहले संक्षेप से वर्णन करते हैं, पश्चात् सृष्टि के सृजन का।
हमारे सौरमण्डल की स्थिति और प्रलय का काल 8 अरब 64 करोड़ वर्ष का है। इसमें 4 अरब 32 करोड़ वर्ष दिन अर्थात् सृष्टि का स्थिति काल और 4 अरब 32 करोड़ वर्ष रात्रि अर्थात् प्रलयकाल होता है। प्रलयकाल के आरा में आसुर=ध्वंसनात्मक प्रवृत्तियाँ उत्तरोतर वृद्धिगत होती है प्रलय के मध्य में पूर्णता को प्राप्त होने के पश्चात् दैवी प्रवृत्तियों का उत्तरोत्तर विकास होता है और आसुर प्रवृत्तियाँ घटती जाती हैं। इस कारण वर्तमान सृष्टि से पूर्व प्रलय काल में आसुर प्रवृत्तियों के कारण ध्वंसनात्मक यज्ञ हो रहे थे, अर्थात् प्रलयात्मक यज्ञ आसुर शक्तियों के पास था। इसी का निर्देश तैत्तिरीय संहिता 6.3.7.2 में किया है।
‘‘असुरेषु वै यज्ञ आसीत्, तं देवा तुष्णीं होमेनापवृञ्जन्।।’’ अर्थात् – पहले निश्चय ही यज्ञ असुरों में था। देवों ने उसे तूष्णीम् होम से काट लिया=छीन लिया। अभिप्राय स्पष्ट है कि जब प्रलयकाल में आसुरी शक्तियाँ प्रबल हो रही थीं, तब सर्गोन्मुखकाल में दैवी शक्तियों ने तूष्णीं=चुपचाप=शनैः-शनैः अपना कार्य=सर्जनरूप यज्ञ का आरा किया और शनैः-शनैः सर्जन प्रक्रिया बढ़ती गई। इस प्रकार यज्ञ असुरों से देवों के हाथ में आ गया।’’
इस पूरे प्रकरण में पं. युधिष्ठिर जी यज्ञ को विस्तृत रूप में देख रहे हैं। प्रलय और निर्माण इन दोनों को यज्ञ रूप में देखा है। सृष्टि का प्रलय होना, क्षय होना जब प्रारभ होता है, तब उसको ध्वंसनात्मक यज्ञ कहा है। असुर बिगाड़ने वाले होते हैं बनाने वाले नहीं। इस आसुरी स्वभाव को देख सृष्टि प्रलयावस्था में आसुरी शक्तियों का प्रबल होना माना है। ये आसुरी शक्ति प्रलय काल के मध्य तक प्रबल रहती हैं और वे आसुरी शक्तियाँ इस जगत् को नष्ट करने में लगी रहती हैं, इसी को ध्वंसनात्मक यज्ञ कहा है।
प्रलय के मध्यकाल के बाद धीरे-धीरे देव अर्थात् दैवी शक्तियाँ सक्रिय हो जाती हैं। देव अर्थात् निर्माण करने वाली शक्तियाँ जो बनाने वाली, बिगाड़ने वाली नहीं। सृष्टि निर्माण से पहले ध्वंसनात्मक यज्ञ असुर कर रहे थे, उस यज्ञ को शनैः-शनै-धीरे-धीरे देवों ने ले लिया हैं अर्थात् निर्माण प्रक्रिया को आरा कर दिया। इस सृष्टि काल में दैवी शक्तियाँ कार्य करती हैं। इस प्रकार शास्त्र के आधार पर पं. मीमांसक जी ने सृष्टि प्रलय और सृष्टि निर्माण को यज्ञ रूप में कहा है।
ये देवासुर प्रक्रिया हम अपने ऊपर, समाज, राष्ट्र में कहीं भी देख सकते हैं। हमारे मन में अच्छे-बुरे दोनों विचार चलते रहते हैं। मन के अन्दर कभी बुरे विचार अधिक प्रबल होते हैं, जिससे हम टूटते जाते हैं, क्षय को, पतन को प्राप्त होते हैं। ये आसुरी शक्ति का प्रााव है। और जब हम अच्छे विचारों से ओत-प्रोत होते हैं, तब हमारा निर्माण हो रहा होता है, उस समय हम पतन को प्राप्त न हो श्रेष्ठता को प्राप्त होते हैं। जैसे सृष्टि निर्माण और प्रलय प्रक्रिया में देव और असुर कोई व्यक्ति विशेष नहीं होते। वहाँ निर्माण और प्रलय में शक्ति विशेष लगती है, होती है, उसको देव और असुर कहा है, वैसे ही हमारे मन के अच्छे विचार देव हैं और बुरे विचार असुर। असुरों का काम पतनोन्मुख करना और देवों का काम उत्थान की ओर ले जाना है।
समाज राष्ट्र में भी दो प्रकार के मनुष्य देखे जाते हैं, सज्जन और दुर्जन। सज्जन देव हैं जो समाज राष्ट्र का भला चाहते हैं, भला करते हैं और दुर्जन असुर हैं जो कि समाज राष्ट्र के निर्माण में बाधा डालते रहते हैं। इस प्रकार इसको भी यज्ञ रूप में देखा जा सकता है
लौकि क इतिहास की दृष्टि से पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी इसी पुस्तक के पृष्ठ 180 पर लिखते हैं, ‘‘असुर आरभ में श्रेष्ठ चरित्रवान् थे। प्रजापति कश्यप ने इनकी श्रेष्ठता और ज्येष्ठता के कारण पृथिवी का शासन इन्हें दिया। इन्हीं असुरों ने वेद के अनुसार वर्णाश्रम-विभाग और यज्ञों का प्रवर्तन किया । शासन अथवा विशेषाधिकार मिल जाने पर अंकुश न रखा जाय तो मनुष्य की मति धीरे-धीरे विकृत होने लगती है। इसी सिद्धान्त के अनुसार असुरों में गिरावट आयी। असुर शद, जो पहले श्रेष्ठ अर्थ (असु+र=प्राणों से युक्त=बलवान्) का वाचक था, वह उनके निकृष्ट आचरण से निकृष्ट का बोधक बन गया।………..‘पूर्वे देवाः’ यह असुरों के पर्यायवाची नामों में उपलध होता है।’’
यहाँ असुरों के श्रेष्ठ होने से प्रजापति ने उनको पृथिवी का शासन दिया ऐसा लिखा है, दूसरे स्थान पर स्वायंभुव मनु का पुत्र मरीचि प्रथम क्षत्रिय राजा हुआ- यह लिखा है। इन दोनों कथनों में विरोध दिख रहा है। इससे ऐसा विचार किया जा सकता है कि जो मीमांसक जी ने शास्त्र प्रमाणयुक्त लिखा है। वह क्षत्रिय राजा के विषय में न हो और जो दूसरा वचन है उससे तो स्पष्ट है ही की प्रथम क्षत्रिय राजा मरीचि हुआ। फिर भी यह इतिहास का विषय है, इसमें हम निश्चय पूर्वक नहीं कह सकते।
यज्ञ ध्वंसनात्मक भी होता है उसका आलंकारिक रूप को सृष्टि प्रलय की स्थिति को उपरोक्त प्रकरण में हमने देखी। इतिहास में भी ध्वसनात्मक यज्ञ किये जाते रहे हैं। एक राजा दूसरे राजा हराने नष्ट करने के लिए इस प्रकार के यज्ञों का आयोजन करता था। इस यज्ञ में उसको सफलता कितनी मिलती थी- यह तो कहा नहीं जा सकता, किन्तु ध्वंसनात्मक यज्ञ तो होता था। किसी को नष्ट करने के लिए ध्वसंनात्मक का प्रचलन था।