आपने मनु जी की बात पर पूरा ध्यान नहीं दिया। मनुजी ने यह नहीं कहा- ‘सत्य न बोलें।’ बल्कि यह कहा- ‘कड़वा सत्य न बोलें’। अर्थात् सत्य ही बोलें, परन्तु मीठा बना कर बोलें। उन्होंने इसी श्लोक के दूसरे भाग में कहा है- ‘प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्मः सनातनः।’ अर्थात् मीठा तो बोलें, परन्तु झूठ न बोलें। यही वेदों का प्राचीन धर्म है। देखिये, झूठ बोलने को मना किया है। इसलिए वेद में और मनु जी में कोई विरोध नहीं है।
स इन दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है। और ना ही ‘झूठ बोलना’ अपवाद रूप में धर्म हो सकता है। झूठ बोलने को अपवाद रूप में भी धर्म नहीं माना है। क्योंकि जिसका अपवाद है, वो धर्म नहीं हो सकता। इसमें तो आपकी यह मान्यता सामने आ रही है कि सत्य का भी अपवाद होता है। तो कौन सा अपवाद है सत्य का? कोई नहीं। सत्य और झूठ, ये दोनों परस्पर विरोधी हैं। इसलिए दोनों धर्म नहीं हो सकते। अतः सत्य बोलना रूपी धर्म का कोई अपवाद नहीं है। इसलिये सत्य बोलना ही धर्म है।
स व्यवहार भानु में लिखा है- ‘न हि सत्यात् परोधर्मो नासत्यात् पातकं परम्’ अर्थात् सत्य से बढ़कर कोई ऊँचा धर्म नहीं है और झूठ से बढ़कर कोई गिरा हुआ पाप नहीं है। सबसे घटिया पाप है- ‘झूठ बोलना’। सबसे बढ़िया पुण्य, सबसे ऊँचा धर्म- ‘सत्य बोलना’। सत्य बोलने वाला तो मोक्ष में चला जाता है। और झूठ बोलने वाला नरक में चला जाता है। इसलिये सत्य बोलना पूरा धर्म है, उसका कोई अपवाद नहीं है।