महर्षि दयानन्द के अनुसार वेद को ही श्रुति कहते हैं, इस आधार पर श्रुतियों की संख्या चार ही रहेंगी अर्थात् श्रुतियाँ चार हैं। महर्षि दयानन्द ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका के वेदोत्पत्ति विषय में प्रश्नोत्तर पूर्वक लिखते हैं-
‘‘प्रश्न- वेद और श्रुति ये दो नाम ऋग्वेदादि संहिताओं के क्यों हुए हैं? उत्तर – अर्थभेद से। क्योंकि एक ‘विद’ धातु ज्ञानार्थ है, दूसरा ‘विद’ सत्तार्थ है, तीसरे ‘विदलृ’ का अर्थ लाभ हैं, चौथे ‘विद’ का अर्थ विचार है। इन चार धातुओं से करण और अधिकरण कारक में ‘घञ्’ प्रत्यय करने से ‘वेद’ शब्द सिद्ध होता है तथा ‘श्रु’ धातु श्रवण अर्थ में है। इससे करण कारक में ‘क्तिन्’ प्रत्यय के होने से ‘श्रुति’ शब्द सिद्ध होता है। जिनके पढ़ने से यथार्थ विद्या का विज्ञान होता है, जिनको पढ़के विद्वान् होते हैं, जिनसे सब सुखों का लाभ होता है और जिनसे ठीक सत्यासत्य का विचार मनुष्यों को होता है, इससे ऋक्संहितादि का वेद नाम है। वैसे ही सृष्टि के आरम्भ से आज पर्यन्त और ब्रह्मादि से लेके हम लोग पर्यन्त। जिससे सब विद्याओं को सुनते आते हैं, इससे वेदों का ‘श्रुति’ नाम पड़ा है, क्योंकि किसी ने वेदों के बनाने वाले देहधारी को साक्षात् कभी नहीं देखा। इस कारण से जाना गया कि वेद निराकार ईश्वर से ही उत्पन्न हुए हैं और सुनते-सुनाते ही आज पर्यन्त सब लोग चले आते हैं।’’
महर्षि के इन वचनों से स्पष्ट हो रहा है कि वेद ही श्रुति है। अब रही नाम की बात तो वह भी सरलता से पता चलता है, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ये श्रुतियों के नाम हैं।
इन श्रुतियों का सृजन कर्ता कोई देहधारी मनुष्य नहीं था। इनका सृजन कर्ता तो निराकार, सर्वज्ञ परमेश्वर ही है। इनका ज्ञान परमेश्वर ने आदि सृष्टि में ऋषियों को दिया। किन ऋषियों ने कब इस श्रुतिरूपी ज्ञान को लिपिबद्ध किया अर्थात् लिखा, इसका इतिहास प्राप्त नहीं है, अर्थात् हम यह नहीं बता सकते कि इनको लिखने वाले ऋषि कौन थे और इनको किस समय लिखा।
इनमें किस विषय का ज्ञान है, इसको विस्तार से जानने के लिए महर्षि दयानन्द द्वारा लिखित ऋग्वेदादि-भाष्यभूमिका का अध्ययन करें।
श्रुति के विषय में हमने महर्षि दयानन्द की मान्यता को रखा, जिसको हम भी स्वीकारते हैं। अब अन्य विद्वानों की मान्यता को यहाँ थोड़ा लिखते हैं। कुछ विद्वान् श्रुति से मन्त्र भाग व ब्राह्मण भाग दोनों लेते हैं, अर्थात् मूल वेद और उसके व्याख्या ग्रन्थ शतपथ आदि ब्राह्मण ग्रन्थ। उनका कहना है- ‘श्रूयतेऽनया सा श्रुतिः’ जिससे अर्थ को सुना जाये अर्थात् जाना जाये। ऐसी व्याख्या करके वे दोनों अर्थ ग्रहण करते हैं।
ऐसी मान्यता वाले विद्वान्, जब कभी श्रुति की बात आती है तो व्याख्यान ग्रन्थ ब्राह्मणों का भी प्रमाण मानते हैं, जबकि महर्षि दयानन्द श्रुति से वेद को प्रमाण मानते हैं। इस विषय में आर्यसमाज के योग्य विद्वान् पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने भी अपना विचार रखा है, वे लिखते हैं- ‘‘हमारे विचार से ‘श्रुति’ शब्द का प्रधान अर्थ गुरु परम्परा से नियमतः अधीयमान मन्त्रों का ही है, परन्तु व्याख्येय-व्याख्यानसम्बन्ध रूप लक्षणा से इनका प्रयोग ब्राह्मण वचनों के लिए भी होता है।’’