हुगली—शास्त्रार्थ

(चैत्र शुक्ला एकादशी, संवत् १९३०, ८ अप्रैल, १८७३)

एक पण्डित ताराचरण तर्करत्न नामक भाटपाड़ा ग्राम के निवासी हैं।

जो कि ग्राम हुगली के पार है। उस ग्राम में उनकी जन्मभूमि है परन्तु आजकल

श्रीयुत काशीराज महाराज के पास रहते हैं । संवत् १९२९ में वे अपनी जन्मभूमि

में गये थे । वहां से कलिकाता में भी गये थे और किसी स्थान में ठहरे थे।

जिनके स्थान में मैं ठहरा था, उनका नाम श्रीयुत राजा ज्योतीन्द्र मोहन

ठाकुर तथा राजा शौरीन्द्र मोहन ठाकुर है । उनके पास तीन बार जा—जा करके

ताराचरण ने प्रतिज्ञा की थी कि हम आज अवश्य शास्त्रार्थ करने को चलेंगे।

ऐसे ही तीन दिन तक कहते रहे परन्तु एक वार भी न आये । इस से बुद्धिमान्

लोगों ने उनकी बात झूठी ही जान ली ।

मैं कलिकाता से हुगली में आया और श्रीयुत वृन्दावनचन्द्र मण्डल जी

के बाग में ठहरा था । सो एक दिन उन्होंने अपने स्थान में सभा की । उस

में मैं भी वक्तृत्व करने के लिए गया था तथा बहुत पुरुष सुनने को आये

थे । उनसे मैं अपना अभिप्राय कहता था । वे सब लोग सुनते थे । उसी

समय में ताराचरण पण्डित जी भी वहां आये । तब उनसे वृन्दावन चन्द्रादिकों

ने कहा कि आप सभा में आइये । जो इच्छा हो सो कहिये परन्तु सभा के

बीच में पण्डित ताराचरण नहीं आये । किन्तु ऊपर जाकर दूर से गर्जते थे।

वहां भी उन्होंने जान लिया कि पण्डित जी कहते तो हैं, परन्तु समीप

क्यों नहीं जाते । इससे जैसे वे ताराचरण जी थे, वैसे ही उन्होंने जान लिये।

फिर जब नव घण्टा बज गया, तब लोगों ने मेरे से कहा कि अब समय दश

घण्टा का है । उठना चाहिए । बहुत रात आ गई ।

फिर मैं और सब सभास्थ लोग उठे । उठके अपने—अपने स्थान में

चले गये । फिर मैं बाग में चला आया । उसके दूसरे दिन वृन्दावनचन्द्र मण्डल

जी ने मेरे से कहा कि उस वक्त ताराचरण भी आये थे । जब मैंने उनसे

कहा कि सभा में क्यों नहीं आये ?

उन्होंने कहा किवे तो बड़ा अभिमान करते हैं । तब मैंने उनसे कहा

जो अभिमान करता है, सो पण्डित नहीं होता । किन्तु वह काम मूर्ख

का ही है । और जो पण्डित होता है, सो तो कभी अपने मुख से अपनी

बड़ाई नहीं करता । जो ताराचरण पण्डित जी अभिमान में डूबे जावें, तब

तो उनको मेरे पास एक बार ले आइये । फिर वे अभिमान—समुद्र में डूबने

से बच जायें तो अच्छा हो ।

तब वृन्दावनचन्द्रादिकों ने कहा किआप बाग में चलिये। और जैसी

आपकी इच्छा हो, वैसा शास्त्रार्थ कीजिये । पण्डित जी की कुछ इच्छा न

देखी, तब वृन्दावनचन्द्र से मैंने कहा किआप उनसे कहें कि चिन्ता आप

न करें । स्वामी जी ने हम से कह दिया है कि पण्डित जी प्रसन्नता से आवें।

मैं किसी से विरोध नहीं रखता । तब तो पण्डित जी ने कहा हम चलेंगे ।

सो मग्लवार की सन्ध्या समय में बहुत लोग नगर से शास्त्रार्थ सुनने

को आये ।·

वृन्दावनचन्द्र भी बहुत लोगों के साथ आये तथा पाठशालाओं के अध्यक्ष

श्री भूदेव मुकुर्ज्या आये । तथा श्री हरिहर तर्वQसिद्धान्त पण्डित भी आये ।

उसके पीछे पण्डित ताराचरण जी सशिष्य तथा अपने ग्राम—निवासियों के साथ

आये, जो कि उनके पक्षपाती थे ।

ये सब लोग आ के सभा के स्थान में इकट्ठे भये । तब मैं भी उस

स्थान में आया । फिर यथायोग्य बैठे । तब ताराचरण जी ने प्रतिज्ञा की कि

हम प्रतिमा का स्थापन पक्ष लेते हैं । फिर मैंने कहा कि जो आपकी इच्छा

हो सो लीजिये । मैं तो इस बात का खण्डन ही करूँगा ।

तब उन ने मुझ से कहा कि संवाद में वाद होना ठीक है, वा जल्प

अथवा वितण्डा । उन से मैंने कहा कि वाद ही होना उचित है । क्योंकि

जल्प और वितण्डा सज्जनों को करना कभी उचित नहीं । वाद गौतमोक्त

लेना । तब उन्होंने भी स्वीकार किया ।

फिर दूसरी यह प्रतिज्ञा उस समय में की गई कि चार वेद तथा चार

उपवेद, छः वेदों के अग् और छः दर्शन मुनियों के किये तथा मुनि और

ऋषियों के किये छः शास्त्रों के व्याख्यान, उन्हीं के वचन प्रमाण से ही कहना।

अन्य कोई का प्रमाण नहीं । तब उस ने भी स्वीकार किया, मैंने भी ।

·तर्करत्नपातञ्जलसूत्रम्

चित्तस्य आलम्बने स्थूल आभोगो वितर्वQः । इति व्यासवचनम् ।

तर्करत्न के हाथ में पुस्तक भी थी । उसको देखा । तब भी मिथ्या

ही उसने लिखा । क्योंकि योग—शास्त्र पढ़ा होय, तब उस शास्त्र को जान

सकता है । तर्करत्न ने पढ़ा तो था नहीं । इससे उसने अशुद्ध लिखा । देखना

चाहिये कि ऐसा पातञ्जल—शास्त्र में सूत्र ही नहीं है । किन्तु ऐसा सूत्र तो

है

विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धनी, इति ।

सो इस सूत्र के व्याख्यान में ट्टट्टनासिकाग्रे धारयत’’ इत्यादिक वहां लिखा

है । यह तो उसने जाना भी नहीं । इससे उनका लिखना भ्रष्ट है । फिर लिखते

हैं कि

इति व्यासवचनम् ।

इस प्रकार का वचन व्यास जी ने कहीं योगशास्त्र की व्याख्या में नहीं

लिखा । इससे यह भी उनका वचन भ्रष्ट ही है । फिर यह लिखा कि

स्वरूपे साक्षाद्वती प्रज्ञा आभोगः स च स्थूल—विषयत्वात् स्थूल इत्यादि।

यह भी उनका लिखना अशुद्ध ही है । क्योंकि प्रतिज्ञा तो ऐसी पूर्व

की गई थी कि वेदादिक शास्त्र—वचनों से ही प्रतिमा पूजन का स्थापन

हम करेंगे । और वचन फिर लिखा वाचस्पति का । इससे तर्करत्न की

प्रतिज्ञा—हानि हो गई । प्रतिज्ञा की हानि होने से उनका पराजय हो गया।

क्याेंकिप्रतिज्ञाहानिः प्रतिज्ञान्तरमित्यादिक निग्रह—स्थान होते हैं । यघपि हम

को जय तथा पराजय की इच्छा कभी नहीं है, तथापि गौतम मुनि जी ने छब्बीस

निग्रह—स्थान लिखे हैं ।

·जहां—जहां तर्करत्न शब्द आवे, वहां—वहां ताराचरण पण्डित जी को जान

लेना । और जहां—जहां स्वामी शब्द आवे, वहां—वहां दयानन्द सरस्वती स्वामी जी को

जान लेना ।

निग्रह स्थान सब पराजय के स्थान ही होते हैं । और, पहले प्रतिज्ञा

की थी कि जल्प और वितण्डा न करेंगे । फिर जाति—साधन से प्रतिमा

का स्थापन करने लगे । क्योंकि प्रतिमा भी स्थूल साधर्म्य से आती है ।

स्वामी जी

यावान् जागरितावस्थाविषयः तावान् सर्वः स्थूलः कुत, इत्यादि।

मैंने उनको ज्ञापक से जना दिया कि ये गृहस्थ हैं । इनकी अप्रतिष्ठा

न हो जाय । तदपि उसने कुछ भी नहीं जाना । जानें तो तब, जब कुछ शास्त्र

पढ़ा हो । अथवा बुद्धि शुद्ध हो ।

साधर्म्यवैधर्म्योत्कर्षापकर्षेत्यादिक चौबीस प्रकार का शास्त्रार्थ जाति के

विषय में गौतम मुनि जी ने लिखा है । इसके नहीं जानने से जल्प और वितण्डा

तर्करत्न ने किये । क्योंकि

यथोक्तोपपन्नश्छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जल्पः ।।१।।

सप्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा ।।२।।

जैसा कि इन सूत्रों का अभिप्राय है, वैसा ही तर्करत्न जी ने प्रतिमापूजन

का स्थापन करने में जल्प और वितण्डा ही किया ।

इससे दूसरे बेर प्रतिज्ञा—हानि उसने की । द्वितीय पराजय उनका हुआ।

यदुक्तं भवता तेनैव प्रतिमापूजनमेव सिद्ध्यत्येव तस्य स्थूलत्वात्।

इसमें तीन बेर ट्टएव’ शब्द लिखने से यह जाना गया कि ताराचरण

जी को संस्कृत का यथावत् बोध भी नहीं है । इससे तर्करत्न जी अभिमान

में डूबे जाते हैं क्योंकि हम बड़े पण्डित हैं । इस प्रकार का जो स्वमुख से

कहना है, सोई विघाहीनता को जनाता है । फिर लोकान्तरस्थ शब्द से मैंने

उनको जनाया कि जो चतुर्भुज को आप लेते हो, सो तो वैकुण्ठ में सुने जाते

हैं । ट्टट्टउप’’ अर्थात् समीप ट्टट्टआसना’’ अर्थात् स्थिति सो मनुष्य लोक में रहने

वाला कैसे कर सकेगा ? कभी नहीं, और जो पाषाणादिक की मूर्ति शिल्पी

की रची भई सो तो विष्णु है नहीं । तब भी पण्डित जी कुछ नहीं समझे,

क्याेंकि जो कुछ विघा पढ़ी होती, अथवा सत्पुरुषों का सग् किया होता तो

समझ जाते । सो तो कभी किया नहीं । इससे ताराचरण जी उस बात को

न समझ सके । फिर एक कहीं से सुनी सुनाई ब्राह्मण की श्रुति विना प्रसग्

से पढ़ी । सो यह है

अथ स यदा पित¤नावाहयति पितृलोकेन तेन सम्पन्नो महीयते ।

इस श्रुति से लोकान्तरस्थ की भी उपासना आती है । इस अभिप्राय

से देखना चाहिए । इस श्रुति में उपासना लेशमात्र नहीं आती । क्योंकि यह

श्रुति जिस योगी को अणिमादिक सिद्धि हो गई हैं, वह सिद्ध जिस—जिस लोक

में जाने की इच्छा करता है, उस—उस लोक को उसी समय प्राप्त होता है।

सो जब पितृलोक में जाने की इच्छा करता है, पितृलोक को प्राप्त होके आनन्द

करता है । क्योंकि तेन पितृलोकेन महीयते ।

इत्युक्तत्वात् । ऐसे इच्छा मात्र से ही ब्रह्मलोकादिक में विहार करता

है । इससे इस श्रुति में मरकर उस लोक में जाता है, अथवा पितरों की उपासना

इस लोक में करता है, इस अभिप्राय के नहीं होने से, ताराचरण जी का कहना

मिथ्या ही है । इससे क्या आया कि अर्थान्तर का जो कहना है, सो निग्रह—

स्थान ही है । निग्रह—स्थान के होने से पराजय हो गया ।

स्वामी जी

सर्वः स्थूल इत्यनेनेत्यादि देहान्तरगतस्य प्राप्तित्वादिति दिव्ययोग

देहप्राप्तित्वाघोगिनो न तु प्राकृतदेहस्य माहात्म्यमिदमित्यर्थस्य जागरूकत्वात्

देहान्तरम् ।

अर्थात् जो दिव्य योगसिद्धियों से प्राप्त होता है, उस देह से यह बात

होती है । और जो अयोगी का देह नाम शरीर, उससे कभी यह बात नहीं

होती ।

तर्करत्न

प्रथमतः अस्माभिरित्यादि०

दूषण अथवा भूषण का ज्ञान तो, विघा होने से होता है । अन्यथा नहीं।

क्योंकि दूषण तो आपके वचनों में है, परन्तु आपने नहीं जाने । यह आपकी

बुद्धि का दोष है । जो आपने प्रत्यक्ष दिखाये दूषणों को भी नहीं जाना । ऐसे

दूषणों को तो बालक भी जान सकता है ।

तन्मध्ये प्रतिमापि वर्तते इत्येवेत्यादि० ।

आप देख लीजिये कि हम वाद ही करेंगे, जल्प और वितण्डा कभी

नहीं ।

स्वामी जी

फिर बार—बार स्थूलत्व साधर्म्य से ही प्रतिमापूजन स्थापन किया चाहते

हो । सो अपनी प्रतिज्ञा को आप ही नाश करते हैं । और फिर चाहते हो

कि हमारा विजय होवे । सो कभी नहीं हो सकता है । क्योंकि विजय तो

पूर्ण विघा और सत्य भाषण करने से होता है । सो आप में एक भी नहीं।

इससे आप विजय की इच्छा कभी मत करो । किन्तु आपको अपने पराजय

की इच्छा करनी, उचित है । किञ्च जो आप लोगों की इच्छा होवे तो वेदादिक

सत्यशास्त्रों को अर्थ—ज्ञान सहित पढ़ेंगे तथा पढ़ावेंगे, तब फिर आप लोगों

का पराजय कभी न होगा । किन्तु सर्वत्र विजय ही होगा । अन्यथा नहीं ।

दृष्टान्तत्वेनेत्यादि० छान्दोग्य०

दहर विघायामित्यादि० चेति ।

उस श्रुति का एक अंश दार्ष्टान्त में नहीं मिलने से, वह आपका कहना

मिथ्या ही है । सो मैंने कह दिया । पहले उससे जान लेना ।

यह किसने कहा कि जीवित पुरुष को उपासना का अधिकार नहीं

है । सो यह आपका कहना मिथ्या ही है । क्योंकि ब्रह्मविघा का और पाषाणादिक

मूर्तिपूजन का क्या प्रसंग है ? कुछ भी नहीं । इससे यह भी अर्थान्तर है ।

अर्थान्तर के होने से निग्रहस्थान अर्थात् पराजय स्थान आपका है । सो आप

यथावत् विचार करके जान लेवें ।

तर्करत्न

प्रथमतः अस्माभिः यत् भवत्पक्ष इत्यादि तत्र प्रतिमापि वर्त्तते इत्येवेति।

आप जान लेवें कि साधर्म्य हेतु प्रमाण से ही बोलते हैं । इससे आपके

कहे जितने दूषण हैं, वे सब आपके ऊपर ही आ गये ।

स्वामी जी

क्योंकि आपकी प्रतिज्ञा अर्थात् वाद ही हम करेंगे, ऐसा प्रथमतः कह

चुके हैं । फिर जल्प और वितण्डा ही बारम्बार करते हैं । इससे अपना पराजय

आप ही कर चुके । क्योंकि आपको जो विघा और बुद्धि होती तो कभी ऐसी

भ्रष्ट बात न करते और निग्रहस्थान में बारम्बार न आते । आपको संस्कृत

भाषण करने का भी यथावत् ज्ञान नहीं है । क्योंकि

प्रथमतः अस्माभिः यत्

ऐसा भ्रष्ट असम्बद्ध भाषण कभी न करते ।

किञ्च

प्रथमतोऽस्माभिर्यत्

ऐसा श्रेष्ठ और सम्बद्ध संस्कृत ही कहते ।

दृष्टान्ते सर्वविषयाणां साम्यप्रयोजनं नास्तीति ।

यह भी आपका कहना भ्रष्ट ही है । क्योंकि मैंने कब ऐसा कहा था

कि सब प्रकार से दृष्टान्त मिलता है । वह श्रुति एक अंश से भी आपके

अभिप्राय से मिलती नहीं । इसमें मैंने कहा कि इस श्रुति का पढ़ना आपका

मिथ्या ही है । ऐसा ही आपका कहना सब भ्रष्ट है ।

भवत्पक्ष इत्यादि तत्र प्रतिमापि वर्त्तते० ।

यह आपका जो कहना है, सो प्रतिज्ञान्तर ही है । क्योंकि स्थूलत्व तुल्य

जो प्रतिमा में और गर्दभादिकों में है । इस हेतु से ही प्रतिमा—पूजन का स्थापन

करा चाहते हो । सो फिर भी जल्प और वितण्डा ही आती है, वाद नहीं।

इससे बारम्बार आपका पराजय होता गया । फिर भी आपको बुद्धि वा लज्जा

न आई । यह बड़ा आश्चर्य जानना चाहिए कि अभिमान तो पण्डितता का

करें और काम करें अपण्डित का ।

तर्करत्न

प्रतिमापि वर्त्तते इत्यादि अयं तु प्रकृतविषयस्य साधकः न तु

प्रतिज्ञान्तरं इत्यादि ।

स्वामी जी

प्रकृत विषय यही है कि प्रतिमापूजन का स्थापन, सो स्थापना वाद से

और वेदादिक सत्यशास्त्रों के प्रमाण से ही करना । फिर उस प्रतिज्ञा को छोड़

के जल्प तथा वितण्डा और मिथ्या कल्पित वचन ये वाचस्पत्यादिकों के उनसे

स्थापन करने में लग गये । अहो इत्याश्चर्य कि ताराचरण जी की बुद्धि विघा

के विना बहुत छोटी है । जो प्रतिज्ञा करके शीघ्र ही भूल जाती है । यह

आपका दोष नहीं किन्तु आपकी बुद्धि का दोष है । और आपके काम,

क्रोध, अविघा, लोभ, मोह, भय, विषयासक्त्यादिक दोषों का दोष है । तर्करत्न

जी ! यह आप देख लीजिए कि कितने बड़े—बड़े दोष आप में हैं ?

प्रथम तो प्रतिमा—पूजन का स्थापन पक्ष लेके फिर जब कुछ भी स्थापना

न हो सकी ।

उपासनामात्रमेव भ्रममूलम् ।

अपने आप ही खण्डन प्रतिमा—पूजन का करने लगे कि भ्रममूल अर्थात्

प्रतिमा—पूजन मिथ्या ही है । इससे अपने पक्ष का आपने ही खण्डन कर दिया।

फिर मिथ्या ग्रन्थ, जो पञ्चदशी, उसके प्रमाण देने लग गये । और जो प्रथम

वेदादिक जो बीस सनातन ऋषि मुनियों के किये मूल और व्याख्यान तथा

परमेश्वर के किये चार वेद इनके प्रमाण से बोलेंगे, सो आपकी प्रतिज्ञा मिथ्या

हो गई । प्रतिज्ञा के मिथ्या होने से आपका पराजय भी हो गया फिर

भ्रान्तिरस्माकं न दूषणीया ।

वह भी पहले आपका कहना है । सो कोई भी पण्डित न कहेगा के

भ्रान्तिभूषण होता है । यह तो आपकी भ्रान्त बुद्धि का ही वैभव है और जो

सज्जन लोग हैं, वे तो भ्रान्ति को दूषण ही जानते हैं । तथा

भ्रमः खलु द्विविधः । इत्यादि०

यह पञ्चदशी का वचन है । यह प्रतिज्ञा से विरुद्ध ही है क्योंकि वेदादि

शास्त्रों में इसकी गणना नहीं है ।

पाषाणादि की रचित मूर्ति में देव बुद्धि का जो कर्त्ता है सो दीपप्रभा

में मणिभ्रम की नाईं ही है, क्योंकि दीप तो कभी मणि न होगा, और मणि

तो सदा मणि ही रहेगा । सो आपने मुख से तो कहा परन्तु हृदय में शून्यता

के होने से कुछ भी नहीं जाना । ऐसा ही आपका सब कथन भ्रष्ट है । आपको

जो कुछ भी ज्ञान होय, तब तो जान सकते, अन्यथा नहीं ।

तर्करत्न जी ने आगे—आगे जो कुछ कहा है, सो—सो भ्रष्ट ही है ।

बुद्धिमान् लोग विचार लेवें । ताराचरण जी इस प्रकार के मनुष्य हैं कि कोई

बुद्धिमान् के सामने जैसा बालक । और भाषण वा श्रवण करने के योग्य

भी नहीं, क्योंकि जिसको बुद्धि और विघा होती है, सोई कहने वा श्रवण

में समर्थ होता है । सो तर्करत्न जी में न बुद्धि है, और न कुछ विघा है।

इससे न कहने, न सुनने में समर्थ हो सकते हैं । इनका नाम जो तर्करत्न

किसी ने रखा है सो अयोग्य ही रखा है । क्योंकि

अविज्ञाते तत्त्वेऽर्थे कारणोपपत्तितस्तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तर्वQः ।

यह गौतम मुनि जी का सूत्र है । इसका यह अभिप्राय है कि जिस

पदार्थ का तत्त्वज्ञान अर्थात् जिसका यथावत् स्वरूप ज्ञान न होवे, उसके ज्ञान

के वास्ते कारण अर्थात् हेतु और प्रत्यक्षादि प्रमाणों की उपपत्ति अर्थात् यथावत्

युक्ति से ऊह नाम वितर्वQ अर्थात् विविध विचार और युक्तिपूर्वक विनयपूर्वक

श्रेष्ठों से, विविध वाक्य कहना, उसे तर्वQ कहते हैं । तर्वQ सो इसका लेशमात्र

सम्बन्ध भी ताराचरण जी में नहीं होने से, तर्करत्न तो नाम अनर्थक है ।

किन्तु इनके कथन में थोड़े से दोष मैंने दिखाये हैं । जैसा कि समुद्र

के आगे एक विन्दु । किन्तु उनके भाषण में केवल दोष ही हैं, गुण एक

भी नहीं सो विद्वान् लोग विचार कर लेवें ।

वे ही ये ताराचरण जी हैं कि जब काशी नगर के पण्डितों से आनन्दबाग

में सभा भई थी उसमें बहुत विशुद्धानन्द स्वामी तथा बालशास्त्री इत्यादिक

पण्डित आये थे । उनके सामने डेढ़ पहर तक एक बात में मौन करके बैठे

रहे थे । दूसरी बात भी मुख से नहीं निकली थी और जो उनका कुछ भी

सामर्थ्य होता तो अन्य पण्डित लोग क्यों  शास्त्रार्थ करते । जब उसने

उपासनामात्रमेव भ्रममूलम् ।

कहा, उसी वक्त श्री भूदेव मुखर्ज्या आदिक श्रेष्ठ लोग उठ गये कि

पण्डित आये तो प्रतिमा—पूजन का स्थापन करने को, किन्तु वह अपना आप

खण्डन कर चुके । पण्डित कुछ भी नहीं जानते हैं । ऐसा कहके उठके

चले गये। फिर अन्य पुरुषों से उसने कहा कि पण्डित हार गया ।

स्वामी

श्रीमत्कथनेनैव प्रतिमापूजनविघातो जात एवेति शिष्टा विचारयन्तु।

ताराचरण जी से मैंने कहा कि आपके कहने से ही प्रतिमा—पूजन का

विघात अर्थात् खण्डन हो गया और मैं तो खण्डन करता ही हूं ।

फिर पण्डित जी चुप होके ऊपर के स्थान में चले गये। उसके पीछे

मैं भी ऊपर जाने को चला । तब पण्डित सीढ़ी में मिले । मैंने उनका हाथ

पकड़ लिया । और, कहा कि ऊपर आओ । फिर ऊपर जाके सब

वृन्दावनचन्द्रादिकों के सामने उन पण्डित ताराचरण से मैंने कहा कि आप

ऐसा बखेड़ा क्यों करते फिरते हैं ?

तब वे बोले कि मैं तो काक—भाषा का खण्डन करता हूं । और सत्यशास्त्र

पढ़ने तथा पढ़ाने का उपदेश भी करता हूं । और पाषाणादिक मूर्तिपूजन भी

मिथ्या ही जानता हूं परन्तु मैं जो सत्य—सत्य कहूं तो मेरी आजीविका नष्ट

हो जाये तथा काशीराज महाराज जो सुनें तो मुझ को निकाल बाहर कर देवें।

इस से मैं सत्य—सत्य नहीं कह सकता हूं । जैसे कि आप सत्य—सत्य

कहते हैं ।

देखना चाहिए कि इस प्रकार के मनुष्यों से जगत् का उपकार तो कुछ

नहीं बनता; किन्तु अनुपकार ही सदा बनता है । विना सत्य उपदेश के उपकार

कभी नहीं हो सकता । इतना मुझ को अवकाश नहीं है कि मिथ्यावादी

पुरुषों के साथ सम्भाषण किया करूँ । जो—जो मैंने लिखा है, इसमें इसी से

सज्जन लोग जान लेवें ।

(महर्षि के पत्र विज्ञापन, लेखराम पृ० २२३—२२५, दिग्विजयार्वQ पृ० ११)