(वकारअली बेग से कुम्भ मेला हरिद्वार में प्रश्नोत्तर
फरवरी से अप्रैल, १८७९)
सन् १८७९ में होने वाले कुम्भ के मेले पर एक दिन नजफअली
तहसीलदार रुड़की स्वामी जी के पास आये और व्याख्यान सुनने लगे ।
व्याख्यान सुनकर कहा कि आज तक कुछ सन्देह था परन्तु अब अच्छी प्रकार
सिद्ध हो गया जितना ईश्वर सम्बन्धी ज्ञान संस्कृत में है उतना दूसरी भाषा
में नहीं । दूसरी बार वकार अली बेग डिप्टी मैजिस्ट्रेट को साथ लेकर आये।
डिप्टी साहब तम्बू के द्वार में और तहसीलदार साहब भीतर आ गये और डिप्टी
साहब से कहा किस्वामी जी बड़े सिद्ध पुरुष हैं, मैं भी उन का सेवक
हूं । डिप्टी साहब ने स्वामी जी से प्रश्न किया कि यह हरिद्वार और हर की
पैड़ी क्या है ?
स्वामी जी ने उत्तर दिया कि हर की पैड़ी तो नहीं किन्तु हाड़ की पैड़ी
है क्योंकि हजारों मन हड्डियाँ यहां पड़ती हैं ।
डिप्टी साहब ने कहा कि यदि इस गग में स्नान का माहात्म्य है तो
इस में ही क्या विशेषता है कि पैड़ी पर स्नान, दान करें ?
स्वामी जी ने कहा कि यह बात पण्डों की बनाई हुई है क्योंकि यदि
लोग गग में प्रत्येक स्थान पर स्नान करने लगें तो पण्डा जी दक्षिणा कहां
से लें । आपके यहां अजमेर में भी यही बात है । मुजाविर (कब्र के समीप
रहने वाला) कहते हैं कि न इधर न उधर चढ़ाओ बल्कि इन ईंटों में चढ़ाओ,
ख्वाजा साहब इन ईंटों में घुसे हैं । इस पर वे निरुत्तर हो गये ।
(लेखराम पृष्ठ ६११)