यदि जूता, चप्पल, बेल्ट इत्यादि चीजें प्राणियों को मार-मारकर बनाई जाती है, तो वो परोक्ष रूप से हिंसा है। यदि गांव में हम देखते है, कि कोई व्यक्ति चमड़े का काम करता है या स्वाभाविक मृत्यु से कोई पशु मर गया, वह उसका चमड़ा उतार अगर लाए, उससे जूते बना दिये, और उसका उपयोग करते हैं, तो कोई हिंसा नहीं। वेद में लिखा है – प्राणियों की हिंसा न करो, स्वाभाविक रूप से जो गाय-भैस मर जाते हैं, उसका चमड़ा उतारकर जूते बना लो, बेल्ट बना लो, और चीजें बना लो, तो उसमें हिंसा नहीं है। हाँ, चमड़े के लिए ही प्राणियों को मारा जाता है, तो वो हिंसा है। हमें इन सबसे बचना चाहिए। गाय दूध देना बंद कर दे, तो उसको मारकर खाना या उसको मारकर चमड़ा बनाना, यह हिंसा होगी।
मान लीजिए, हमारे दादा जी बूढ़े हो गए, अब वे काम नहीं कर सकते, कुछ पैसे नहीं कमाते। तो क्या दादाजी को मार देना चाहिए? यह कोई बात है भला? दादाजी हैं, या जो भी बड़े हैं, उनकी सेवा करो। गाय-भैंस ने पन्द्रह बीस साल दूध दिया, अब बूढ़ी हो गई, दूध नहीं दे सकती, तो कोई बात नहीं। उसने पंद्रह साल हमारी सेवा की, तो अब बुढ़ापे में हमको उसकी सेवा करनी चाहिए। चारा खिलाओ, उसकी रक्षा करो। उसको मारना नहीं है।