आप रेल यात्रा करते हैं, बस में चला करते हैं। जब आपके पड़ोस में बैठे लोग बीड़ी पीते हैं, तब क्या आप लाठी उठा लेते हैं? तब भी उनके साथ बैठे रहते हैं न। उनके बीडी, सिगरेट पीने को सहन करते हैं। और उनको समझाते हैं, कि भई बीड़ी मत पिओ। सामने नो स्मोकिंग लिखा है न। उनको बस समझा सकते हैं, लेकिन लाठी थोड़े मारेंगे। कुछ लोग समझदार होते हैं, मान लेते हैं। कुछ लोग अड़ियल होते हैं, वे नहीं मानते हैं। तब हम मुँह पर रूमाल डाल लेते हैं।
स संसार में बहुत तरह के लोग हैं। कोई मूर्ति पूजा करता है, कोई नास्तिक होता है, कोई झूठ बोलता है। हम उसको प्रेम से समझाऐंगे। समझ जाएगा, तो ठीक है। और नहीं समझेगा, तो अपनी आँखें बंद कर लेंगे।
स सवाल है कि मूर्ति पूजक हमारा लाइफ- पार्टनर ही हो, तब उसके साथ कैसे रहें? उसको भी आप समझाएँ। अगर वो मानता हो, तो बहुत अच्छा। और नहीं मानता हो, तो जब वो मूर्ति पूजा करें, तब आप दूसरी तरफ मुंह करके अपना ध्यान कर लेना। दोनों मिलकर खाऐंगे, एक ही घर में रहेंगे। प्रेम से समझाएँगे, तो कभी न कभी उसकी समझ में आएगा। समय ज्यादा लग सकता है, पर समझ में आएगा। इसलिए झगड़ा नहीं करना। हमारा काम प्र्रेम से समझाना है, उनसे झगड़ा करना नहीं। उनको समझ में आए तो ठीक, न समझ में आए, तो कोई बात नहीं।
स अगर प्र्रेम से समझाऐंगे, तो आज नहीं तो कुछ साल में, कभी न कभी उनको समझ में आ जाएगा। झगड़ा करेंगे, तो वह पचास साल में भी नहीं समझेगा। और आपका दुश्मन हो जाएगा। प्रेम से अगर उनको समझ में आता है, तो ठीक है। नहीं आता तो छोड़ दीजिए। लेकिन रहेंगे तो साथ में ही न उनके। वो भी रोटी खाते हैं, हम भी रोटी खाते हैं।
स मूर्ति पूजा जैनियों से शुरू हुई। और जैनियों का समय आज से लगभग चार हजार वर्ष पहले है। जैनियों ने शुरू की, फिर बौ(ों ने शुरू की, बौ( पैंतीस सौ वर्ष पहले हुये। तो लगभग साढ़े तीन, चार हजार वर्ष से भारत में मूर्ति पूजा शुरू हुई। और उनकी देखा-देखी अपने आर्य लोगों ने भी शुरू कर दी। उन्होंने अपनी देवी-देवताओं की, महापुरूषों की मूर्तियाँ बनाना शुरू कीं और पूजा शुरू कर दी। महाभारत से पहले धरती पर भारत में और विदेशों में कोई मूर्र्ति पूजा (बुतपरस्ती( नहीं थी।
स श्रीकृष्ण जी तो वेद के विद्वान थे। वे गुरूकुल में पढ़ने संदीपनी गुरू जी के पास गये थे। गीता में क्या लिखा हैः- ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृदयऽर्जुनतिष्ठति’, हे अर्जुन! ईश्वर तो सब प्राणियों के हृदय में रहता है। ‘तमेव शरणं गच्छ’, उसी की शरण में जा।’ यहाँ तो श्री कृष्ण जी कितनी अच्छी बात कह रहे हैं। ईश्वर सर्वव्यापक है, अर्जुन तू उसकी शरण में जा। यह बात बिल्कुल ठीक है। वेद के अनुकूल है। श्रीकृष्ण जी महाराज की ऐसी बात तो माननी चाहिये। भगवान कभी आता-जाता नहीं। वह सर्वव्यापक है। कहाँ से आएगा और कहाँ जाएगा?
स वेद ईश्वर का वचन है, और ईश्वर सर्वज्ञ है। सर्वज्ञ के वचन में कोई भूल नहीं है, कोई भ्राँति नही ंहै, कोई संशय नहीं है, कोई गड़बड़ नहीं है। चाहे कोई भी हो, परमात्मा से बड़ा तो कोई भी मनुष्य नहीं है।
स यजुर्वेद के बत्तीसवें अध्याय में तीसरा मंत्र लिखा है – ‘न तस्ये प्रतिमा अस्ति’। ईश्वर की कोई मूर्ति नहीं है। ईश्वर कभी शरीर धारण नहीं करता।
स बहुत से लोग इसका अर्थ यह लेते हैं, कि जब-जब धर्म की हानि होती है, अधर्म की वृ(ि होती है, तब-तब भगवान अवतार लेता है। तब जो भगवान का दर्शन करते हैं, उनकी मुक्ति हो जाती है। क्योंकि भगवान के दर्शन से ही मुक्ति होती है। अगर इसका यह ही अर्थ है, तब तो भगवान के दर्शन करने का बड़ा सरल उपाय है। क्या उपाय है? खूब पाप करो, खूब अधर्म करो ताकि जल्दी से जल्दी भगवान आयें और उनका दर्शन हो और हमारी मुक्ति हो जाए। क्या ये बात ठीक है? गलत है। पाप करने से कभी भी मनुष्य की मुक्ति नहीं हो सकती। ‘पाप करने से मुक्ति होने’ की बात को कोई भी बु(िमान् व्यक्ति नहीं मानेगा। इसलिए अधर्म की वृ(ि होने पर भगवान नहीं आता।
स गीता के अंदर बहुत सारी अच्छी बातें है। परन्तु बहुत सी बातें इसमें गलत मिला दी गई हैं और उसकी परख हर व्यक्ति को नहीं है। सोने में कितनी मिलावट है, इसको हर व्यक्ति नहीं पहचान सकता। कौन पहचान सकता है? सुनार ही पहचान सकता है, कि इसमें कितनी खोट है, कितनी मिलावट है। शास्त्रों में भी बहुत सी मिलावट है। उसको हर व्यक्ति नहीं पकड़ सकता। जो उस विषय में अधिकारी है, वो ही पकड़ सकता है।
स आपको आश्चर्य की बात बताऊँ, दसवाँ और ग्यारहवाँ अध्याय गीता का, जिसमें भगवान का विराट स्वरूप बतलाया है- मैं वेदों में सामवेद हूँ, फूलों में कमल का फूल हूँ, और सितारों में फलाना हूँ, )षियों में फलाना अगस्त हूँ, और ये और वो, जो भी विस्तार से लिखा है। इसी विराट स्वरूप में दसवें अध्याय के छत्तीसवें श्लोक में लिखा है कि- ‘द्यूतं छलयताम् अस्मि’ अर्थात् मैं छल कपट की विद्या में जुआ हूँ।’ अब गीता में तो लिखा है कि, भगवान छली-कपटी हैं आप मानेंगे, भगवान छली-कपटी है! या तो भगवान को छली-कपटी मानो, या कहो कि गीता में मिलावट है। बोलो क्या मानेंगे? मिलावट। बस हो गई बात खत्म। तो ऐसी-ऐसी गलत बातें उसमें डाल रखीं हैं। उनको आप हटा दीजिये। गीता में जितनी सही बात है, वो मान लीजिये।