स्वार्थ का मतलब होता है- केवल अपने लाभ की बात सोचना, दूसरों के लाभ और भले की बात नहीं सोचना। इसको बोलते हैं ‘स्वार्थ’। यह मोटी सी परिभाषा है। पहला उदाहरण- खाने का नंबर आया, तो मुझे खाना मिलना चाहिये, दूसरों को मिले या न मिले, उसकी परवाह नहीं है। यह स्वार्थ की बात है। सोने की बारी आयी, मेरा बिस्तर बढ़िया होना चाहिये, मेरी जगह साफ-सुथरी, पंखे के नीचे होनी चाहिये, दूसरे को पंखे की हवा मिले या न मिले, मुझे कोई मतलब नहीं। यह स्वार्थ की बात है। धंधे व्यापार के क्षेत्र में- मेरी दुकान चलनी चाहिये, दूसरे की चले न चले। यह स्वार्थ की बात है। तो ऐसे आप कितने ही उदाहरण बनाते जायें। खाने में, पीने में, घूमने में, सोने में, जागने में, सुविधा में, बिस्तर में, कपड़ों में। जब केवल व्यक्ति अपने ही मतलब की बात सोचता है, अपने ही लाभ की बात सोचता है, दूसरों के लाभ और भले लिये कुछ नहीं सोचता, तो इसको स्वार्थ कहते हैं। जब व्यक्ति अपने लिये और दूसरों के लिये, यानी दोनों के लिये सोचता है, औरों को भी मिले, मुझे भी मिले, तो वो ठीक बात है, वो स्वार्थ की बात नहीं है, वो परोपकार की बात है। मेरा भी काम चले, दूसरों का भी चले। मैं पढूँ, दूसरे भी पढ़ें। मैं भी सुखी रहूँ, दूसरे भी सुखी रहें। मुझे भी खाने को मिले, दूसरों को भी मिले। मुझे भी सोने की जगह मिले, दूसरों को भी मिले। मैं भी दुःख से छूटूँ, दूसरा भी छूटे। ऐसे सोचना चाहिये।