वस्तुतः चाहे स्थूल इच्छाएँ हों, चाहे सूक्ष्म इच्छाएँ, दोनों के पीछे एक मनोविज्ञान (साइकोलॉजी) है। पहले यह जानिए कि इच्छा की उत्पत्ति क्यों होती है? उस साइकोलॉजी को पकड़िए, फिर उत्तर समझ में आएगाः-
स दरअसल, जहाँ हमको सुख दिखता है, जिस वस्तु में हमको सुख प्रतीत होता है, जहाँ हमको सुख मिला है या भविष्य में सुख मिलने की आशा है, वहाँ उस-उस वस्तु को प्राप्त करने की हमारी इच्छा होती है।
स अगला प्रश्न उठता है कि, इच्छा से छूटें कैसे? उत्तर है – इससे उल्टा काम करो। जहाँ-जहाँ सुख दिखता है, वहाँ-वहाँ दुःख देखना शुरु करो। जब दुःख देखना शुरु करेंगे, तो इच्छा स्वतः खत्म हो जाएगी। कैसे? जैसे कि एक व्यक्ति ने सोचा किः-
”बढ़िया आठ लाख की होंडा-सिटी कार खरीदेंगे। एयरकंडीशन कार है, बढ़िया चमकदार है। ठाठ से जाएंगे। लोग भी वाह-वाह करेंगे कि- देखो साहब, इसके पास बढ़िया गाड़ी है। प्रशंसा भी होगी, कार का सुख भी मिलेगा, धूप में, गर्मी में नहीं मरना पड़ेगा, बस में धक्का नहीं खाना पड़ेगा, आराम से जाएंगे।”
कार में सुख देखकर उसने कार खरीद ली। जब कार खरीद ली, तो फिर आया दुःख। क्या दुःख आया?
जब वो हाइवे पर चल रहा था, तो उसको टेंशन हो गई, पीछे से एक ट्रक ड्राइवर बेहिसाब ट्रक चला रहा है, वो कहीं पीछे से कार को ठोंकेगा तो नहीं? उसको हर समय डर लगता है। कोई दांई ओर से ठोंकेगा, कोई बायीं ओर से ठोंकेगा, कोई पीछे से ठोंकेगा, कोई आगे से। क्योंकि इनका कोई भरोसा नहीं, सब आजकल बेहिसाब गाड़ी चलाते हैं।
फिर कार पार्किंग में खड़ी कर दी। और गए शॉपिंग-मॉल में सामान खरीदने। तब यह डर लगता है कि पीछे से कार चोरी न हो जाए। फिर कहीं पार्क के पास खड़ी कर दी। और गार्डन में सैर करने गए, तो तीसरा डर यूँ लगता है कि वो छोटे-छोटे बच्चे आए हैं, वो कार पर लकीर (स्क्रेच) न मार दें। वे इतनी बढ़िया कार की हालत बिगाड़ देंगे।
शरारती बच्चों को समझ तो है नहीं, वे तो अपना खेल समझते हैं। वे यह थोड़ी जानते हैं कि गाड़ी आठ लाख की है, इसमें लकीर नहीं मारनी चाहिए। जैसे वे दीवार पर लकीर मारते हैं, वैसे कार पर भी मार देंगे।
फिर उसके पड़ोस में एक मित्र के परिवार में, उसके बेटे की शादी थी। एक और टेंशन आ गई। मित्र के घर में शादी है। यह मित्र तीन-चार दिन के लिए कार उधार माँगने आएगा। अब बोलिए, कार में सुख दिख रहा है, कि दुःख दिख रहा है? दुःख दिखाई दिया न। बस ऐसे ही दुःख देखना शुरु करो, तो आपकी कार खरीदने की इच्छा खत्म हो जाएगी। इसलिए अगर आप मिश्रित दुःख-सुख भोगना नहीं चाहते, तो कार की इच्छा छोड़ दो।
स आपके सामने कुल तीन विकल्प (ऑप्शन) हैंः-
पहला है – केवल ‘सुख’ मिलना चाहिए।
दूसरा है – केवल ‘दुःख’ मिलना चाहिए।
तीसरा है – ‘सुख और दुःख’ दोनों मिश्रित होने चाहिए।
बताइए, तीन में से कौन सा विकल्प आपको स्वीकार है ? पहले वाला, केवल सुख। तो कार में केवल सुख मिलता है क्या? नहीं मिलता न। या तो दुःख मिलेगा या फिर सुख-दुःख दोनों मिश्रित (मिक्स) मिलेंगे।
एक बार मैंने भी कार खरीदी थी और दो साल कार चलाई। यह सारा दुःख मेरी समझ में आ गया। मैंने कहा-‘निकालो इसको, यह ‘कार’ नहीं ‘बेकार’ है।’ निकाल दी। अब मैं सुखी हो गया हूँ। अब कार नहीं है, खूब शाँति और आराम से जी रहा हूँ।
स कार वाला बनने में सुख तो है, पर उसके साथ भीषण दुःख भी है। मैं मना थोड़ी कर रहा हूँ। मैं सिर्फ बता देता हूँ कि कार खरीदोगे, तो ये दुःख भी आएँगे। जिसको दुःख भोगना हो वह कार खरीद ले। और जिसको दुःख से छूटना हो, वो कार छोड़ दे। मुझे छूटना था, मैंने कार छोड़ दी। अब मैं सुखी हो गया।
स मैं जहाँ जाता हूँ, वहीं कार मिल जाती है। बोलो, क्या घाटा है ? आपके पास तो घर में दो कारें होगी, तीन कारें होंगी। मेरे पास तो एक हजार कारें हैं। जिस नगर में जाता हूँ, वहीं सामने छह कारें खड़ी रहती हैं। एक व्यक्ति कहता है-आप मेरी गाड़ी में बैठो, दूसरा कहता है-मेरी गाड़ी में बैठो। अब आप ही बताओ, मुझे क्या कमी है? फिर मैं क्यों कार खरीदूँ। समझ में आई बात।
स आप सोचते होंगे – हम भी ऐसा ही कर लेंगे। अगर ऐसा करना है, तो मेरी तरह ‘संन्यासी’ बनना पड़ेगा। यह घर-बार छोड़ना पड़ेगा, वैराग्य उत्पन्ना करना पड़ेगा, तपस्या करनी पड़ेगी। इतनी सारी कारें ऐसे ही नहीं मिलती हैं।
स इच्छाओं को इस तरह से जितना हो सके, कम करें। संसार में सुख नहीं, दुःख देखें। केवल मोक्ष में, ईश्वर में सुख देखें। इसके अलावा इच्छाओं से छूटने का और कोई तरीका नहीं है।