हम जो विचार उठाते हैं, वे या तो ‘सूक्ष्म-इच्छाओं’ से उठाते हैं या ‘स्थूल- इच्छाओं’ से उठाते हैं।
स अब प्रश्न उठता है, कि सूक्ष्म-इच्छाओं से क्या तात्पर्य है? सूक्ष्म इच्छाओं से तात्पर्य है कि- आपने मन में कोई इच्छा रखी हुई है, लेकिन वो आज आपको समझ में नहीं आ रही है, दस साल के बाद में समझ में आएगी। जिस इच्छा से आपने मुम्बई चौपाटी की स्मृति उठाई थी, या जिस इच्छा से आपने दिल्ली का चिड़ियाघर याद किया था, वो है- ‘सूक्ष्म इच्छा’। जो आज समझ में नहीं आ रही। लेकिन जब व्यक्ति लंबा अभ्यास करेगा, तो उसको धीरे-धीरे पकड़ में आएगा कि हाँ, ये छोटी-छोटी सूक्ष्म इच्छाएं भी मैं ही उठाता हूँ। वो बहुत हल्की इच्छाएं होती हैं, जो पहले-पहले समझ में नहीं आती, बाद में समझ आती हैं। एक मोटा उदाहरण देता हूँ –
आपने बचपन में जब पहली-पहली बार साईकिल चलाना सीखा, तो सिखाने वाले व्यक्ति ने आपको साईकिल पर बैठा दिया, हाथ में हैंडल पकड़ा दिया और कहा कि- देखो, नजर सामने रखना, पाँव की तरफ नहीं देखना, पैडल मारते जाना और हैंडल सीधा रखना, टेढ़ा नहीं करना, नहीं तो साइकिल गिर जाएगी। ऐसे-ऐसे उसने आपको संकेत बताये, दिशा-निर्देश दिए और आपको साईकिल पर बैठाकर धक्का मार दिया और कहा- चलाओ। उसने धक्का मारा तो आपने भी दो-चार पैडल मारे। चूंकि पहला दिन था, अभ्यास तो था नहीं। इसलिये आपने वही गलती की, जो उसने मना की थी। उसने कहा था कि- सड़क पर देखना और आपने पैडल की तरफ देखा। उसने कहा था, कि हैंडल सीधा रखना और आपने हैंडल टेढ़ा कर दिया। फिर क्या हुआ? गिर गए। जब गिर गए तो सिखाने वाले ने पूछा- तुमने साईकिल क्यों गिराई? पहले दिन व्यक्ति यही कहता है कि- साहब! मैंने साईकिल बिल्कुल नहीं गिराई, यह अपने आप गिरी है। छह महीना अभ्यास करने के बाद वो नहीं कहता है कि यह साईकिल अपने आप गिरती है। उसको छह महीने बाद उसको समझ में आता है, कि पहले दिन भी जो साईकिल गिरी थी, तो मैंने ही गिराई थी। यह अपने आप नहीं गिरती। अब छह महीने में अभ्यास हो गया। अब क्यों नहीं गिरती? क्योंकि अब मेरी प्रैक्टिस हो गई है, अब मैंने संभालना सीख लिया है। पहले नहीं संभाल सकता था, योग्यता नहीं थी, शक्ति नहीं थी, सामर्थ्य नहीं था, ज्ञान-विज्ञान नहीं था। जैसे साईकिल चलाने वाले को पहले दिन नहीं समझ में आता, छह महीने बाद समझ में आता है। ठीक इसी तरह से आज आपकी योग्यता कम है। आज आप मन में जो विचार उठाते हैं, वो जिन सूक्ष्म इच्छाओं से उठाते हैं, वो सूक्ष्म इच्छाएं आप आज नहीं पकड़ सकते। आज उन्हें पकड़ने की योग्यता नहीं है। दस साल, पन्द्रह साल मेहनत करेंगे और पकड़ने की कोशिश करेंगे, कि मन में कौन सा विचार उठ रहा है। तब जाकर उसको अच्छी तरह पकड़ेंगे। इस तरह धीरे-धीरे समझ में आएगा, कुल मिलाकर यह लंबे समय में समझ में आएगा कि जो भी विचार उठ रहा है, मैं ही उठा रहा हूँ।
स जो इच्छाएं आज आप नहीं पकड़ पा रहे हैं, वो हैं- ‘सूक्ष्म इच्छाएं’। और जो इच्छाएँ आप आज ही पकड़ पा रहे हैं, कि हाँ, यह विचार मैंने उठाया, वो है- ‘स्थूल इच्छा’। उस स्थूल इच्छा के कारण आपने उस विचार को उठाया। मान लीजिये, आप प्रतिदिन शाम को 6 बजे ध्यान में बैठते हैं। एक दिन दोपहर 3 बजे एक विशेष व्यक्ति ने आपको फोन से कहा- ‘मैं आज रात को 8 बजे आपसे मिलने आऊँगा। उस दिन शाम को 6 बजे आप ध्यान में उस व्यक्ति के स्वागत की तैयारियाँ करेंगे, कि उसे बिठाना है, क्या खिलाना है, क्या बातें करनी हैं। उस दिन रात को आठ बजे जो व्यक्ति मिलने आयेगा, उसके लिए शाम को छह बजे ध्यान में आपने जो स्वागत की तैयारियाँ की हैं, वह आपकी स्थूल इच्छा थी, उसके कारण आपने सब तैयारी की। तो इस तरह से इच्छायें, ‘सूक्ष्म-इच्छाएं’ और ‘स्थूल-इच्छाएं’ दोनों तरह की होती हैं।