सारे लोग हमारी इच्छा के अनुकूल व्यवहार करें, क्या ऐसा हो सकता है?

बिल्कुल नहीं हो सकता। कारण यह किः-
स हर एक का अपना-अपना स्वभाव है। हर एक की बु़(ि दूसरे से अलग है, हर एक के विचार अलग हैं, हर एक के संस्कार अलग हैं, हर एक का ज्ञान-विज्ञान का स्तर अलग है। किन्हीं दो व्यक्तियों के विचार सौ प्रतिशत एक समान नहीं हो सकते। उसमें दो, पाँच, दस, पंद्रह, बीस, पच्चीस प्रतिशत यानि कुछ न कुछ तो अंतर रहेगा ही।
स जिस व्यक्ति के साथ व्यवहार कर रहें हैं, उसके सिर में आपका दिमाग नहीं रखा है, तो फिर वह आपकी इच्छा के अनुकूल व्यवहार कैसे करेगा? उसके सिर में उसका दिमाग है, इसलिए वह अपने ढंग से व्यवहार करेगा और आपके सिर में आपका दिमाग है, इसलिए आप अपने ढंग में व्यवहार करेंगे। जिसकी जितनी बु(ि, उतना ही तो वह करेगा।
हाँ, अगर ऐसा हो जाए कि आपकी बु(ि उसके दिमाग में फिट कर दी जाए, फिर तो जैसा आप चाहते हैं, वैसा व्यवहार भी वह कर ले, लेकिन ऐसा तो हो नहीं सकता।
स चाहे कहीं भी रहो, परस्पर विचार-भिन्नाता और लड़ाई, झगड़े होंगे। घर-परिवार में राग-द्वेष, अविद्या अधिक होती है। इसलिए वहाँ कलह ज्यादा होती है।
एक आदमी घर में पंद्रह साल रहा। जहाँ-जहाँ विचारों में टकराव आता था, वहाँ-वहाँ उसने समझाने का प्रयास किया लेकिन वो नहीं सुधरे। घर में रहते हुए समाधान नहीं मिल पाया, इसलिए उसने थोड़ा विचार किया कि – ”भई, घर की स्थिति देखते-देखते चार-पाँच साल हो गए। वो अब सुधरने वाली नहीं है। इसलिए वहाँ रहने से कोई लाभ नहीं है। चलो, आश्रम चलतें हैं।” आश्रम में वे नई स्थिति में आ गए, नए लोगों के बीच में आ गए। जब वे इनसे थोड़ा व्यवहार करेंगे, तब झगड़ा तो यहाँ भी होगा, लेकिन थोड़ा कम होगा। क्योंकि साथ रहने वाले मनुष्य ही तो हैं। और सारे मनुष्यों में कुछ न कुछ अविद्या तो अभी बची हुई है। अगर अविद्या खत्म हो गई होती तो इस संसार में जन्म नहीं होता, तब मोक्ष ही मिल जाता। अविद्या अभी बाकी है तो राग-द्वेष भी होंगे ही।
अब चाहे दूसरे नगर में जाओ, गाँव में जाओ, जंगल में जाओ, जिन भी व्यक्तियों के साथ रहेंगे,उनमें थोड़ा बहुत राग-द्वेष तो रहेगा ही। अंतर इतना ही है कि घर में ज्यादा अविद्या, राग-द्वेष और झगड़ा था, आश्रम में रहने आ गए तो थोड़े कम अविद्या, राग-द्वेष वाले लोग मिले तो, कम झगड़ा हुआ। यहाँ भी सहन (एडजस्टमेंट) नहीं किया तो लोगों से फिर तनातनी हो गई। फिर गुस्सा आ गया, तो फिर झगड़ा हो गया। अब व्यक्ति वहाँ भी नहीं टिकेगा।
स बहुत लोगों को घूमते देखा है हमने। घर छोड़े बीस साल हो गए, फिर भी बेचारे आज तक एक जगह से दूसरी जगह भटक ही रहें हैं। एक भी स्थाई जगह नहीं बन पाई। वे कहीं खाने की व्यवस्था में, कहीं प्रबंध व्यवस्था में, कहीं आचार्य के विषय में, कहीं शोर-शराबे के विषय में दोष निकालते रहते हैं। वे कहीं भी ‘एडजस्ट’ नहीं कर पाते। इसलिए मानकर के चलो, व्यक्ति कोई भी हो, वह कुछ न कुछ ऊँचा-नीचा व्यवहार तो करेगा ही।
स दो व्यक्तियों के विचारों में कुछ न कुछ अंतर रहेगा ही। दरअसल, उसी को तो हमें समझना है। जो इस अंतर को समझ लेता है, सहन कर लेता है, समायोजन कर लेता है, वो सुखी है, सफल है, उसका जीवन ठीक है, वह आगे बढ़ जाएगा, उन्नाति कर पाएगा। इस अन्तर को हमें सहन करना है, वस्तुतः यही ‘तपस्या’ है। इससे व्यक्ति की गाड़ी चल निकलेगी।
स प्रतिकूलता को सहन नहीं करना टकराव पैदा करेगा, झगड़े पैदा करेगा। तो वो उन्हीं झगड़ों में उलझकर के रह जाएगा, आगे नहीं बढ़ पाएगा। उसकी वास्तविक उन्नाति नहीं हो पाएगी। अपने विचारों का समायोजन (एडजस्टमेंट) झगड़े से बचने का मुख्य उपाय है।

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