सत्यासत्यविवेक की भूमिका

सत्यासत्यविवेक की भूमिका

यह शास्त्रार्थ श्री गोविन्दराम हासानन्द नई सड़क दिल्ली ने पं० लेखराम

कृत महर्षि जीवनचरित्र से भाषा में अनुवाद कराके दयानन्द ग्रन्थसंग्रह में छापा

था । उसी के अनुसार यह छापा गया है । इस शास्त्रार्थ सम्बन्धी उस के

सम्पादकीय में से निम्न लेख भी उपयोगी समझकर नीचे दिया जाता है ।

महर्षि दयानन्द सरस्वती और पादरी टी०जी० स्काट साहेब के मध्य

तीन दिन तक बरेली नगरी में जो लिखित शास्त्रार्थ हुआ था, उस का विवरण

धर्मवीर श्री पण्डित लेखराम जी आर्य मुसाफिर कृत महर्षि के बृहद् उर्दू

जीवनचरित्र में, पृष्ठ ४४१ से ४६३ तक मुद्रित हुआ है । महर्षि दयानन्द १४

अगस्त, सन् १८७९ ई० तदनुसार भाद्रपद कृष्णा १२, संवत् १९३६ वि० को

बरेली पधारे थे और बेगम बाग में श्री लाला लक्ष्मीनारायण जी खजांची की

कोठी में उन्होंने निवास किया था ।

प्रथम कई दिन तक महर्षि के उपदेश होते रहे, जिन में जनता बहुत

अधिक संख्या में उपस्थित होती थी । नगर के बड़े राज्याधिकारी कलक्टर

आदि तथा अंग्रेज एवं पादरी आदि और नगर के प्रतिष्ठित सज्जन भी बड़े

प्रेम और उत्साह से उपस्थित होते थे । इस प्रकार कई दिन तक बड़ा आनन्द

रहा और जनता उपदेशामृत पान करके लाभ उठाती रही ।

उन दिनों महर्षि के पूर्व परिचित और भक्त सुप्रसिद्ध पादरी टी०जी०

स्काट साहेब का निवास भी बरेली में ही था। महर्षि के व्याख्यानों में

स्काटसाहेब भी बड़े उत्साह से पधारा करते थे । महर्षि के जीवनचरित्र के

प्रसंगों में स्काट साहेब का उल्लेख पाया जाता है । मेला चांदापुर में भी श्री

स्काट महोदय ने ईसाई मत के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया था । ये पादरी

साहेब अमेरिका के रहने वाले थे और ईसाई मत का प्रचार करने के लिए

भारत में पधारे थे । ये ईसाइयों के प्रोटेस्टेंट सम्प्रदाय के अनुयायी, सुयोग्य

विद्वान्, मधुरभाषी और व्यवहारकुशल विद्वान् थे । महर्षि के ये बहुत प्रेमी

थे, और महर्षि ने तो इन का नाम ही भक्त स्काट रख दिया था ।

कुछ लोगों ने विचार किया कि महर्षि दयानन्द और पादरी स्काट साहेब

का परस्पर शास्त्रार्थ कराया जाये । महर्षि दयानन्द और पादरी साहेब ने भी

इस प्रस्ताव को उत्तम समझा और सहर्ष स्वीकार कर लिया । तदनुसार

आवश्यक नियम आदि निर्धारित किये गये और तीन दिन तक लिखित रूप

में यह शास्त्रार्थ आनन्दपूर्वक होता रहा । समाप्ति के कुछ ही दिन पश्चात्

इस शास्त्रार्थ का विवरण उर्दू भाषा में पुस्तकाकार में छपवाकर प्रसारित किया

गया था ।

धर्मवीर श्री पण्डित लेखराम जी ने अपने ग्रन्थ में जो विवरण बरेली

शास्त्रार्थ का प्रस्तुत किया है, वह सब ज्यों का त्यों उसी प्रति के अनुसार

प्रतीत होता है, जो कि शास्त्रार्थ के अन्त में प्रकाशित की गई थी । उस प्रति

का आरम्भिक निवेदन श्री पण्डित लेखराम जी के ग्रन्थ में पृष्ठ ४४२ पर

इस प्रकार मुद्रित हुआ है

विदित हो कि यह लिखित शास्त्रार्थ बड़े आनन्द के साथ जैसा कि

प्रायः सुसभ्य, सुयोग्य और विद्वान् पुरुषों में हुआ करता है, और जैसा कि

वास्तव में होना भी चाहिए, स्वामी दयानन्द सरस्वती जी और पादरी टी०जी०

स्काट साहेब के मध्य राजकीय पुस्तकालय बरेली· में तीन दिन तक ता०

२५, २६, और २७ अगस्त, सन् १८७९ ई० को लाला लक्ष्मीनारायण साहेब

खजांची रईस बरेली की अध्यक्षता में हुआ ।

अन्य नियमों के साथ ही इस शास्त्रार्थ के मुख्य नियम इस प्रकार थे

ट्टट्टशास्त्रार्थ लिखित होगा । तीन लेखकएक स्वामी जी की तरफ दूसरा

पादरी साहेब की तरफ और तीसरा अध्यक्ष महोदय की तरफ बैठकर शास्त्रार्थ

के प्रत्येक शब्द को सावधानी के साथ ज्यों का त्यों लिखते जावेंगे । जिस

समय एक विद्वान् निश्चित समय के अन्दर अपना कथन समाप्त कर चुके

तो उसका लिखा हुआ वक्तव्य सभा में उपस्थित पुरुषों को सुना दिया जावे

और तीनों प्रतियों पर हस्ताक्षर भी कराये जावें । और जब शास्त्रार्थ समाप्त

हो तो उस पर अध्यक्ष महोदय के हस्ताक्षर भी कराये जावें । इन तीनों प्रतियों

में से एक स्वामी जी के पास, दूसरी पादरी साहेब के पास और तीसरी अध्यक्ष

महोदय के पास प्रमाण स्वरूप रहे, जिससे कि बाद में भी उनमें किसी प्रकार

की घटा—बढ़ी न हो सके ।’’

पृष्ठ ४४३ पर फिर प्रार्थना के रूप में लेख है

ट्टट्टहम इस शास्त्रार्थ को अक्षरशः मूल के कि जिस पर स्वामी जी और

पादरी साहेब के हस्ताक्षर हैं, के अनुसार करके और स्वामी जी के आदेशानुसार

तैयार करके इस को छापेखाने में छपवाते हैं । इस में किसी अक्षर का भी

परिवर्तन नहीं किया है । इसको शुद्ध रूप में प्रस्तुत करने के लिए यहां तक

सावधानता रखी गई है कि जहां जिस विद्वान् के हस्ताक्षर थे, वहां हस्ताक्षर

का शब्द लिखकर उसी का नाम लिख दिया है । पाठक दोनों विद्वानों के

लेखों अथवा वक्तव्यों को सत्यासत्य विवेचक दृष्टि से देखें और किसी प्रकार

के पक्षपात को पास न आने दें, जिस से कि सत्य और असत्य का प्रकाश

भली प्रकार हो जावे । कुछ सज्जनों का कथन है कि इन शास्त्रार्थों के अन्त

में निर्णय भी निकाल देना चाहिए । परन्तु हम ने अपनी सम्मति प्रकाशित

करना उचित नहीं समझा । निर्णय करने का काम पाठकों की सत्यता प्रेमी

· जहां आजकल म्युनिसिपल बोर्ड बरेली का दफ्तर है, पहले यहां पर ही

यह पुस्तकालय था, जिस में यह शास्त्रार्थ हुआ था । सम्पादक

बुद्धि पर ही छोड़ा जाता है ।’’

इस भूमिका और प्रार्थना आदि की शब्द—रचना से ज्ञात होता है कि

यह लेख श्री लाला लक्ष्मीनारायण जी, जो कि अध्यक्ष थे, की ओर से ही

है, और उन्होंने ही इस विवरण को सर्वप्रथम प्रकाशित किया था ।

इस पुस्तक के विषय में धर्मवीर श्री पं० लेखराम जी आर्य मुसाफिर

कृत महर्षि के बृहद् जीवनचरित्र में पृष्ठ ७९८ पर लिखा है

बड़ी सावधानी के साथ प्रथम बार मास सितम्बर, सन् १८७९ ई० में

आर्य भूषण यन्त्रालय शाहजहांपुर में मुद्रित हुआ । और दोबारा आर्य दर्पण

प्रेस शाहजहांपुर में और चौथी और पांचवीं बार उर्दू व हिन्दी में लाहौर में

मुद्रित हुआ ।’’

प्रस्तुत पुस्तक के रूप में हम ट्टट्टसत्यासत्यविवेक’’ का हिन्दी अनुवाद

जनता की सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं । हमने इसे धर्मवीर पं० लेखराम जी

के ग्रन्थ के आधार पर ही तैयार किया है । और अनुवाद—कार्य में इस बात

का पूर्ण ध्यान रखा है कि दोनों पक्ष के विद्वानों के भाव पूर्णतया यथावत्

रूप में प्रकाशित हों । सम्पादक

शास्त्रार्थ—बरेली

सत्यासत्यविवेक

ता० २५ अगस्त, सन् १८७९ ई०