योग दर्शन के इस सूत्र में आए जाति, आयु और भोग के बारे मैं थोड़ा सा संक्षिप्त वर्णन कर देता हूँः-
(1) जाति का मतलब है – शरीर। मनुष्य का शरीर, गाय का शरीर, घोड़े, कुत्ते, बिल्ली, हाथी, बंदर, मच्छर, मक्खी, सुअर आदि किसी का भी शरीर, यह है जाति।
स जाति एक बार जन्म से मिल गयी, तो मृत्युपर्यंत वो बीच में नहीं बदलती। जाति तो निश्चित है। भगवान ने हमारे कर्मानुसार हमको जन्म से जो जाति दे दी, वो जीवन भर रहेगी।
‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’ में स्वामी दयानंद जी ने जाति की परिभाषा लिखी है। जो जन्म से मरणपर्यंत बदलती नहीं, उसको जाति कहते हैं। मनुष्य का शरीर मिला, तो पूरे जीवन भर जीते जी मनुष्य ही रहेगा, बीच में उसको तोड़-मरोड़कर कुत्ता, बिल्ली नहीं बना सकते।
स अगले जन्म में जाति (शरीर) बदल सकती है। बीच में जाति नहीं बदलेगी। आयु और भोग अवश्य बदल सकते हैं।
(2) आयु का मतलब – जीने का समय, जीने का काल।
स कर्मानुसार ईश्वर आयु देता है। पहले लोग अच्छे काम करते थे, खान-पान ठीक था, व्यायाम भी ठीक था, ब्रह्मचर्य का पालन भी करते थे, दिनचर्या का पालन भी करते थे, आदि आदि। लोग आयु बढ़ाने वाले कर्मों का आचरण करते थे तो भगवान सौ वर्ष की आयु देकर भेजता था। अब वो सारा कुछ बदल गया। खान-पान बिगड़ गया, जलवायु बिगड़ गई, दिनचर्या बिगड़ गई, ब्रह्मचर्य का पालन भी नहीं रहा और भी कई चीजें बिगड़ गईं। इसलिए भगवान अब सौ वर्ष की आयु देकर नहीं भेजता।
भगवान किसी-किसी को सौ वर्ष की आयु देता है। जिसके जैसे कर्म होते हैं, उसको वैसी आयु देता है, कम भी देकर भेजता है। जैसा शरीर होगा, उसी के अनुसार आयु मिलेगी। मनुष्य शरीर मिला, तो मनुष्य शरीर में जितनी क्षमता है, उतनी आयु मिल जाएगी।
स आयु भी हर एक व्यक्ति की अलग-अलग है। किसी का शरीर मजबूत है, तो वो अस्सी साल तक जीएगा। किसी का शरीर कमजोर है, वो सत्तर साल जीएगा। किसी का और कमजोर है, तो उसका साठ में ही शांतिपाठ हो जाएगा।
स एक तो जन्म से आयु प्राप्त हुई। जन्म से जैसा, जितना बलवान शरीर मिला। यह तो है, पिछले जन्म के कर्मों का फल। मान लीजिए, किसी व्यक्ति को जन्म से ऐसा शरीर मिला कि यदि कोई दुर्घटना न होए, और ठीक-ठाक सामान्य रूप से जीता रहे, तो उसमें इतनी ताकत है कि वह सत्तर साल तक जी सकता है। तो यह आयु तो पिछले कर्मों से उसको मिली।
स भगवान जितनी आयु देकर भेजता है, उसकी भी गारंटी नहीं है, कि व्यक्ति उतने दिन जी ही लेगा। व्यक्ति तब जी सकता है, जबकि वह दुर्घटनाओं से बचता रहे। एक्सीडेंट होता है, मर जाते हैं। पैदा होते ही मरते हैं, दो साल के भी मरते हैं। उनकी सुरक्षा-देखभाल ठीक से नहीं हो पायी। इंफेक्शन हो गया, मर गए।
स कोई अच्छी तरह व्यायाम करके शरीर को बलवान बना लेगा, तो आयु बढ़ भी सकती है। अब अगर वह नया व्यायाम करके, पुरुषार्थ करके, ब्रह्मचर्य का पालन करके, ठीक खान-पान रखकर के, रोगों से बचता रहा, दुर्घटनाओं से बचता रहा, तो उसकी आयु दस-बीस वर्ष और बढ़ सकती है। सत्तर की थी, लेकिन वो नब्बे तक जी लिया। जो बीस वर्ष आयु बढ़ गई, यह इस जीवन के नए कर्मों का फल है।
स इसी प्रकार से नए कर्मों से आयु को घटाया भी जा सकता है। कोई शराब पीने लगा, माँस अंडे खाने लगा, नशा करने लगा तो सत्तर से पचास में ही पूरा हो जाएगा। और अगर दुर्घटना हो गई, तो कभी भी मर सकता है।
एक की भूल के कारण दूसरे को नुकसान होता है। हम सड़क पर ठीक-ठाक चलते हैं। पीछे से ट्रक, कार वाला आकर के हमको ठोंकता है। उसकी गलती से हमको नुकसान होता है। ऐसे ही डॉक्टर की भूल से, नर्स की भूल से, मां-बाप की भूल से, बच्चे को नुकसान हो सकता है। उसकी मृत्यु हो सकती है, हाथ-पाँव, टेढ़े-मेढ़े हो सकते हैं, कुछ भी हो सकता है। विमान दुर्घटना में मारा गया, कुँए में कूद गया, उसने बिजली का तार पकड़ लिया, जहर पी लिया, कहीं ट्रेन की दुर्घटना में मारा गया, कुछ भी हो सकता है। दुर्घटनाओं के कारण आयु कभी भी नष्ट हो सकती है। और यदि दुर्घटनाएं नहीं हुईं, तो अपने नये कर्मों से आयु को घटाया-बढ़ाया जा सकता है। यह हो गई आयु की बात।
(3) अब तीसरी बात है-भोग। भोग का अर्थ होता है – ‘सेवन करने योग्य पदार्थ’, सुख-दुःख को भोगने के साधन। जैसे -धन-संपत्ति, मकान, मोटर-गाड़ी, अन्न, वस्त्र, सोना-चाँदी फ्रिज, टी.वी., रेडियो इत्यादि। ये जितने सुख-दुःख भोगने के साधन हैं, इनका नाम है – भोग।
स भोग भी इसी प्रकार से घटाया-बढ़ाया जा सकता है। मान लीजिए, एक व्यक्ति के पिछले कर्म बहुत अच्छे नहीं थे, इसलिए जन्म से उसको सामान्य गरीब परिवार में जन्म मिला। पाँच साल की उम्र तक जो घर की सामान्य सुविधाएं थी, उतनी ही मिलीं। अधिक अच्छा खानपान, अधिक अच्छे वस्त्र, अधिक सुविधा नहीं मिली। पाँच साल की उम्र में वह व्यक्ति स्कूल में पढ़ने के लिए गया। पढ़-लिखकर उसने खूब पुरुषार्थ किया। बु(िमान हो गया, एम.ए., पी.एच.डी हो गया। आगे चलकर उसको नौकरी भी मिल गयी। उसको अच्छा वेतन मिलने लगा। उसने खूब धन कमा लिया। धीरे-धीरे उसने अपना मकान भी अच्छा बना लिया। फिर धीरे-धीरे और अच्छा कमाकर के मोटरकार भी खरीद ली। ऐसे उसने भोग के साधन बढ़ा लिए।
गरीब आदमी मेहनत करके नए पुरुषार्थ से भोग के साधन बढ़ा सकता है, उसमें वृ(ि और परिवर्तन कर सकता है।
स इसके विपरीत भी हो सकता है। किसी बच्चे के पिछले जन्म के कर्म अच्छे थे। उसको सेठ के घर जन्म मिला। जन्म से उसको खाने-पीने, भोगने की बढ़िया सुविधाएं मिलीं। लेकिन आगे जब वो विद्यार्थी बनकर स्कूल में पढ़ने गया, तब उसने मेहनत नहीं की, पुरुषार्थ नहीं किया, बु(ि का विकास नहीं किया। जो जन्म से प्राप्त घर की संपत्ति थी, वो भी शराब पीने में, इधर-उधर यार-दोस्तों के साथ घूमने-फिरने में, मौज-मस्ती में नष्ट कर दी।
बु(ि का विकास किया नहीं, तो वो धीरे-धीरे नीचे आ जाएगा। जो संपत्ति पास में थी, वो भी खो बैठेगा।
इस प्रकार से “सुख-दुःख को भोगने के साधन”, भोग कहलाते हैं। वो घटाए जा सकते हैं, बढ़ाए जा सकते हैं। इन साधनों को कोई छीन के भी ले जा सकता है, और कभी-कभी कोई दे भी सकता है।