आपने सूत्र पढ़ा होगा : -इन्द्रिय दोषात् संस्कार दोषाच्चाविद्या। वैशेषिक. इन्द्रिय दोष का अर्थ है-इन्द्रियों में टूट-फूट, खराबी। आँख बिगड़ गई, आईसाइट कमजोर हो गई या आँख में कलर ब्लाइंडनेस (रंग ठीक न दिखना या रात को न दीखना( आदि कोई रोग हो गया, तो कलर नहीं पहचान पाते, रंगों में अन्तर नहीं समझ में आता। यह इन्द्रिय दोष है।
स संस्कार दोष यह है कि इन्द्रिय बिल्कुल ठीक है, पर वो संस्कार यानी आदत ऐसी पड़ी हुई है, कि इन्द्रिय से ठीक दिखते हुए भी हम आदत के वशीभूत होकर फिर वही गलती कर बैठते हैं। जैसे- चाय पीने की आदत पड़ गई। चाय पीते हैं, सुख मिलता है, फिर दोबारा पीते हैं, सुख मिलता है, फिर तीसरी बार पीते हैं, सुख मिलता है। सैकड़ों बार चाय पी-पीकर उसका जो सुख ले लिया, उससे मन के ऊपर जो छाप लगी कि चाय बहुत अच्छी थी, चाय पीने में बहुत मजा आता है, बढ़िया कड़क चाय होनी चाहिए । तो यह हो गया संस्कार।
स जब हम रोज चाय पीते हैं और एक दिन शिविर में आये तो यहाँ पर चाय नहीं मिली। अब आपको बड़ी बेचैनी होगी, कष्ट होगा। सोचेंगेः- क्या बात है, आज चाय नहीं मिली, क्या जंगल में फंस गए भई, इससे तो घर में ही अच्छे थे। अब यह दुःख हो रहा है न, यह संस्कार के कारण ही हो रहा है। इसका नाम है-संस्कार दुःख। वो चीज नहीं मिल पाई, तो उसके जो संस्कार पड़े हुए थे, अब वो दुःख दे रहे हैं। इसका नाम संस्कार दुःख है।
स और आँख में टूट-फूट हो गई, कान में खराबी आ गई, सुनाई नहीं देता, उसके कारण अविद्या पैदा हो गई, तो यह इन्द्रिय दोष के कारण अविद्या हुई। आदत के कारण चाय नहीं मिल रही है और फिर मन में अविद्या पैदा हो रही है, कि ‘चाय बहुत अच्छी (सुखदायक( है, चाय देते नहीं, ये लोग बड़े खराब है।’ अब ये जो अविद्या पैदा हो रही है, यह संस्कार दोष से हो रही है। यह दोनों में अंतर है।