(शाहपुरा में रामस्नेहियों से प्रश्नोत्तरमार्च, १८८२)

शाहपुरा में रामस्नेहियों का एक मेला था । उस में व्यावर के कुछ

रामस्नेही वैश्य आए हुए थे । एक दिन वे महाराज का व्याख्यान सुनने के

लिए आए । उस समय तक व्याख्यान आरम्भ नहीं हुआ था, वे महाराज को

राम—राम करके बैठ गये । महाराज ने उस का उत्तर ट्टनमस्ते’ शब्द से दिया।

थोड़ी देर बाद महाराज ने पूछा कि तुम लोग इतने दिन से राम—राम जपते

हो, इससे क्या लाभ है ? उन्होंने कहापहले नाम पीछे नामी, जैसे हम ने

पहले आप का नाम सुना और पीछे ढूंढते—ढूंढते आप को पा लिया। जैसे

पहले काशी कहते—कहते और पीछे ढूंढते—ढूंढते मनुष्य काशी पहुंच जाता

है। ऐसे ही राम—राम कहते—कहते मनुष्य पीछे राम को पा लेता है । महाराज

ने उत्तर दिया कि मैंने तो कभी पहले तुम्हारा नाम नहीं जपा, परन्तु फिर भी

मैंने तुम्हें अपने सम्मुख बैठे पा लिया । केवल नाम लेने से परमेश्वर नहीं

मिल सकता। उस के लिए साधन करना आवश्यक है । केवल लड्डू कहने

से ही लड्डू नहीं मिल सकता, उस के लिए उपयुक्त साधन करना होता

है। ये बातें हो ही रही थीं कि पांच छः वर्ष के बालक जो इन वैश्यों की

गोद में बैठे हुए थे, हठात् उठकर कहने लगे बाबा जी ! स्वामी जी सच

कहते हैं । लड्डू—लड्डू कहने से क्या लड्डू मिल सकते हैं ? यह सुनकर

सब लोग विस्मित हो गए । तब महाराज ने कहा कि ये बालक पक्षपाती

नहीं हैं, इन्होंने किसी के कहने से ऐसा नहीं कहा । अब इन बालकों की

सरलोक्तिपूर्ण मध्यस्थता से हमारे तुम्हारे शास्त्रार्थ की सुन्दर मीमांसा हो गई।

(देवेन्द्रनाथ २।३१९)