(पादरी गुल्बर्ट साहब से देहरादून में शास्त्रार्थअक्टूबर—नवम्बर, १८८०)
स्वामी जी ७ अक्टूबर, सन् १८८० से २० नवम्बर, १८८० तक देहरादून
ठहरे । इसी बीच में एक दिन एक पादरी साहब जिन का नाम गुल्बर्ट और
उपाधि मैक्मासर है, कुछ ईसाइयों के साथ शास्त्रार्थ के लिए आये । और
आते ही स्वामी जी से यह बातचीत आरम्भ की कि वेद के ईश्वरीय वचन
होने में तुम्हारे पास क्या युक्ति है ? चूंकि स्वामी जी उन के ढंग से समझ
गये थे कि यह सब छेड़छाड़ है, कुछ सत्य के निर्णय पर इस बातचीत का
आधार नहीं । इसलिए उनके प्रश्न के उत्तर में इस प्रकार कहाट्टट्टकि इञ्जील
के ईश्वरीय वचन होने का आप के पास क्या प्रमाण है ?’’
यह सुनकर पादरी साहब कहने लगे कि वाह ! पहले तो हमारा
प्रश्न है ।
उधर स्वामी जी ने कहा कि वाह ! मुझ को भी तो पहले उत्तर लेने
का ध्यान है । इस पर पादरी साहब उठकर चलने लगे । तब स्वामी जी ने
कहा कि पादरी साहब ! आप तो शास्त्रार्थ करने को आये थे, इतना शीघ्र
क्यों भागते हैं ?
पादरी साहब ने इस पर यह कहा कि जब आप उत्तर ही नहीं देते
तो फिर हम बैठकर क्या करें ? इस पर स्वामी जी ने कहा कि बहुत अच्छा
पहले मैं ही उत्तर दूंगा, परन्तु उसके पश्चात् इञ्जील के विषय में प्रश्न करूँगा
और आप से उत्तर लूंगा । इस पर भी पादरी साहब न जमे और उठकर भागने
को हुए । तब स्वामी जी ने कहा कि पादरी साहब ! आप पहले केवल एक
नहीं प्रत्युत दो—तीन प्रश्न कर लीजिये परन्तु उत्तर देने के पश्चात् मेरे आक्षेपों
को सुनिये परन्तु यह बात भी पादरी साहब को बुरी लगी और उठकर चलने
को उघत हुए । तब स्वामी जी ने यह कहा कि अच्छा पहले आप पांच प्रश्न
तक वेद पर कर लीजिये और जब उन के उत्तर मैं दे चुवूंQ फिर मुझ को
अपनी इञ्जील पर आक्षेप करने दीजिये परन्तु यह भी पादरी साहब को स्वीकार
न हुआ और पूर्ववत् डरते रहे । तब स्वामी जी ने कहा कि आप इञ्जील
पर आक्षेपों के होने से क्यों इतना घबराते हैं ? लीजिये पहले आप वेद पर
दस प्रश्न तक कर लीजिये और उत्तर सुनने के पश्चात् मुझ को इञ्जील पर
आक्षेप करने की आज्ञा दीजिये ताकि सुनने वालों को आनन्द आवे और सत्य
और झूठ की वास्तविकता प्रकट हो जावे । भला यह कहां की रीति है कि
आप अपनी कहे जावें और दूसरे की न सुनें । इस पर पादरी साहब को भीड़
की लज्जा ने रोका और तब उन्होंने विवश होकर कहा कि बहुत अच्छा परन्तु
जिस समय इञ्जील पर आक्षेप किये जाने की घड़ी आई और लिखने की
अवस्था उत्पन्न हुई तब तो पादरी साहब की विचित्र दशा हुई अर्थात् वही
मुसलमान लोगों की सी रट लगाये जाते थे कि जब तक हम अपने प्रश्न
के उत्तर से सन्तोष प्राप्त न कर लेंगे और उस की स्वीकृति न दे देंगे तब
तक हम तुम को न बोलने देंगे और न तुम्हारी सुनेंगे ।
यह देखकर स्वामी जी ने कहा कि आप अपने प्रश्नों के विषय में
तो कहते हैं परन्तु मेरे प्रश्नों के विषय में भी इस बात को स्वीकार करते
हैं ? तो बस नहीं’’ के अतिरिक्त और क्या उत्तर था क्योंकि यह सारा बखेड़ा
तो अपना बड़प्पन छौंकने और झूठी कीर्ति प्राप्त करने के अभिप्राय से था।
शास्त्रार्थ से तो पूर्णतया इन्कार ही था । जब स्वामी जी ने पादरी साहब का
अन्तिम ट्टट्टनहीं’’ का उत्तर सुना तो यह कहा कि पादरी साहब ! आप बिल्कुल
न्याय से काम नहीं लेते, केवल शास्त्रार्थ का नाम करते हैं परन्तु आप की
यह चतुराई कि कहीं पोल न खुल जाये, व्यर्थ गई और आप की सारी
वास्तविकता प्रकट हो गई क्योंकि आप उन नियमों को जो शास्त्रार्थ में
आवश्यक होते हैं, स्वीकार नहीं करते और न और की सुनना चाहते हैं ।
देखो मैं पहले भी कह चुका हूं और फिर भी कहता हूं कि प्रथम आप वेद
पर एक से लेकर दश तक आक्षेप कीजिये और मुझ से उत्तर लीजिये और
तत्पश्चात् मुझ को अपनी इञ्जील पर आक्षेप करने दीजिये और उत्तर प्रदान
कीजिये । और जब आप मेरे आक्षेपों का उत्तर दे चुकें तो फिर आप चाहें
और नये दश प्रश्न मुझ पर कीजिये, चाहें अपने पहले दश प्रश्नों में से यदि
किसी में कोई सन्देह शेष रहे और मेरे उत्तर से इच्छानुसार सन्तोष न हो तो
वह पूछिये और फिर उत्तर सुनिये ताकि सभा में उपस्थित लोग भी जान लें
कि सत्य क्या है और असत्य क्या है ?
सारांश यह कि जब पादरी साहब के पास कोई और बहाना अवशिष्ट
न रहा तो यह कहा कि या तो आप केवल मेरा ही सन्तोष कीजिये और
अपने आक्षेपों को रहने दीजिये अन्यथा मैं जाता हूं, आप बैठे रहिये ।
इस पर स्वामी जी ने कहा कि पादरी साहब ! इस सभा में उपस्थित
लोग तो आपके बार—बार भागने और किसी शर्त पर न जमने से भली—भांति
जान ही गये हैं कि आप इञ्जील पर आक्षेप होने से थर—थर कांपते हैं और
पीछा छुड़ाने के लिये बार—बार कूदते फांदते फिरते हैं । अब आप जानें और
आपका काम । अच्छा तो यही था कि आप शास्त्रार्थ करते और अपने जी
की भड़ास निकाल लेते । यह सुनकर पादरी साहब ने कठोर शब्दों में कहा
कि बस आप उत्तर देते ही नहीं, मैं जाता हूं । इस पर स्वामी जी ने भी कहा
किआप प्रश्न का उत्तर लेते ही नहीं क्योंकि आप का तो प्रयोजन कुछ
और ही है, शास्त्रार्थ का तो केवल नाम है । अच्छा जाइये, मुझ को इस
समय काम है । (लेखराम पृष्ठ ५१८—५१९)