(पं० अग्दराम शास्त्री से शास्त्रार्थ सोरों मेंसंवत् १९२५)
गुसाईं बलदेवगिरि जी ने वर्णन किया कि स्वामी जी जब संवत् १९२५
में सोरों में आये थे तो उनका वहां अग्दराम शास्त्री से शास्त्रार्थ हुआ । पण्डित
अग्दराम जी संस्कृत के पूर्ण विद्वान् और व्याकरण के पूरे प्रकाण्ड पण्डित
थे । बीसियों पण्डित उनसे संस्कृत पढ़ते थे और केवल पढ़ाते ही नहीं प्रत्युत
वे पण्डितों में शिरोमणि गिने जाते थे । इस ओर उनकी समानता करने वाला
कोई न था और न किसी का साहस पड़ता था कि अग्दराम जी से शास्त्रार्थ
करने पर उघत हो । उनके नाम से ही पण्डित लोग घबरा जाते थे । विशेषतया
वह न्याय और व्याकरण में पूर्ण दक्षता रखते थे । कस्बा बदरिया जो सोरों
के अत्यन्त समीप है, वहां के रहने वाले थे । पण्डित नारायण चक्राटित
जिसे स्वामी जी ने हराकर अपना शिष्य बनाया था, वह पं० अग्दराम के
पास पढ़ा करता था । उसने जाकर पं० अग्दराम जी से कहा कि एक ऐसे
स्वामी आये हैं जिनके सामने किसी को मुख से बात निकालने की भी शक्ति
नहीं । पण्डित जी तुम चलो । पण्डित अग्दराम जी आये और आते ही संस्कृत
में मूर्तिपूजा पर विचार होने लगा । ये पण्डित जी महाराज शालिग्राम की पूजा
करते थे, और नित्य भागवत की कथा बांचा करते थे । स्वामी जी ने वेद
और सत्य—शास्त्रों के प्रमाणों से मूर्तिपूजा का अत्यन्त बुद्धिपूर्वक खण्डन किया
और साथ ही भागवत को भी खण्डन करने से न छोड़ा । पण्डित अग्दराम
जी से भागवत के विषय में बहुत सी बातें हुईं । वे बहुत विद्वान् थे, स्वामी
जी की विघा पर मोहित हो गये । स्वामी जी ने उनको भागवत के बहुत
से दोष बतलाये थे । अन्तिम दोष यह था
कथितो वंशविस्तारो भवता सोमसूर्ययोः ।
राज्ञां चोभयवंशानां चरितं परमाद्भुतम् ।।
यह दशम स्कन्ध का पहला श्लोक है । इस में स्वामी जी ने विस्तार
शब्द अशुद्ध और व्याकरण के विरुद्ध बतलाया था कि विस्तर चाहिए,
विस्तार नहीं । क्योंकि अष्टाध्यायी में लिखा है विस्तर शब्द में ट्टट्टघञ्’’ प्रत्यय
हो अशब्द में । इस पर स्वामी जी ने बहुत से श्लोकों का प्रमाण दिया कि
देखो ट्टट्टविस्तरेण व्याख्याता’’ सब स्थान पर ऐसा लिखा है कि विस्तार अशुद्ध
है। वार्ता या वंश के लिये विस्तर और मापादि के लिए विस्तार आता है ।
उसी को सुनकर पण्डित अग्दराम जी बहुत प्रसन्न हुए और कहा कि महाराज!
आपकी बातों को कहां तक श्रवण करूंसब सत्य हैं । अन्त में पण्डित
जी ने अपना पूर्ण सन्तोष हो जाने के पश्चात् शालिग्राम की मूर्ति जिसे वह
पूजते थे, सब के सामने गंगा में डाल दी और भागवतादि पुराणों की कथा
करनी पूर्णरूप से छोड़ दी, प्रत्युत भागवत का बहुत तिरस्कार किया । उनकी
यह दशा देखकर गुसाईं बलदेवगिरि जी ने भी बहुत सी बहलियां बटियां गग
में फेंक दीं और पण्डित अग्दराम जी के सम्बन्धियों ने भी अपनी पूजा
की मूर्तियां गग में फेंक दीं । (लेखराम पृष्ठ १०८)