व्याप्य-व्यापक संबंध का अर्थ समझने में आया। पर उसकी अनुभूति नहीं होती। इसके लिए क्या करना चाहिए?

इसके लिए अभ्यास करना चाहिए। रोज अभ्यास कीजिए। रोज ऐसे सोचिए जैसे आज हम यहां बैठे हैं। आपके आस-पास चारों तरफ हवा है। आप सोच सकते हैं न। क्योंकि हवा के साथ रहते हुये बहुत दिन हो गये और इसके बारे में बीस बार, पचास बार हमने सोचा भी है कि हवा हमारे चारों तरफ है। तो हवा हमारे चारों तरफ है, यह सोचना सरल है। इसका हमने बहुत बार अभ्यास किया है। ‘ईश्वर भी, हमारे चारों तरफ है, हमारे आस-पास है, जैसे हवा है।’ हमने इस बात का अभ्यास कम किया। अब इस बात का अभ्यास करें।
जैसे वायु हमारे चारों तरफ है, हमारे अंदर भी है, बाहर भी है, रोज सांस लेते हैं, हर समय लेते हैं। वायु अंदर भी जाती रहती है, बाहर भी आती रहती है। चारों तरफ वायु फैली हुई है। ऐसे ही ईश्वर के बारे में भी अभ्यास करें। ‘ईश्वर भी हमारे अंदर भी है और बाहर भी है। चारों तरफ फैला हुआ है ईश्वर। इसका रोज अभ्यास करेंगे। तो दो, चार, छः महीने में आपको थोड़ा-थोड़ा अनुभव होने लगेगा, कि हाँ ईश्वर हमारे अंदर-बाहर, आस-पास, ऊपर-नीचे, दांये-बांये है,’ सब जगह मौजूद है। जैसे वायु सब जगह है, जैसे आकाश सब जगह है। ऐसे ही ईश्वर का भी धीरे-धीरे अभ्यास होने से उसकी सर्वव्यापकता का या ईश्वर के साथ हमारे व्याप्ययय-व्यापक संबंध का अनुभव होने लगेगा।

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