(बम्बई में पण्डितों से शास्त्रार्थमार्च, १८७५)
किसी कारण से बम्बई के पण्डितों की यह धारणा हो गई थी कि
स्वामी जी व्याकरण में बहुत व्युत्पन्न नहीं हैं । अतः उन्होंने सोचा कि यदि
दयानन्द को व्याकरण विषयक शास्त्रार्थ में परास्त कर दिया जायेगा
तो उनकी ख्याति और प्रभाव मन्द पड़ जायेंगे और फिर धर्म्म—विषय में भी
लोग उनके कथन में श्रद्धा और विश्वास न करेंगे । अतः उन्होंने उक्त विषय
पर शास्त्रार्थ करने के लिए स्वामी जी को आहूत किया । ज्यों ही शास्त्रीगण
के यह शब्द महाराज के कर्णगोचर हुए, त्यों ही उन्होंने शास्त्रार्थ करना स्वीकार
कर लिया और शास्त्रार्थ की तिथि १० मार्च, सन् १८७५ नियत हो गई ।
नियत दिवस और समय पर सभा—मण्डप में अपूर्व चहल—पहल दिखाई
देने लगी । बड़े—बड़े सेठ आये, साहूकार आये, बैरिस्टर और सालिसिटर आये,
कालेजों के महोपाध्याय और स्कूलों के उपाध्याय आये, शिक्षित लोग भी
आये और अशिक्षित भी, उष्णीषमण्डित पण्डित आये और दयानन्द को पराजित
करने की आशा साथ लाये । दयानन्द भी आये, उनका मुखमण्डल सदा की
भांति प्रसन्न था, उस पर न चिन्ता की रेखा थी और न भय का चिह्न । सभास्थल
में एक बड़ा सिंहासन बनाया गया था और उस पर वेदादि की पुस्तकें प्रमाण
के लिये रक्खी गई थीं। स्वामी जी आकर सिंहासन पर विराजमान हो गये।
पण्डितों ने इस पर आपत्ति की तो स्वामी जी ने कहा कि हम संन्यासी होने
के कारण बैठे हैं । आप लोग हम से कुछ प्रश्न करें, यदि हम उत्तर न दे
सकेंगे तो हम सिंहासन से उतर जायेंगे और आप बैठ जाना ।
श्री आत्माराम बापू—दल शास्त्रार्थ—सभा के सभापति पद पर प्रतिष्ठित
हुए । पण्डितों की ओर से पण्डित खेम जी बाल जी जोशी ने भाषण आरम्भ
किया । जोशी जी वाव्Qपटु समझे जाते थे, अतः श्रोतृवर्ग उनके कथन को
उत्कण्ठा और आशा से सुनने लगे । परन्तु जोशी जी ने प्रकृत विषय पर तो
कुछ नहीं कहा, इधर—उधर की बातें कहनी आरम्भ कर दीं । श्रोता उकताने
लगे और उनकी ओर से जोशी जी को चुप कराने की चेष्टा होने लगी । परन्तु
वे चुप होने वाले न थे, वे अप्रासग्कि बातें कहते ही रहे । अन्त में श्रोतृगण
उनकी बातों से सर्वथा विरक्त हो गये और उन्हें अधिक समय नष्ट करने का
अवकाश देने से श्रोताओं ने इन्कार कर दिया । इस पर जोशी जी को चुप होना
ही पड़ा । तत्पश्चात् पण्डित इच्छाशंकर सुकुल ने स्वामी जी से व्याकरण
सम्बन्धी प्रश्न आरम्भ किये । स्वामी जी उनके उत्तर देते रहे । जब पण्डित
इच्छाशटर के प्रश्न समाप्त हो गये और वे स्वामी जी के उत्तरों पर कोई आपत्ति
न कर सके तो फिर स्वामी जी ने उनसे प्रश्न करने आरम्भ किये । पण्डितों
के उत्तर लिखे गये और स्वामी जी ने महाभाष्यादि ग्रन्थों के प्रमाणों द्वारा उनके
उत्तरों को भ्रमपूर्ण सिद्ध कर दिया । पण्डितगण स्वामी जी के आक्षेपों का
निराकरण न कर सके और विवश होकर उन्हें अपनी भ्रान्ति स्वीकार करनी
पड़ी । सब लोगों को प्रतीत हो गया कि पण्डित वर्ग तो स्वामी जी से क्या
उनके शिष्यों से भी तर्वQ करने की योग्यता नहीं रखता ।
तत्पश्चात् पण्डितों ने नियोग पर कुछ आक्षेप किया जिन का उत्तर
स्वामी जी ने इस ढंग से और ऐसी योग्यता और प्रबल युक्तियों से दिया कि
पण्डितों को अनन्योपाय होकर मौन ही धारण करना पड़ा । पण्डितों की इस
बार भी स्वामी जी को परास्त करने की आशा निराशा में ही परिणत हुई
और वे खिन्न और विषादपूर्ण हृदयों के साथ घरों को लौटकर आये ।
(देवेन्द्रनाथ १।३२८, लेखराम पृष्ठ २५१)