वैदिकधर्म तथा ईसाई मत
नोटयह धर्मचर्चा फादर कानरीड साहब ओ०सी०वाई० रेवरेण्ड नायब
विशप सैंट पीटरसन रोमन कैथलिक चर्च आगरा और श्रीमान् स्वामी दयानन्द
वैदिकधर्म तथा ईसाई मत 227
सरस्वती जी महाराज के मध्य १२ दिसम्बर, सन् १८८०, रविवार तदनुसार
मगसिर शुक्ला ११, संवत् १९३७ विक्रमी को हुई ।
स्वामी जी कई वकीलों और सम्मानित व्यक्तियों तथा मार्टिन साहब
म्यूनिसिपल कमिश्नर सहित बिशप साहब से मिलने को गये ।
स्वामी जीनास्तिक लोग उत्पन्न करने वाले को नहीं मानते । यदि
हम और आप और दूसरे मत के बुद्धिमान् लोग मिलकर और सब मतों में
जो सत्य बातें हैं उन का विचार करके जिन पर सब लोग एकमत हो जावें,
और आपस का मतभेद जाता रहे तो विरोध में केवल नास्तिक लोग ही रह
जावेंगे । फिर उन को हम अच्छी प्रकार बौद्धिक युक्तियों के द्वारा परास्त
कर देंगे । गोरक्षा जिस से लाभ ही लाभ है, ऐसी श्रेष्ठ बातों में हम को
और आप को और सब को मिलकर काम करना चाहिये ।
बिशप साहबयह काम अत्यन्त कठिन है इसलिए कि मुसलमान हलाल
करना कभी न छोड़ेंगे । वैसे ही ईसाई लोग मांस खाना कभी न छोड़ेंगे। इस
में सन्देह नहीं कि ईश्वर अवश्य है और चूंकि ईश्वर की सूरत नहीं देखी
और वह बोलता नहीं है, इस कारण से यह अवश्य है कि उस ने अपना
एक स्थानापन्न धर्म का बतलाने वाला संसार में भेजा । जिस प्रकार महारानी
विक्टोरिया विना दूसरे के भारतवर्ष का शासन नहीं कर सकती, उसी प्रकार
खुदा विना खुदावन्द यीशु मसीह की सहायता के संसार के मनुष्यों का तथा
मुक्ति का प्रबन्ध नहीं कर सकता ।
स्वामी जी ने कहा किप्रथम तो जो उदाहरण है वह ठीक नहीं क्योंकि
जीव की परमेश्वर से कोई समानता नहीं । पहले ईश्वर का लक्षण होना चाहिये
कि ईश्वर क्या वस्तु है । स्वामी जी ने उस के विशेषण, सर्वज्ञ, अविनाशी,
सर्वशक्तिमान् आदि बताये और कहा कि ऐसे गुणों वाला ईश्वर किसी के
आधीन नहीं कि स्वयं प्रबन्ध न कर सके और दूसरे से सहायता लेनी पड़े।
तीसरे यदि हम मान भी लें कि ईसा कोई अच्छे पुरुष थे तो भी एक मनुष्य
थे । और ईश्वर न्यायाधीश है वह एक मनुष्य के कहने से अन्याय नहीं कर
सकता । जैसा जिस का कर्म होगा वैसा ही फल देगा । इसलिए यह असम्भव
है कि न्यायविरुद्ध परमेश्वर किसी की सिफारिश मानकर पुण्य—पाप के अनुसार
फल न देवे । अतः ईश्वर को स्थानापन्न भेजने की आवश्यकता नहीं ।
स्थानापन्न देना यह कार्य मनुष्यों का है । वह ऐसा स्वामी है कि समस्त कार्य
और प्रत्येक प्रबन्ध विना स्थानापन्न के कर सकता है ।
बिशप साहबक्योंकर प्रबन्ध कर सकता है ?
स्वामी जीशिक्षा अर्थात् ज्ञान के द्वारा ।
बिशप साहबवह पुस्तक ज्ञान की कौन सी है ?
स्वामी जीचारों वेद ईश्वर की ओर से प्रमाण हैं । (१८ पुराणों का
नाम नहीं लिया ।)
बिशप साहबक्या अठारह पुराण भी धर्मपुस्तक हैं ?
स्वामी जीनहीं ।
बिशप साहबचारों वेद कैसे आये, ईश्वर ने किस को दिये, किस
ने संसार में पहले समझाये ?
स्वामी जीअग्नि, वायु, आदित्य, अग्रिा, चारों ऋषियों के आत्मा
में ईश्वर ने वेदों का ज्ञान दिया, उन्होंने समझाया ।
बिशप साहबवेद ईश्वर की ओर से नहीं प्रत्युत वेद का बनाने वाला
एक ब्राह्मण है, जिस का नाम इस समय स्मरण नहीं रहा ।
स्वामी जीऐसा नहीं, वेद सृष्टि की आदि में परमात्मा ने प्रकाशित
किये । किसी ब्राह्मण ने इन को नहीं बनाया, प्रत्युत वेद पढ़ने से मनुष्य
ब्राह्मण बन सकता है और जो वेद न पढ़े वह कदापि ब्राह्मण नहीं कहला
सकता।
बिशप साहबवे चारों मर गये या जीवित हैं ?
स्वामी जीमर गये हैं ।
बिशप साहबउनके पश्चात् उन का स्थानापन्न कौन हुआ और एक
के पश्चात् कौन स्थानापन्न होता रहा और अब कौन है ?
स्वामी जीहजारों लाखों ऋषि मुनि उनके स्थानापन्न होते रहे ।
जैसे छः शास्त्रों के कर्ता छः ऋषि, उपनिषदों तथा ब्राह्मणों के लेखक ऋषि
मुनि लोग । उनके अतिरिक्त प्रत्येक काल में जो ऋषियों के निश्चित नियमों
के अनुसार चले, शुद्धाचारी हो वही स्थानापन्न हो सकता है परन्तु आप
बतलाइये ईसा के पश्चात् आप के यहां अब तक कौन हुआ ?
बिशप साहबहमारे यहां ईसा के पश्चात् रोम का पोप अर्थात् उच्चतम
पादरी ईश्वर का स्थानापन्न समझा जाता है । जो भूल हम लोगों से हो जाये
उस का सुधार उच्चतम पादरी अर्थात् रोम के पोप द्वारा होता है ।
स्वामी जीऔर जो भूल रोम के पोप से हो उस का सुधार किस
प्रकार हो सकता है ? आप को पोप के अत्याचार और धार्मिक झगड़े जो
लूथर के काल से पहले और उस समय होते थे और कुछ अब तक जारी
हैं, भली प्रकार विदित होंगे और इसी प्रकार ईसाइयों की पहली सभाओं का
वृत्तान्त और धार्मिक झगड़े और सार्वजनिक हत्याएं आप से छुपी न होंगी।
उन का सुधार किस प्रकार वह पोप जो स्वयम् उन का आरम्भकर्ता है और
जो स्वयम् उन रोगों में फंसा हुआ है, कर सकता है ? यह बात ठीक वैसी
ही है जिस प्रकार हमारे पोप पौराणिक लोगों की ।
बिशप साहब इस का कोई बुद्धिपूर्वक और युक्तियुक्त उत्तर जिस से
स्वामी जी और श्रोताओं का सन्तोष हो, न दे सके । तत्पश्चात् लगभग १२
बजे के समय स्वामी जी एक बड़ा गिर्जा देखने के लिए चले गये ।
(लेखराम पृष्ठ ६९१—६९३)