वेदों से उससे मूर्तिपूजा सिद्ध होती है

(भडौंच में पण्डितों से शास्त्रार्थदिसम्बर, १८७४)

स्वामी जी के व्याख्यान भडौंच में नर्मदा के तट पर भृगु ऋषि की

धर्मशाला में हुए । पहले व्याख्यान की समाप्ति पर पण्डित माधवराव

ङ्क्षम्बकराव स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने को सम्मुख आये। पण्डित माधव

राव दक्षिणी ब्राह्मण थे । और अनेक सम्भ्रान्त लोग उनके शिष्य थे । वे थे

तो गृहस्थी, परन्तु महन्त समझे जाते थे और भडौंच के लोग उनका बहुत

सम्मान करते थे कट्टर सनातनी और दाम्भिक थे । वे सभा में शास्त्रार्थ करने

के अभिप्राय से ही आये थे और अपने अनेक शिष्यों को साथ ले आये थे।

उनके एक शिष्य ने स्वामी जी से कहा कि पण्डित माधवराव आपसे शास्त्रार्थ

करने के इच्छुक हैं । स्वामी जी के यहां क्या देर थी ? उन्होंने तुरन्त उत्तर

दे दिया कि हम उघत हैं । इस पर पण्डित माधवराव आगे आये और निम्न

प्रकार प्रश्नोत्तर हुए ।

दया०आपने क्या पढ़ा है ?

माधव०कौमुदी आदि व्याकरण और कुछ काव्य पढ़ा है ।

दया०जब आपने वेदादि आर्ष ग्रन्थ पढ़े ही नहीं तो आप उनके विषय

में शास्त्रार्थ कैसे करोगे ?

माधव०मैंने कुछ ऋग्वेद भी पढ़ा है ।

दया०चारों वेदों में से किसी मन्त्र को लेकर उसका पदच्छेद पूर्वक

अर्थ करके दिखलाइये कि उससे मूर्तिपूजा सिद्ध होती है । फिर मैं आर्ष

ग्रन्थों की रीति के अनुकूल उसका अर्थ करूंगा और तत्पश्चात् आपके

और अपने अर्थ काशी आदि स्थानों के बड़े—बड़े पण्डितों के पास भेज दिये

जायेंगे कि वे किसके अर्थों का अनुमोदन करते हैं ।

स्वामी जी के इतना कहते ही पण्डित कृष्णराम ने चारों वेदों के पुस्तक

स्वामी जी के सामने लाकर रख दिये । तब स्वामी जी ने कहा कि चारों

वेदों में से किसी वेद का कोई मन्त्र निकालकर अर्थ कीजिए। पं० माधवराव

ने ऋग्वेद का एक मन्त्र निकाला और उसका अर्थ करने लगे स्वामी जी ने

पद—पद पर उनके अर्थों की अशुद्धि दिखानी आरम्भ की । परिणाम यह हुआ

कि पण्डित माधवराव थोड़ी ही देर में चुप होकर बैठ गये । तब स्वामी जी

ने उनसे कहा कि अभी आप कुछ और पढि़ए और तब शास्त्रार्थ करने आइए।

माधवराव ने समझा कि स्वामी जी मेरा अपमान करते हैं, विशेषकर शिष्यों

के सामने, इस प्रकार के पराजय से वह बहुत क्रोध में आये और उसी दशा

में अपने शिष्यों सहित सभा से उठकर चले गये । शास्त्रार्थ के बीच में

ही माधवराव का एक शिष्य स्वामी जी की ओर हाथ करके उनके लिए

कुछ अपशब्द कह बैठा था । इस पर बलदेवसिंह को इतना आवेश आया

कि वह खड़े हो गये और कड़क कर बोले कि क्या तुम श्रीमहाराज का

अपमान करने आये हो, मेरी उपस्थिति में ऐसा नहीं हो सकता । स्वामी जी

माधवराव के शिष्य के असभ्य व्यवहार से तनिक भी धैर्य्यच्युत नहीं

हुए । वे गम्भीर जलवत् शान्त रहे । उन्होंने बलदेवसिंह को यह कहकर शान्त

कर दिया कि क्यों क्रोध करते हो, यह भी तो हमारा भाई है ।

(देवेन्द्रनाथ १।३०९)