स्वामी जी के आगरा निवास के समय एक दिन राधास्वामी मत के
५—७ पंजाबी साधु आये, जिनमें स्त्रियां और पुरुष दोनाें सम्मिलित थे । और
प्रश्न किया कि कोई गुरु के उपदेश और सहायता के विना संसार—सागर
से पार नहीं हो सकता ।
स्वामी जी ने उत्तर दिया कि गुरु की शिक्षा तो आवश्यक है परन्तु
जब तक कोई चेला अपना आचार ठीक न करे कुछ नहीं हो सकता ।
उन्होंने प्रश्न किया किईश्वर के दर्शन कैसे हो सकते हैं ?
स्वामी जी ने कहा कि जैसे तुम मूर्खता से ईश्वर के दर्शन करना चाहते
हो उस प्रकार नहीं हो सकते । एक प्रश्न उन का यह था कि ईश्वर तो भक्त
के वश में है ।
स्वामी जी ने कहा किभक्ति तो ईश्वर की आवश्यक है परन्तु पहले
यह समझ लो कि भक्ति चीज क्या है । विना किसी पुरुषार्थ के किये कोई
वस्तु स्वयमेव प्राप्त नहीं हो सकती और जिस प्रकार से तुम भक्ति करना
चाहते हो ऐसे बहुत से पथ लोगों के बिगाड़ने के लिए हुए । इन से इस
लोक या परलोक को कोई लाभ नहीं हो सकता ।
मूर्तिपूजा पर भी बात चली । उन्होंने कहा कि हम और हिन्दुओं से
अच्छे हैं ।
स्वामी जी ने कहानहीं, वे रामचन्द्र और कृष्णादि उत्तम पुरुषों को
देवता और अवतार मानते हैं, तुम गुरु को परमेश्वर से बढ़कर मानते हो ।
इसलिये तुम उन से किसी प्रकार अच्छे नहीं, प्रत्युत बुरे हो ।
उन्होंने कहा किवेद के पढ़ने में बहुत समय नष्ट होता है परन्तु उस
से कुछ भक्ति प्राप्त नहीं होती ।
स्वामी जी ने कहा किजो पुरुषार्थ कुछ नहीं करता और भिक्षा
मांगकर पेट पालना चाहता है उसे वेद का पढ़ना बहुत कठिन है ।
ये लोग कुछ भी विद्वान् नहीं थे । (लेखराम पृष्ठ ५२५—५२६)