यदि यज्ञोपवीत न हो तो क्या हानि ?

(शिवलाल वैश्य रईस डिबाई, जि० बुलन्दशहर से

प्रश्नोत्तरफरवरी १८६८)

ठाकुर शिवलाल वैश्य रईस डिबाई जि० बुलन्दशहर ने वर्णन किया

कि दूसरी बार स्वामी जी मुझे फागुन बदि १३ संवत् १९२४ तदनुसार २१

फरवरी, सन् १८६८ को कर्णवास में मिले । वहां पहुंचकर क्या देखता हूं

कि आप दो—चार ठाकुरों और वैश्यों  के लड़कों के उपनयन संस्कार कराने

का यत्न कर रहे हैं । मैंने जाकर नमस्कार किया और प्रश्न किया ।

प्रश्नमहाराज ! यदि यज्ञोपवीत न हो तो क्या हानि ?

स्वामी जी ने उत्तर दिया कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का उपनयन

संस्कार होना अवश्यक है, क्योंकि जब तक उपनयन संस्कार नहीं होता

तब तक मनुष्य को वैदिक कार्य करने का अधिकार नहीं ।

प्रश्नएक व्यक्ति उपनयन संस्कार करावे परन्तु शुभ कर्म्म न करे

और दूसरा उपनयन संस्कार नहीं करावे और सत्यभाषणादि कर्म में तत्पर हो,

उन दोनों में कौन श्रेष्ठ है ?

स्वामी जी ने उत्तर दिया कि श्रेष्ठ वह है जो उत्तम कर्म करता है परन्तु

संस्कार होना आवश्यक है क्योंकि संस्कार न होना वेद, शास्त्र के विरुद्ध

है और जो वेद—शास्त्र के विपरीत करना है वह ईश्वरीय आज्ञा को नहीं मानता

और ईश्वरीय आज्ञा को न मानना मानो नास्तिक होने का लक्षण है ।

(लेखराम पृष्ठ ९४)