इस संदर्भ में यह जानना चाहिए कि ‘यज्ञ’ करने से व्यक्ति के अंदर ‘त्याग’ की वृत्ति आती है।
स यज्ञ के मंत्रों में हम बोलते हैं- ”इदं अग्नये स्वाहा”। ”इदम् अग्नये, इदन्नमम”, अर्थात् यह मेरा नहीं है। यह भगवान का दिया हुआ है। तो पहले तो केवल आहुति के बारे में कहते हैं। अब इस भावना को और आगे बढ़ाकर हमको यहाँ तक पहुँचना है, कि मेरे पास जितनी भी सम्पत्ति है, ये सब भगवान की है। फिर उससे और आगे बढ़ते हैं, कि यह मेरा शरीर भी मेरा नहीं है। जो बु(ि मेरे पास है, विद्या मेरे पास है और जो भी कुछ मेरे पास है, वो सब मेरा नहीं है। सब भगवान का दिया हुआ है। यज्ञ करने से यह भावना, सेवा व त्याग की वृत्ति हमारे अंदर आती है।
स बढ़ते-बढ़ते जब संपूर्ण भावना आ जाती है, तब यज्ञ का प्रयोजन सम्पन्ना हो जाता है। उसका उद्देश्य पूरा हो जाता है। त्याग और सेवा की भावना जब आ जाए तो यज्ञों को पूरा मान लिया जाता है। फिर उस व्यक्ति को यज्ञ छुड़वा देते हैं। कहते हैं- भाई! अब यज्ञ से तुमको जो चीज सीखनी थी, सीख ली। अब सब छोड़ दो। अब यह बात पूरी उसके जीवन में उतर गई तो फिर उसको ‘संन्यास आश्रम’ में प्रवेश दे देते हैं। अब उसके लिए यज्ञ बंद हो जाता है।
स अब उसने सब कुछ उद्देश्य के लिए यानि धर्म के लिए अर्पित कर दिया। अब उसके पास कुछ है ही नहीं, तो कैसे बोले, किस वस्तु के लिए कहे- ‘इदन्नमम’। हाँ, फिर उसका ‘अध्यात्मिक-यज्ञ’ चलता है, जबकि ‘भौतिक-यज्ञ’ बंद हो जाता है। इस प्रकार यज्ञ करने से आध्यात्मिक लाभ होता है। इसलिए यज्ञ करना चाहिए। तीन आश्रम वालों के लिए यज्ञ करने का विधान इसीलिए रखा गया है।