(अनूपशहर—निवासी पं० हीरावल्लभ पर्वती का कर्णवास में
शास्त्रार्थनवम्बर १८६७)
पौराणिकों को पं० अम्बादत्त के पराजय की कालिमा धोने की चिन्ता
थी ही । वे अनूपशहर गये और पं० हीरावल्लभ को बुलाकर लाये। पौष मास
की किसी तिथि को पं० हीरावल्लभ कर्णवास आये और बड़े ठाठ से आये।
वे अपने आराध्य देवों की मूर्तियों को एक सुन्दर सिंहासन में सजाकर साथ
लाये । शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ । उसमें पं० हीरावल्लभ प्रवृत्त हुए तो अनोखे
ढंग से । देवमूर्तियों का सिंहासन सामने रखकर और यह प्रतिज्ञा करके कि
मैं इन देवमूर्तियों को दयानन्द के हाथ से भोग लगवाकर उठूंगा । छः दिन
तक शास्त्रार्थ होता रहा, नियम और न्यायपूर्वक होता रहा । छठे दिन पं०
हीरावल्लभ ने अस्त्र शस्त्र डाल दिये, अपनी हार स्वीकार की, वाणी से भी
और कर्म से भी । पण्डित जी ने महाराज को हाथ जोड़कर प्रणाम किया
और साथ ही देवमूर्तियों को भी सदा के लिए हाथ जोड़कर गगजल में प्रविष्ट
करा दिया । उन देवमूर्तियों को जिन्हें वे दयानन्द के हाथ से भोग लगवाने
की प्रतिज्ञा करके शास्त्रार्थ में प्रवृत्त हुए थे, स्वयं भोग लगाना छोड़कर शास्त्रार्थ
से निवृत्त हुए । सभा में २००० मनुष्य उपस्थित थे । स्वामी जी पं०
हीरावल्लभ की न्यायप्रियता देखकर गद्गद हो गये । और उन्होंने पण्डित
जी की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की । निष्पक्ष मनुष्यों ने भी उन्हें हृदय से
साधुवाद कहा । सब के मुखमण्डल हर्ष से खिल उठे । मूर्तिपूजकों के हृदय
शोक—सन्तप्त और उनके मुख विषाद से तेजहीन हो गये और आह करते
और ठण्डे सांस भरते सभा से उठकर चले गये । इस शास्त्रार्थ का यह प्रभाव
हुआ कि सैकड़ों की आस्था मूर्तिपूजा के ऊपर से उठ गई और बीसियों लोगों
ने पं० हीरावल्लभ का अनुकरण करते हुए अपनी देवमूर्तियां गंगा के प्रवाह
में डाल दीं । (देवेन्द्रनाथ १।१११, लेखराम पृष्ठ ७७)