मेला चांदापुर सत्यधर्मविचार (अनेक विषयों पर विचार)

 

१९—२० मार्च, १८७७ में (संवत् १९३७ छपे के अनुसार) जिसको

मुन्शी बख्तावरसिंह एडीटर आर्यदर्पण ने शोध कर भाषा और उर्दू में वैदिक

यन्त्रालय काशी में अपने प्रबन्ध से छापकर प्रकाशित किया था ।

धर्मचर्चा ब्रह्मविचार मेला चांदापुर · कि जिसमें बड़े बड़े विद्वान्·· आर्य्यों,

ईसाइयों और मुसलमानों की ओर से एक सत्य के निर्णय के लिए इकट्ठे हुए

· यहां यह मेला मुन्शी प्यारेलाल साहब की ओर से प्रतिवर्ष हुआ करता है।

·· इस धर्मचर्चा में आर्य्यों की ओर से स्वामी दयानन्द सरस्वती जी और मुन्शी

इन्द्रमणि जी, ईसाइयों की ओर से पादरी स्काट साहब, पादरी नोबिल साहब, पादरी

पार्कर साहब और पादरी जान्सन साहब और मुसलमानों की ओर से मौलवी मौहम्मद

कासिम साहब, सैयद अब्दुल मंसूर साहब विचार के लिए आये थे ।

थे सज्जन पाठकगणों के हितार्थ मुद्रित किया जाता है कि जिससे प्रत्येक मतों

का अभिप्राय सब पर प्रकाशित हो जावे । सब सज्जनों को किसी मत के क्यों

न हों उचित है कि पक्षपातरहित होकर इस को सुहृद्भाव से देखें ।

विदित हो कि यह मेला दो दिन रहा । मेले के आरम्भ से पूर्व कई

लोगों ने स्वामी जी के समीप जाकर कहा कि आर्य और मुसलमान मिल

के ईसाइयों का खण्डन करें तो अच्छा है । इस पर स्वामी जी ने कहा कि

यह मेला सत्य और असत्य के निर्णय के लिए किया गया है । इसलिये

हम तीनों को उचित है कि पक्षपात छोड़कर प्रीतिपूर्वक सत्य का निश्चय

करें । किसी से विरोध करना कदापि योग्य नहीं ।

इसके पश्चात् विचार का समय नियत किया गया । पादरियों ने कहा

कि हम दो दिन से अधिक नहीं ठहर सकते और यही विज्ञापन में भी

छापा गया था । इस पर स्वामी जी ने कहा कि हम इस प्रतिज्ञा पर आये

थे कि मेला कम से कम पंाच और अधिक से अधिक आठ दिन तक रहेगा।

क्योंकि इतने दिनों में सब मतों का अभिप्राय अच्छे प्रकार ज्ञात हो सकता

है । जब इस पर वे लोग प्रसन्न न हुए तब मुन्शी इन्द्रमणि जी ने कहा

कि स्वामी जी ! आप निश्चिन्त रहें । सच्चा मत एक दिन में प्रकट हो जावेगा।

फिर निम्नलिखित पांच प्रश्नों पर विचार करना सब ने स्वीकार किया ।

पहले दिन की सभा

मुन्शी प्यारेलाल साहब ने खड़े होकर सब से पहले कहा

प्रथम ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिये कि जो सर्वव्यापक और

सर्वान्तर्यामी है । हम लोगों के बड़े भाग्य हैं कि उसने हम सब को ऐसे

राजप्रबन्ध समय में उत्पन्न किया कि जिसमें सब लोग निर्विघ्नता से

निर्भय होकर मत—मतान्तरों का विचार कर सकते हैं । धन्य है इस आज

के दिन को और बड़े भाग्य हैं इस भूमि के कि ऐसे सज्जन पुरुष और ऐसे

ऐसे विद्वान् मतमतान्तरों के जानने वाले यहां सुशोभित हुए हैं । आशा है कि

सब विद्वान् अपने अपने मतों की वार्ताओं को कोमल वाणी से कहेंगे कि

जिससे सत्य और असत्य का निर्णय होकर मनुष्यों की सत्य मार्ग में प्रवृत्ति

हो जावेगी ।’’

इसके पश्चात् जब मुसलमानों और ईसाइयों की ओर से पांच—पांच

मनुष्य और आर्य्यों की ओर से स्वामी जी और मुन्शी इन्द्रमणि जी दो ही

विचार के लिए नियत किये गये तब मौलवियों और पादरियों ने हठ किया

कि आर्य्यों की ओर से भी पांच मनुष्य होने चाहियें । इस पर स्वामी जी

ने कहा कि आर्य्यों की ओर से हम दो ही बहुत हैं। तब मौलवियों ने पण्डित

लक्ष्मण शास्त्री का नाम अपने ही आप पादरियों से लिखवाना चाहा । तब

स्वामी जी ने उनसे यह कहा कि आप लोगों को अपनी अपनी ओर के मनुष्यों

के लिखवाने का अधिकार है हमारी ओर का कुछ नहीं । और पण्डित से

यह कहा कि आप नहीं जानते ये लोग हमारे और तुम्हारे बीच विरोध कराके

आप तमाशा देखना चाहते हैं । इस बात के कहने पर भी एक मौलवी ने

पण्डित जी का हाथ पकड़ के उनसे कहा कि तुम भी अपना नाम लिखवा

दो । इनके कहने से क्या होता है। तिस पर स्वामी जी ने कहा कि अच्छा

जो सब आर्य्य लोगों की सम्मति हो तो इनका भी नाम लिखवा दो, नहीं तो

केवल आप लोगों के कहने से इनका नाम नहीं लिखा जावेगा । फिर एक

मौलवी साहब उठकर बोले कि सब हिन्दुओं से पूछा जावे कि इन दोनों

के नाम लिखाने में सब की सम्मति है वा नहीं । इस पर स्वामी जी ने कहा

कि जैसे आपको सिवाय फिर्वेQ सुन्नत जमात के अहलेशिया आदि फिर्कों

ने सम्मति करके नहीं बिठलाया और जैसे कि पादरी साहब को रोमन कैथोलिक

फिर्कों ने नियत नहीं किया; ऐसे ही आर्य्य लोगों में भी बहुत सों की हमारे

बिठलाने में सम्मति और बहुत सों की असम्मति होगी । परन्तु आप लोगों

को हमारे बीच गड़बड़ मचाने का कुछ अधिकार नहीं है । मुन्शी इन्द्रमणि

जी ने कहा कि हम सब आर्य्य लोग वेदादि शास्त्रों को मानते हैं और पण्डित

जी भी इन्हीं को मानते हैं। जो किसी का मत आर्य्य लोगों से वेदादि शास्त्रों

के विरुद्ध हो तो चौथा पन्थ नियत करके भले ही बिठला दीजियेगा ।

इन बातों से मौलवियों का यह अभिप्राय था कि ये लोग आपस में

झगड़ें तो हम तमाशा देखें । पण्डित जी का नाम लिखना आर्य्य लोगों ने

योग्य न समझा । फिर मौलवी लोग नमाज पढ़ने को चले गये और जब लौटकर

आये तब उनमें से मौलवी मुहम्मद कासिम साहब ने कहा कि प्रथम मैं एक

घण्टे तक उन प्रश्नों के सिवाय और कुछ अपने मत के अनुसार कहना चाहता

हूं । उसमें जो किसी को कुछ शटा होगी तो उसका मैं समाधान करूंगा।

इसको सब ने स्वीकार किया । मौलवी साहब के कथन का तात्पर्य यह है

मौलवी मुहम्मद कासिम साहबपरमेश्वर की स्तुति के पश्चात् यह

कहा कि जिस—जिस समय में जो—जो हाकिम हो उसी की सेवा करनी उचित

है । जैसे कि इस समय जो गवर्नर है उसी की सेवा करते और उसी की

आज्ञा मानते हैं और जिसकी आज्ञापालन का समय व्यतीत हो गया, न कोई

उसकी सेवा करता है और न उसकी आज्ञा को मानता है । और जैसे जब

कोई कानून व्यर्थ हो जाता है तो उसके अनुसार कोई नहीं चलता परन्तु जो

कानून उसकी जगह नियत किया जाता है उसी के अनुसार सब को चलना

होता है । तो इन्हीं दृष्टान्तों के समान जो—जो अवतार और पैगम्बर पूर्व समय

में थे और जो—जो पुस्तकें तौरेत, जबूर, बाइबिल उनके समय में उतरी थीं

अब उनके अनुसार न चलना चाहिये । इस समय के सब से पिछले पैगम्बर

हजरत मुहम्मद साहब हैं । इस लिये उनको पैगम्बर मानना चाहिये। और जो

ईश्वरवाक्य अर्थात् कुरान उनके समय में उतरा है उस पर विश्वास करना

चाहिये । और हम श्री राम और श्री कृष्ण आदि और ईसा मसीह की निन्दा

नहीं करते । क्योंकि वे अपने—अपने समय में अवतार और पैगम्बर थे । परन्तु

इस समय तो हजरत मुहम्मद साहब का ही हुकुम चलता है दूसरे का नहीं।

जो कोई हमारे मजहब वा कुरानशरीफ वा हजरत मुहम्मद साहब को बुरा

कहेगा, वह मारे जाने के योग्य है ।

पादरी नोबिल साहबमुहम्मद साहब के पैगम्बर और कुरान के

ईश्वरीय वाक्य होने में सन्देह है क्योंकि कुरान में जो—जो बातें लिखी हैं सो—सो

बाइबिल की हैं । इसलिये कुरान अलग आसमानी पुस्तक नहीं हो सकता।

और हजरत ईसामसीह के अवतार होने में कुछ सन्देह नहीं । क्योंकि उसके

व्याख्यान से स्पष्ट ज्ञात होता है कि वह सत्यमार्ग बतलाने वाला था । केवल

उसके व्याख्यान से ही मनुष्य मुक्ति पा सकता है और उसने चमत्कार भी

दिखलाये थे ।

मौलवी मुहम्मद कासिम साहबहम हजरत ईसा को अवतार तो

मानते हैं और बाइबिल को आसमानी पुस्तक भी मानते हैं परन्तु ईसाइयों

ने उसमें बहुत कुछ घटत—बढ़त कर दी है इसलिये यह वही मूल नहीं

है । और जो कि उसका कुरान ने खण्डन भी कर दिया है इसलिये वह विश्वास

के योग्य नहीं रही । और हमारे हजरत पैगम्बर साहब का अवतार सब से

पिछला है, इसलिये हमारा मत सच्चा है ।

फिर और मौलवियों ने बाइबिल में से एक आयत पादरी साहब को

दिखलाई और कहा कि देखिये आप ही लोगों ने लिखा है कि इस आयत

का पता नहीं लगता ।

पादरी नोबिल साहबजिस मनुष्य ने यह लिखा है वह सत्यवादी था।

जो उसने लेखक—भूल को प्रसिद्ध कर दिया तो कुछ बुरा नहीं किया । और हम

लोग सत्य को चाहते हैं असत्य को नहीं, इसलिये हमारा मत सत्य है ।

मौलवी मुहम्मद कासिम साहबयह तो ठीक है कि कुछ बुरा नहीं

किया परन्तु जब कि किसी पुस्तक में वा दस्तावेज में एक भी बात झूठ

लिखी हुई विदित हो जावे तो वह पुस्तक कदाचित् माननीय नहीं रहती और

न वह दस्तावेज ही अदालत में स्वीकार हो सकता है ।

पादरी नोबिल साहबक्या कुरान में लेखकदोष नहीं हो सकता । इस

बात पर हठ करना अच्छा नहीं । और जो हम सत्य ही को मानते हैं और सत्य

ही की खोज करते हैं इस कारण उस लेखक—भूल को हमने स्वीकार कर

लिया । और तुम्हारे कुरान में बहुत घटत—बढ़त हुई । जिसके प्रमाण में एक मौलवी

ईसाई ने अरबी भाषा में बहुत कुछ कहा और सूरतों के प्रमाण दिये ।

मौलवी मुहम्मद कासिम साहबआप बड़े सत्य के खोजी हैं ! (मुख

बनाकर) जो आप सत्य ही को स्वीकार करते हैं तो तीन ईश्वर क्यों मानते हो?

पादरी नोबिल साहबहम तीन ईश्वर नहीं मानते । वे तीनों एक

ही हैं अर्थात् केवल एक ईश्वर से ही प्रयोजन है। ईसामसीह में मनुष्यता और

ईश्वरता दोनों थीं । इस कारण वह दोनों व्यवहारों को करता है । अर्थात्

मनुष्य के आत्मा से मनुष्यों का व्यवहार और ईश्वर के आत्मा से ईश्वर का

व्यवहार अर्थात् चमत्कार दिखलाना ।

मौलवी मुहम्मद कासिम साहबवाह वाह ! एक घर में दो तलवार

क्योंकर रह सकती हैं ? यह कहना पादरी साहब का अत्यन्त मिथ्या है। उसने

तो कहीं नहीं कहा कि मैं ईश्वर हूं । तुम हठ से उसको ईश्वर बनाते हो।

पादरी नोबिल साहबएक आयत अंजील की पढ़ी और कहा कि यह

एक आयत है जिसमें मसीह ने अपने आपको ईश्वर कहा है और कई एक

चमत्कार भी दिखलाये हैं। इससे उसके ईश्वर होने में कोई सन्देह नहीं हो सकता।

मौलवी मुहम्मद कासिम साहबजो वह ईश्वर था तो अपने आपको

फांसी से क्यों न बचा सका ?

एक हिन्दुस्तानी पादरी साहबकुरान में कई एक आयतों का परस्पर

विरोध दिखलाया और कहा कि हुकुम का खण्डन हो सकता है समाचार

का नहीं हो सकता । सो आप के कुरान में समाचारों का खण्डन है । पहले

बैतूल—मुकद्दस की ओर शिर नमाते थे फिर काबे की ओर नमाने लगे । और

कई आयतों का अर्थ भी सुनाया और कहा कि ईसामसीह पर विश्वास लाये

विना किसी की मुक्ति नहीं हो सकती । और तुम्हारे कुरान में बाइबिल का

और ईसामसीह का मानना लिखा है । तुम लोग क्यों नहीं मानते हो ?

ऐसी ही बातों के होते होते सन्ध्या हो गई ।

दूसरे दिन की सभा

प्रातःकाल के साढ़े सात बजे सब लोग आये, और वे पांच प्रश्न कि

जो स्वीकार हो चुके थे पढ़े गये । वे पांच प्रश्न ये हैं

१सृष्टि को परमेश्वर ने किस चीज से, किस समय और किसलिये

बनाया ?

२ईश्वर सब में व्यापक है वा नहीं ?

३ईश्वर न्यायकारी और दयालु किस प्रकार है ?

४वेद, बाइबिल और कुरान के ईश्वरोक्त होने में क्या प्रमाण है ?

५मुक्ति क्या है और किस प्रकार मिल सकती है ?

इसके पश्चात् कुछ देर तक यह बात आपस में होती रही कि एक

दूसरे को कहता था कि पहले वह वर्णन करे । तदनन्तर पादरी स्काट साहब

ने पहले प्रश्न का उत्तर देना आरम्भ किया और यह भी कहा कि यघपि यह

प्रश्न किसी काम का नहीं । मेरी समझ में ऐसे प्रश्न का उत्तर देना व्यर्थ

है । परन्तु जब कि सब की सम्मति है तो मैं इसका उत्तर देता हूं

पादरी स्काट साहबयघपि हम नहीं जानते कि ईश्वर ने यह संसार

किस चीज से बनाया है । परन्तु इतना हम जान सकते हैं कि अभाव से भाव

में लाया है । क्योंकि पहले सिवाय ईश्वर के दूसरा पदार्थ कुछ न था । उसने

अपने हुकुम से सृष्टि को रचा है । यघपि यह भी हम नहीं जान सकते कि

उसने कब इस संसार को रचा परन्तु उसका आदि तो है । वर्षों की गणना

हम को नहीं जान पड़ती और न सिवाय ईश्वर के कोई जान सकता है। इसलिये

इस बात पर अधिक कहना ठीक नहीं ।

ईश्वर ने किसलिये इस जगत् को रचा । यघपि इसका भी उत्तर हम

लोग ठीक—ठीक नहीं जान सकते परन्तु इतना हम जानते हैं कि संसार के

सुख के लिये ईश्वर ने यह सृष्टि की है कि जिसमें हम लोग सुख पावें और

सब प्रकार के आनन्द करें ।

मौलवी मुहम्मद कासिम साहबउसने अपने शरीर से प्रकट अर्थात्

उत्पन्न किया । उससे हम अलग नहीं । जो अलग होते तो उस की प्रभुता

में न होते । कब से यह संसार बना यह कहना व्यर्थ है। क्योंकि हम को

रोटी खाने से काम है न यह कि रोटी कब बनी है । यह जगत् सृष्टि के

लिये रचा गया है, क्योंकि सब पदार्थ मनुष्य के लिये ईश्वर ने रचे हैं । और

हम को अपनी भक्ति के लिये ईश्वर ने रचा है । देखो ! पृथिवी हमारे लिये

है हम पृथिवी के लिये नहीं । क्योंकि जो हम न हों तो पृथिवी की कुछ

हानि नहीं परन्तु पृथिवी के न होने से हमारी बड़ी हानि होती है । ऐसे ही

जल, वायु, अग्नि आदि सब पदार्थ मनुष्य के लिये रचे गये हैं । मनुष्य सब

सृष्टि में श्रेष्ठ है । उसको बुद्धि भी इसी श्रेष्ठता की परीक्षा के लिये दी

है अर्थात् मनुष्य को अपनी भक्ति के लिये और इस जगत् को मनुष्य के

लिये ईश्वर ने रचा है ।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जीपहले मेरी सब मुसलमानों और ईसाइयों

और सुनने वालों से यह प्रार्थना है कि यह मेला केवल सत्य के निर्णय के

लिये किया गया है । और यह ही मेला करने वालों का प्रयोजन है कि देखें

सब मतों में कौन सा मत सत्य है । जिसको सत्य समझें उस को अग्ीकार

करें । इसलिये यहां हार और जीत की अभिलाषा किसी को न करनी चाहिये।

क्योंकि सज्जनों का यह ही मत होना चाहिये कि सत्य की सर्वदा जीत और

असत्य की सर्वदा हार होती रहे । परन्तु जैसे मौलवी लोग कहते हैं कि पादरी

साहब ने यह झूठ कही । ऐसे ही ईसाई कहते हैं कि मौलवी साहब ने यह

बात झूठी कही, ऐसी वार्ता करना उचित नहीं । विद्वानों के बीच यह नियम

होना चाहिये कि अपने—अपने ज्ञान और विघा के अनुसार सत्य का मण्डन

और असत्य का खण्डन कोमल वाणी के साथ करें कि जिससे सब लोग

प्रीति से मिलकर सत्य का प्रकाश करें । एक दूसरे की निन्दा करना, बुरे—बुरे

वचनों से बोलना, द्वेष से कहना कि वह हारा और मैं जीता, ऐसा नियम कदाचित्

न होना चाहिये । सब प्रकार पक्षपात छोड़कर सत्यभाषण करना सब को उचित

है । और एक दूसरे से विरोधवाद करना यह अविद्वानों का स्वभाव है विद्वानों

का नहीं । मेरे इस कहने का यह प्रयोजन है कि कोई इस मेले में अथवा

और कहीं कठोर वचन का भाषण न करें ।

अब मैं पहले प्रश्न का उत्तर किट्टट्टईश्वर ने जगत् को किस वस्तु

से और किस समय और किस लिये रचा है ?’’ अपनी छोटी सी बुद्धि और

विघा के अनुसार देता हूं

परमात्मा ने सब संसार को प्रकृति से अर्थात् जिसको अव्यक्त अव्याकृत

और परमाणु नामों से कहते हैं रचा है । सो यह ही जगत् का उपादान कारण

है। जिसका वेदादि शास्त्रों में नित्य करके निर्णय किया है और यह सनातन

है । जैसे ईश्वर अनादि है वैसे ही सब जगत् का कारण भी अनादि है। जैसे

ईश्वर का आदि और अन्त नहीं वैसे ही इस जगत् के कारण का भी आदि

अन्त नहीं है । जितने इस जगत् में पदार्थ दीखते हैं उनके कारण से एक

परमाणु भी अधिक वा न्यून कभी नहीं होता । जब ईश्वर इस जगत् को रचता

है तब कारण से कार्य रचता है । सो जैसा कि यह कार्यजगत् दीखता है वैसा

ही इसका कारण है । सूक्ष्म द्रव्यों को मिलाकर स्थूल द्रव्यों को रचता है

तब स्थूल द्रव्य होकर देखने और व्यवहार के योग्य होते हैं । और यह जो

अनेक प्रकार का जगत् दीखता है उसको इसी कारण से ईश्वर ने रचा है।

जब प्रलय करता है तब इस स्थूल जगत् के पदार्थों के परमाणुओं को

पृथक — पृथक कर देता है । क्योंकि जो—जो स्थूल से सूक्ष्म होता है वह

आंखों से दीखने में नहीं आता । तब बालबुद्धि लोग ऐसा समझते हैं कि वह

द्रव्य नहीं रहा । परन्तु वह सूक्ष्म होकर आकाश में ही रहता है क्योंकि कारण

का नाश कभी नहीं होता और नाश अदर्शन को कहते हैं अर्थात् वह देखने

में न आवे । जब एक—एक परमाणु पृथव्Q—पृथव्Q हो जाते हैं जब उनका

दर्शन· नहीं होता । फिर जब वे ही परमाणु मिलकर स्थूल द्रव्य होते हैं तब

दृष्टि में आते हैं । यह नाश और उत्पत्ति की व्यवस्था ईश्वर सदा से करता

आया है और ऐसे ही सदा करता जायेगा । इसकी संख्या नहीं कि कितनी

वार ईश्वर ने सृष्टि उत्पन्न की और कितनी बार कर सकेगा । इस बात को

कोई नहीं कह सकता ।

अब इस विषय को जानना चाहिये कि जो लोग ट्टनास्ति’ अर्थात् अभाव

से ट्टअस्ति’ अर्थात् भाव मानते हैं और शब्द से जगत् की उत्पत्ति जानते हैं

उनका कहना किसी प्रकार से ठीक नहीं हो सकता क्योंकि अभाव से भाव

का होना सर्वथा असम्भव है । जैसे कोई कहे कि वन्ध्या के पुत्र का विवाह

मैंने आंखों से देखा तो जो उसके पुत्र होता तो वन्ध्या क्यों कहलाती ? फिर

उसके पुत्र का अभाव होने से उसके पुत्र का विवाह कब हो सकता है ?

और जैसे कोई कहे कि मैं किसी स्थान में नहीं था और यहां आया हूं अथवा

· जब कोई वस्तु अत्यन्त छोटी हो जाती है तो फिर उसे और छोटा करना

असम्भव है । जो किसी वस्तु के टुकड़े करते—करते उसको इतना छोटा कर दें कि

फिर उसके टुकड़े होना असम्भव हो जावे तो उसको परमाणु कहते हैं । जितनी वस्तुएं

संसार में हैं वे सब परमाणु से बनती हैं । जब किसी पत्थर को तोड़ डालते हैं और

उसके अत्यन्त छोटे—छोटे टुकड़ों को पृथव्Q—पृथव्Q कर देते हैं तो वे परमाणु कि जिनके

इकट्ठे होने से फिर पत्थर बनता है सदा किसी न किसी स्वरूप से बने रहते हैं।

एक परमाणु का भी इस संसार में से अभाव नहीं होता । केवल स्वरूप और गुणों

में भेद हुआ करता है । जब मोम की बत्ती को जलाते हैं तो देखने में यह जान पड़ता

है कि थोड़ी देर में सब बत्ती नहीं रहती । न जाने कि क्या हो गई परन्तु वे परमाणु

जितने बत्ती में थे और ही रूप के वायु के सदृश हो जाते हैं । उनमें के एक परमाणु

का भी अभाव कदाचित् नहीं होता ।

सर्प बिल में न था और निकल भी आया तो ऐसी वार्ता विद्वानों की नहीं

होती । इसमें कोई प्रमाण नहीं क्योंकि जो वस्तु है ही नहीं फिर वह क्योंकर

हो सकती है । जैसे कि हम लोग अपने—अपने स्थानों में न होते तो यहां

चांदापुर में कभी न आ सकते । देखो शास्त्र में भी लिखा हैट्टट्टनासत आत्म—

लाभः । न सत आत्महानम्’’ अर्थात् जो है सो आगे को होता है और जो

नहीं है वह कभी नहीं हो सकता । इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि विना भाव

के भाव कभी नहीं हो सकता । क्योंकि इस जगत् में कोई भी ऐसी वस्तु

नहीं है कि जिसका कारण कोई न हो ।

इससे यह सिद्ध हुआ कि भाव से भाव अर्थात् अस्ति से अस्ति होती

है । नास्ति से अस्ति किसी प्रकार नहीं हो सकती । यह ट्टट्टवदतो व्याघात’’

अर्थात् अपनी बात को आप ही काटने के सदृश बात है । पहले किसी वस्तु

का अन्यथाभाव कहकर फिर यह कहना कि उसका भाव हो गया; पूर्वापर

विरोध है । इसको कोई भी विद्वान् नहीं मान सकता और न किसी प्रमाण

से ही सिद्ध कर सकता है कि विना कारण के कोई कार्य हो सके । इसलिये

अभाव से भाव तथा अर्थात् नास्ति से वा हुकुम से जगत् की उत्पत्ति का

होना सर्वथा असम्भव है । इससे यह ही जानना चाहिये कि ईश्वर ने जगत्

के अनादि उपादान कारण से ही सब संसार को रचा है अन्यथा नहीं ।

यहां दो प्रकार का विचार स्थित होता है । एकयह कि जो जगत्

का कारण ईश्वर हो तो ईश्वर ही सारे जगत् का रूप हुआ तो ज्ञान, सुख,

दुःख, जन्म, मरण, हानि, लाभ, नरक, स्वर्ग, क्षुधा, तृषा, ज्वर आदि रोग बन्ध

और मोक्ष सब ईश्वर में ही घटते हैं । फिर कुत्ता, बिल्ली, चोर, दुष्ट आदि

सब ईश्वर ही बन गये । दूसरायह कि जो सामग्री मानें तो ईश्वर कारीगर

के समान होता है तो उत्तर यह है कि कारण तीन प्रकार का होता है। एक

उपादानकि जिसको ग्रहण करके किसी पदार्थ को बनावे । जैसे मिट्टी लेकर

घड़ा और सोना लेकर गहना और रूई लेकर कपड़ा बनाया जाय । दूसरा

निमित्तजैसे कुम्हार अपनी विघा और सामर्थ्य के साथ घड़े को बनाता है।

तीसरा साधारणजैसे चाक आदि साधन और दिशा, काल इत्यादि ।

अब जो ईश्वर को जगत् का उपादान कारण मानें तो ईश्वर ही जगत्रूप

बनता है क्योंकि मिट्टी से घड़ा अलग नहीं हो सकता । और जो निमित्त

मानें तो जैसे कुम्हार मिट्टी के बिना घड़ा नहीं बना सकता और जो

साधारण मानें जैसे मिट्टी से अपने आप बिना कुम्हार घड़ा नहीं बन सकता।

इन दोनों व्यवस्थाओं में वह पराधीन वा जड़ ठहरता है। इस लिये जो यह

कहते हैं कि ईश्वर जगत् रूप बन गया है तो उनके कहने से चोर आदि

होने का दोष ईश्वर में आता है । इससे ऐसी व्यवस्था माननी चाहिये कि

जगत् का कारण अनादि है और नाना प्रकार के जगत् को बनाने वाला

परमात्मा है । और इसी प्रकार जीव भी अपने स्वरूप से अनादि हैं

और स्थूल कार्य जगत् तथा जीवों के कर्म नित्यप्रवाह से अनादि हैं।

ऐसे माने बिना किसी प्रकार से निर्वाह नहीं हो सकता ।

अब यह कि ईश्वर ने किस समय जगत् को बनाया अर्थात् संसार को

बने कितने वर्ष हो गये ? इसका उत्तर दिया जाता है

सुनो भाइयो ! इस प्रश्न का हम लोग तो उत्तर दे सकते हैं आप लोग

नहीं दे सकते । क्योंकि जब आप लोगों के मतों में से कोई अठारह सौ वर्ष

से, कोई तेरह सौ वर्ष से और कोई पांच सौ वर्ष से उत्पत्ति कहता है तो

फिर आप लोगों के मत में इतिहास के वर्षों का लेख किसी प्रकार नहीं हो

सकता । और हम आर्य लोग सदा से कि जब से यह सृष्टि हुई बराबर

विद्वान् होते चले आये हैं । देखो ! इस देश से और सब देशों में विघा

गई है । इस बात में सब देश वालों के इतिहासों का प्रमाण है कि आर्यावर्त्त

देश से मिस्र देश में और वहां से यूनान और यूनान से योरोप आदि में विघा

फैली है । इसलिये इसका इतिहास किसी दूसरे मत में नहीं हो सकता ।

देखो ! हम आर्य लोग संसार की उत्पत्ति और प्रलय विषय में वेद

आदि शास्त्रों की रीति से सदा से जानते हैं कि हजार चतुर्युगी का एक ब्राह्मदिन

और इतने ही युगों की एक ब्राह्म—रात्रि होती है । अर्थात् जगत् की उत्पत्ति

होके जब तक कि वर्तमान होता है उसका नाम ब्राह्मदिन है । और प्रलय

होके जब तक हजार चतुर्युगीपर्य्यन्त उत्पत्ति नहीं होती उसका नाम ब्राह्म—रात्रि

है । एक कल्प में चौदह मन्वन्तर होते हैं और एक मन्वन्तर ७१ चतुर्युगियों

का होता है सो इस समय सातवां वैवस्वत मन्वन्तर वर्तमान हो रहा है । और

इससे पहले ये छः मन्वन्तर बीत चुके हैंस्वायम्भुव, स्वारोचिष, औत्तमि,

तामस, रैवत और चाक्षुष । अर्थात् १९६०८५२९७९ वर्षों का भोग हो चुका

है और अब २३३३२२७०२४ वर्ष इस सृष्टि को भोग करने के बाकी रहे

हैं। सो हमारे देश के इतिहास में यथार्थ क्रम से सब बातें लिखी हैं । और

ज्योतिष शास्त्र में भी मिति, वार प्रति संवत् घटाते बढ़ाते रहे हैं । और ज्योतिष

की रीति से जो वर्ष पत्र बनता है उसमें भी यथावत् सब को क्रम से लिखते

चले आते हैं । अर्थात् एक—एक वर्ष घटाते और एक—एक वर्ष भोगने में आज

तक बढ़ाते आये हैं । इस बात में सब आर्य्यावर्त्त देश के इतिहास एक हैं।

किसी में कुछ विरोध नहीं ।

फिर जब कि जैन मतवाले और मुसलमान इस देश के इतिहासों को

नष्ट करने लगे तब आर्य लोगों ने सृष्टि के इतिहास को कण्ठ कर लिया।

सो बालक से लेके वृद्ध तक नित्यप्रति उच्चारण करते हैं कि जिसको सटल्प

कहते हैं और वह यह है

ओं तत्सत् श्री ब्रह्मणो द्वितीये प्रहरार्द्धे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे

कलियुगे कलिप्रथमचरणे आर्य्यावर्त्तान्तरैकदेशेऽमुकनगरेऽमुकसंवत्सरायनर्तुमास—

पक्षदिननक्षत्रलग्नमुहूर्त्तेऽत्रेदं कार्य कृतं क्रियते वा ।।

जो इसको ही विचार लें तो इससे सृष्टि के वर्षों की गणना बराबर

जान पड़ती है ।

जो कोई यह कहे कि हम इस बात को नहीं मान सकते तो उसको

उत्तर यह है कि जो परम्परा से मिति, वार, दिन चढ़ाते चले आते हैं और

जब कि इतिहासों और ज्योतिष शास्त्रों में भी इसी प्रकार लिखा है तो फिर

इसको मिथ्या कोई नहीं कह सकता । जैसे कि बहीखाते में प्रतिदिन मिति,

वार लिखते हैं और उसको कोई झूठ नहीं कह सकता । और जो यह कहता

है उससे भी पूछना चाहिए कि तुम्हारे मत में सृष्टि की उत्पत्ति को कितने

वर्ष हुए हैं ? तब वह या तो छः हजार या सात हजार या आठ हजार वर्ष

बतलायेगा । तो वह भी अपने पुस्तकों के अनुसार कहता है तो इसी प्रकार

उसको भी कोई नहीं मानेगा क्योंकि यह पुस्तक की बात है ।

और देखो भूगर्भविघा से जो देखा जाता है तो उससे भी यह ही गणना

ठीक—ठीक आती है । इसलिए हम लोगों के मत में तो जगत् के वर्षों की

गिनती बन सकती है और किसी के मत में कदाचित् नहीं । इसलिये यह

व्यवस्था सृष्टि की उत्पत्ति के वर्षों की सब को ठीक माननी उचित है ।

अब यह कि ईश्वर ने किस लिए सृष्टि को उत्पन्न किया ? इसका

उत्तर दिया जाता है

जीव और जगत् का कारण स्वरूप से अनादि, और जीव के कर्म तथा

कार्यजगत् नित्यप्रवाह से अनादि हैं । जब प्रलय होता है तब जीवों के कुछ

कर्म शेष रह जाते हैं तो उनके भोग कराने के लिए और फल देने के लिए

ईश्वर सृष्टि को रचता है और अपने पक्षपातरहित न्याय को प्रकाशित करता

है । ईश्वर में जो ज्ञान, बल, दया आदि और रचने की अत्यन्त शक्ति है

उनके सफल करने के लिये उसने सृष्टि रची है। जैसे आंख देखने के लिए

और कान सुनने के लिए हैं वैसे रचनाशक्ति रचने के लिये है । सो अपनी

सामर्थ्य की सफलता करने के लिए ईश्वर ने इस जगत् को रचा है कि सब

लोग सब पदार्थों से सुख पावें। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के

लिए जीवों के नेत्र आदि साधन भी रचे हैं । इसी प्रकार सृष्टि के रचने में

और भी अनेक प्रयोजन हैं कि जो समय कम रहने से अब नहीं कहे जा

सकते । विद्वान् लोग आप जान लेंगे ।

पादरी स्काट साहबजिसकी सीमा होती है वह अनादि नहीं हो

सकता। जगत् की सीमा का निरूपण है इसलिये वह अनादि नहीं हो सकता।

कोई पदार्थ अपने आपको नहीं रच सकता परन्तु ईश्वर ने जगत् को अपनी

सामर्थ्य से रचा है । कोई नहीं जानता कि ईश्वर ने किस पदार्थ से रचा है

और पण्डित जी ने भी नहीं बताया कि किस पदार्थ से जगत् को रचा ।

मौलवी मुहम्मद कासिम साहबजब कि सब पदार्थ सदा से हैं तो

ईश्वर को मानना व्यर्थ है । कोई उत्पत्ति का समय नहीं कह सकता ।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी(पादरी साहब के उत्तर में)पादरी

साहब मेरे कहने को नहीं समझे । मैं तो केवल जगत् के कारण को ही

अनादि कहता हूं और जो कार्य है सो अनादि नहीं होता । जैसे मेरा शरीर

साढ़े तीन हाथ का है सो उत्पन्न होने से पहले ऐसा न था और न नाश होने

के पश्चात् ही ऐसा रहेगा । पर इसमें जितने परमाणु हैं वे नष्ट नहीं होते।

इस शरीर के परमाणु पृथव्Q—पृथव्Q होकर आकाश में बने रहते हैं और उन

परमाणुओं में जो संयोग और वियोग· की शक्ति है तो वह सदा उनमें रहती

· सब लोग देखते हैं कि अग्नि में बहुत से पदार्थ जल जाते हैं । अब विचार

करना चाहिये कि जब कोई पदार्थ जल जाता है तो क्या हो जाता है । देखने में आता

है कि लकड़ी जलकर थोड़ी सी राख रह जाती है । तो अब यह विचारना चाहिए

कि जलने से वह पदार्थ ही नष्ट हो जाता है वा उसका स्वरूप ही बदल जाता

है ? जब मोमबत्ती जलाते हैं तो देखने में वह मोम नहीं रहता । यह जान नहीं पड़ता

कि कहां गया परन्तु उस मोम का स्वरूप बदलकर वायु के सदृश हो जाता है और

इसी कारण वायु में मिल जाने से दृष्टि में नहीं आता ।

इस की परीक्षा के लिये एक बोतल के भीतर मोमबत्ती जलाओ और उसका

मुख बन्द कर दो तो उस बत्ती का जितना भाग वायु के सदृश हो जावेगा वह बोतल

से बाहर नहीं जा सकेगा । पर थोड़ी देर के पीछे यह दिखलाई देगा कि वह बत्ती

बुझ गई । अब यह सोचना चाहिए कि बत्ती क्यों बुझ गई और बोतल के वायु में

अब कुछ भेद हुआ वा नहीं ? इस बात की परीक्षा इस प्रकार होगी कि थोड़ा सा

चूने का पानी उस बोतल में और एक और बोतल में जिसमें केवल वायु भरा हुआ

हो और उसमें कोई बत्ती न जली हो, डालो तो यह दिखलाई देगा कि जिस बोतल

में जली है उसमें चूने का रंग दूध सा हो जावेगा और दूसरी बोतल का जैसे का तैसा

है । जैसा मिट्टी से घड़ा बनाया जो कि बनाने के पहले नहीं था और नाश

होने के पश्चात् भी नहीं रहेगा परन्तु जो मिट्टी है वह नष्ट नहीं होती । और

जो गुण अर्थात् चिकनापन उसमें है कि जिससे वह पिण्डाकार होता है वह

भी मिट्टी में सदा से है । वैसे ही संयोग और वियोग होने की योग्यता परमाणुओं

में सदा से है । इससे यह समझना चाहिए कि जिन परमाणु द्रव्यों से यह

जगत् बना है वे द्रव्य अनादि हैं, कार्य द्रव्य नहीं । और मैंने यह कब कहा

था कि जगत् के पदार्थ स्वयम् अपने को बना सकते हैं मेरा कहना तो यह

था कि ईश्वर ने उस कारण से जगत् को रचा है ।

और जो पादरी साहब ने कहा कि शक्ति से जगत् को रचा है तो मैं

पूछता हूं कि शक्ति कोई वस्तु है वा नहीं ? जो कहो कि है तो वह अनादि

हुई । और जो कहो कि नहीं तो उससे आगे को दूसरी कोई वस्तु भी नहीं

बन सकती । और जो पादरी साहब ने कहा कि पण्डित जी ने यह नहीं बताया

कि किस से यह जगत् बना है उसको प्रकृति आदि नामों से कि जिसको

परमाणु भी कहते हैं कहा था ।

(मौलवी साहब के उत्तर में)सब पदार्थों का कारण अनादि है

तो भी ईश्वर को मानना अवश्य है क्योंकि मिट्टी में यह सामर्थ्य नहीं

कि आप से आप घड़ा बन जाये । जो कारण होता है वह आप कार्यरूप

नहीं बन सकता क्योंकि उसमें बनने का ज्ञान नहीं होता । और कोई जीव

भी उसको नहीं बना सकता । आज तक किसी ने कोई वस्तु ऐसी नहीं बनाई

जैसा कि यह मेरा रोम है । ऐसी वस्तु कोई नहीं बना सकता । और आज

तक ऐसा कोई मनुष्य नहीं हुआ और न है कि जो परमाणुओं को पकड़ के

किसी युक्ति से उनसे ऐसी वस्तु बना सके । कोई दो त्रसरेणुओं का भी संयोग

नहीं कर सकता । इससे यह सिद्ध हुआ कि केवल उस परमेश्वर की ही

यह सामर्थ्य है कि सब जगत् को रचे ।

देखो ! एक आंख की रचना में ही कितनी विघा का दृष्टान्त है ।

आज तक बड़े—बड़े वैघ अपनी बुद्धि लगाते चले आते हैं तो भी आंख की

विघा अधूरी ही है । कोई नहीं जानता कि किस—किस प्रकार और क्या—क्या

गुण ईश्वर ने उसमें रक्खे हैं । इसलिये सूर्य, चांद आदि जगत् का रचना और

रहेगा। इससे सिद्ध हुआ कि बत्ती के जलाने से कोई नई वस्तु बोतल के वायु में मिल

गई है । वह एक वस्तु वायु के सदृश है कि जो दृष्टि में नहीं आती। अब देखना

चाहिए कि मोमबत्ती का कोई परमाणु नष्ट नहीं होता पर जिन पदार्थों से वह बत्ती

बनी है उनका स्वरूप भिन्न हो जाता है।।

धारण करना ईश्वर ही का काम है । तथा जीवों के कर्म्मों के फल का पहुंचाना

यह भी परमात्मा ही का काम है किसी दूसरे का नहीं । इससे ईश्वर को

मानना अवश्य है ।

एक हिन्दुस्तानी पादरी साहबजब दो वस्तु हैंएक कार्य, दूसरा

कारण तो दोनों अनादि नहीं हो सकते । इससे ईश्वर ने नास्ति से अस्ति अपनी

सामर्थ्य से की है ।

मौलवी मुहम्मद कासिम साहबगुण दो प्रकार के होते हैंएक

अन्तःस्थ दूसरे बाह्य । अन्तःस्थ तो अपने में होते हैं और बाह्य दूसरे से अपने

में आते हैं । और अन्तःस्थ गुण दूसरे में जाकर वैसे ही बन जाते हैं परन्तु

जिसके गुण होते हैं वह उससे पृथव्Q होता है। जैसे सूर्य का प्रतिबिम्ब जिस

बर्तन में पड़ता है वैसा ही बन जाता है परन्तु सूर्य नहीं हो जाता । वैसे ही

ईश्वर ने हम को अपनी इच्छा से बनाया है ।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी(ईसाई साहब के उत्तर में)आप दोनों

के अनादि होने में क्यों शटा करते हैं ? क्योंकि जितने पदार्थ इस जगत् में

बने हैं उन सब का कारण अर्थात् परमाणु आदि सब अनादि हैं । और जीव

भी अनादि हैं कि जिनकी संख्या कोई नहीं बता सकता । और नास्ति से

अस्ति कभी नहीं हो सकती सो मैं पहले कह चुका हूं । परन्तु आप जो कहते

हैं कि शक्ति से बनाया तो बतलाओ कि शक्ति क्या वस्तु है ? जो कहो

कि कोई वस्तु है तो फिर वही कारण ठहरने से अनादि हुई । और ईश्वर

के नाम, गुण, कर्म सब अनादि हैं कोई अब नहीं बने ।

(मौलवी साहब के उत्तर में)आप जो यह कहो कि भीतर के गुणों

से जगत् बना है तो भी नहीं हो सकता क्योंकि गुण द्रव्य के विना अलग

नहीं रह सकते और गुण द्रव्य से बन भी नहीं सकता । जब भीतर के गुणों

से जगत् बना है तो जगत् भी ईश्वर हुआ । जो यह कहो कि बाहर के गुणों

से जगत् बना तो ईश्वर के सिवाय आपको भी वे गुण और द्रव्य अनादि मानने

पड़ेंगे । और जो यह कहो कि इच्छा से हम लोग बन गये तो मेरा यह प्रश्न

है कि इच्छा कोई वस्तु है वा गुण है ? जो वस्तु कहोगे तो वह अनादि ठहर

जायेगी और जो गुण मानोगे तो जैसे केवल इच्छा से घड़ा नहीं बन सकता

परन्तु मिट्टी से बनता है तो वैसे ही इच्छा से हम लोग नहीं बन सकते ।

पादरी स्काट साहबहम लोग इतना जानते हैं कि नास्ति से अस्ति

को ईश्वर ने बनाया। यह हम नहीं जानते कि किस पदार्थ से और किस प्रकार

यह जगत् बनाया । इसको ईश्वर ही जानता है । मनुष्य कोई नहीं जान सकता।

मौलवी मुहम्मद कासिम साहब ईश्वर ने अपने प्रकाश से जगत्

बनाया है ।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी(पादरी साहब के उत्तर में) कार्य को

देखकर कारण को देखना चाहिये कि जो वस्तु कार्य है वैसा ही उसका कारण

होता है । जैसे घड़े को देखकर उसका कारण मिट्टी जान लिया जाता है

कि जो वस्तु घड़ा है वही वस्तु मिट्टी है । आप कहते हैं कि अपनी शक्ति

से जगत् को रचा, सो मेरा यह प्रश्न है कि वह शक्ति अनादि है वा पीछे

से बनी है ? जो अनादि है तो द्रव्यरूप उसको मान लो तो उसी को जगत्

का अनादि कारण मानना चाहिये ।

(मौलवी साहब के उत्तर में)नूर कहते हैं प्रकाश को, उस प्रकाश से

कोई दूसरा द्रव्य नहीं बन सकता । परन्तु वह नूर मूर्तिमान् द्रव्य को प्रसिद्ध दिखला

सकता है और वह प्रकाश करने वाले पदार्थ के विना अलग नहीं रह सकता।

इससे जगत् का जो कारण प्रकृति आदि अनादि है उसको माने विना किसी प्रकार

से किसी का निर्वाह नहीं हो सकता । और हम लोग भी कार्य को अनादि नहीं

मानते परन्तु जिससे कार्य बना है उस कारण को अनादि मानते हैं ।

एक हिन्दुस्तानी ईसाई साहबजो ईश्वर ने अपनी प्रकृति से सब

संसार को रचा तो उसकी प्रकृति में सब संसार सनातन था । और वह उसकी

प्रकृति में अनादि था तो ईश्वर की सीमा हो गई ।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जीजबकि ईश्वर की प्रकृति में सब जगत्

था तब ही तो वह अनादि हुआ और वही अनादि वस्तु रचने से सीमा में आई।

अर्थात् लम्बा—चौड़ा, बड़ा—छोटा आदि सब प्रकार का ईश्वर ने उसमें से बनाया।

इसलिये रचे जाने से केवल जगत् ही की सीमा हुई ईश्वर की नहीं ।

अब देखिये मैंने जो पहले कहा था कि नास्ति से अस्ति कभी नहीं

हो सकती किन्तु भाव से ही भाव होता है सो आप लोगों के कहने से भी

वह बात सिद्ध हो गई कि जगत् का कारण अनादि है ।

ईसाई साहबसुनो भाई मौलवी साहबो ! कि पण्डित जी इसका उत्तर

हजार प्रकार से दे सकते हैं । हम और तुम हजारों मिलकर भी इन से बात

करें तो भी पण्डित जी बराबर उत्तर दे सकते हैं । इसलिये इस विषय में

अधिक कहना उचित नहीं ।

ग्यारह बजे तक यह वार्ता सिद्ध हुई । फिर सब लोग अपने—अपने

डेरों को चले गये । और सब जगह मेले में यही बातचीत होती थी कि जैसा

पण्डित जी को सुनते थे उससे सहस्रगुणा पाया ।

दोपहर के पश्चात् की सभा

फिर एक बजे सब लोग आये और इस पर विचार किया कि अब समय

बहुत थोड़ा और बातें बहुत बाकी हैं इसलिये केवल मुक्ति विषय पर विचार

करना उचित है । प्रथम थोड़ी देर तक ये बातें होती रहीं कि पहले कौन वर्णन

करे ? एक दूसरे पर टालता था । तब स्वामी जी ने कहा कि उसी क्रम से भाषण

होना चाहिये । अर्थात् पहले पादरी साहब, फिर मौलवी साहब और फिर मैं ।

परन्तु जब पादरी साहब और मौलवी साहब दोनों ने कहा कि हम पहले न बोलेंगे

तब स्वामी जी ने ही पहले कहना स्वीकार किया ।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जीमुक्ति कहते हैं छूट जाने को अर्थात्

जितने दुःख हैं उनसे सब छूटकर एक सच्चिदानन्द स्वरूप परमेश्वर को प्राप्त

होकर सदा आनन्द में रहना, फिर जन्म—मरण आदि दुःखसागर में नहीं गिरना।

इसी का नाम मुक्ति है । वह किस प्रकार से होती है ? इसका पहला

साधन सत्य का आचरण है और वह सत्य आत्मा और परमात्मा की साक्षी

से निश्चय करना चाहिये अर्थात् जिसमें आत्मा और परमात्मा की साक्षी न

हो, वह असत्य है । जैसे किसी ने चोरी की । जब वह पकड़ा गया उससे

राजपुरुष ने पूछा कि तू ने चोरी की या नहीं ? तब तक वह कहता है कि

मैंने चोरी नहीं की । परन्तु उसका आत्मा भीतर से कह रहा है कि मैंने चोरी

की है। तथा जब कोई झूठ की इच्छा करता है तब अन्तर्यामी परमेश्वर उसको

जता देता है कि यह बुरी बात है । इसको तू मत कर और लज्जा, शटा

और भय आदि उसके आत्मा में उत्पन्न कर देता है । और जब सत्य की

इच्छा करता है तब उसके आत्मा में आनन्द कर देता है । और प्रेरणा करता

है कि यह काम तू कर । अपना आत्मा जैसे सत्य काम करने में निर्भय और

प्रसन्न होता है वैसे झूठ में नहीं होता । जब परमात्मा की आज्ञा को तोड़कर

बुरा काम कर लेता है तब उस की मुक्ति किसी प्रकार नहीं हो सकती।

और उसी को असुर, दुष्ट, दैत्य और नीच कहते हैं । इसमें वेद का प्रमाण

है कि

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः ।

ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ।।

यजुर्वेद, अध्याय ४० । मन्त्र ३ ।।

आत्मा का हिंसन करने वाला अर्थात् जो परमेश्वर की आज्ञा को

तोड़ता है और अपने आत्मा के ज्ञान के विरुद्ध बोलता, करता और मानता

है उसी का नाम असुर, राक्षस, दुष्ट, पापी, नीच आदि होता है ।

मुक्ति के मिलने के साधन ये हैं १सत्य आचरण । २सत्यविघा

अर्थात् ईश्वरकृत वेदविघा को यथावत् पढ़कर ज्ञान की उन्नति और सत्य

का पालन यथावत् करना । ३सत्यपुरुष ज्ञानियों का सग् करना ।

४योगाभ्यास करके अपने मन, इन्द्रियों और आत्मा को असत्य से हटाकर

सत्य में स्थिर करना और ज्ञान को बढ़ाना । ५परमेश्वर की स्तुति करना

अर्थात् उसके गुणों की कथा सुनना और विचारना । ६प्रार्थना कि जो इस

प्रकार होती है किहे जगदीश्वर ! हे कृपानिधे ! हे अस्मत्पितः ! असत्य

से हम लोगों को छुड़ा के सत्य में स्थिर कर और हे भगवन् ! हम को

अन्धकार अर्थात् अज्ञान और अधर्म आदि दुष्टकामों से अलग करके विघा

और धर्म आदि श्रेष्ठ कामों में सदा के लिये स्थापन कर । और हे ब्रह्म !

हम को जन्म—मरणरूप संसार के दुःखों से छुड़ाकर अपने कृपाकटाक्ष से

अमृत अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर ।

जब सत्य मन से अपने आत्मा, प्राण और सब सामर्थ्य से परमेश्वर

को जीव भजता है तब वह करुणामय परमेश्वर उसको अपने आनन्द में स्थिर

कर देता है । जैसे जब कोई छोटा बालक घर के ऊपर से अपने माता—पिता

के पास नीचे आना चाहता है वा नीचे से ऊपर उनके पास जाना चाहता

है तब हजारों आवश्यकता के कामों को भी माता पिता छोड़कर और दौड़कर

अपने लड़के को उठाकर गोद में लेते हैं कि हमारा लड़का कहीं गिर पड़ेगा

तो उसको चोट लगने से उसको दुःख होगा । और जैसे माता—पिता अपने

बच्चों को सदा सुख में रखने की इच्छा और पुरुषार्थ सदा करते रहते हैं वैसे

ही परम कृपानिधि परमेश्वर की ओर जब कोई सच्चे आत्मा के भाव से

चलता है, तब वह अनन्तशक्तिरूप हाथों से उस जीव को उठाकर अपनी

गोद में सदा के लिए रखता है । फिर उसको किसी प्रकार का दुःख नहीं

होने देता है और वह सदा आनन्द में रहता है ।

पक्षपात को छोड़कर सत्य ग्रहण और असत्य का परित्याग कर के

अर्थ को सिद्ध करना चाहिए । देखो ! सब अन्याय और अधर्म पक्षपात

से होता है। जैसे कि मौलवी साहब का वस्त्र बहुत अच्छा है । मुझ को

मिले तो मैं उसको ओढ़कर सुख पाउंQ । इसमें अपने सुख का पक्षपात किया

और मौलवी साहब के सुख—दुःख का कुछ विचार न किया । इसी प्रकार

पक्षपात से ही नित्य अधर्म होता है । अधर्म से काम को सिद्ध करना इसी

को अनर्थ कहते हैं । और धर्म और अर्थ से कामना अर्थात् अपने सुख

की सिद्धि करना इस को काम कहते हैं । और अधर्म अर्थात् अनर्थ से

काम की सिद्धि करना इसको कुकाम कहते हैं । इसलिए इन तीनों अर्थात्

धर्म, अर्थ और काम से मोक्ष को सिद्ध करना उचित है । इसमें यह बात

है कि ईश्वर की आज्ञा का पालन करना इसको धर्म, और उसकी आज्ञा

का तोड़ना इसको अधर्म कहते हैं । सो धर्म आदि ही मुक्ति के साधन हैं और

कोई नहीं । और मुक्ति सत्य पुरुषार्थ से सिद्ध होती है अन्यथा नहीं ।

पादरी स्काट साहबपण्डित जी ने कहा कि सब दुःखों से छूटने

का नाम मुक्ति है, परन्तु मैं कहता हूं कि सब पापों से बचने और स्वर्ग में

पहंुचने का नाम मुक्ति है। कारण यह कि ईश्वर ने आदम को पवित्र रचा

था परन्तु शैतान ने उसको बहका के उससे पाप करा दिया। इससे उसकी

सब सन्तान भी पापी है। जैसे घड़ी बनाने वाले ने उसकी चाल स्वतन्त्र रक्खी

है और वह आप ही चलती है। ऐसे मनुष्य भी अपनी इच्छा से पाप करते

हैं तो फिर अपने ऐश्वर्य से मुक्ति नहीं पा सकते और न पापों से बच सकते

हैं। इसलिए प्रभु ईसामसीह पर विश्वास किये बिना मुक्ति नहीं हो सकती।

जैसे हिन्दू लोग कहते हैं कि कलियुग मनुष्यों को पाप कराके बिगाड़ता है

इससे उनकी मुक्ति नहीं हो सकती । परन्तु ईसामसीह पर विश्वास करने से

वे भी बच सकते हैं ।

प्रभु ईसामसीह जिस—जिस देश में गये अर्थात् उसकी शिक्षा जहां—जहां

गई है वहां—वहां मनुष्य पापों से बचते जाते हैं । देखो ! इस समय सिवाय

ईसाइयों के और किसी के मत में भलाई और अच्छे गुणों की उन्नति है ?

मैं एक दृष्टान्त देता हूं कि जैसे पण्डित जी बलवान् हैं ऐसे ही इंगलिस्तान

में एक मनुष्य बलवान् था । परन्तु वह मघपान, चोरी, व्यभिचार आदि बुरे

काम करता था। जब वह ईसामसीह पर विश्वास लाया तब वह सब बुराइयों

से छूट गया । और मैंने भी जब मसीह पर विश्वास किया तब मुक्ति को

पाया और बुरे कामों से बच गया । सो ईसामसीह की आज्ञा के विरुद्ध आचरण

से मुक्ति नहीं हो सकती । इसलिये सब को ईसामसीह पर विश्वास लाना

चाहिए। उसी से मुक्ति हो सकती है और किसी प्रकार नहीं ।

मौलवी मुहम्मद कासिम साहबहम लोग यह नहीं कह सकते कि

पण्डित जी ने जो मुक्ति के साधन कहे केवल उन से ही मुक्ति हो सकती

है। क्योंकि ईश्वर की इच्छा है जिसको चाहे उसको मुक्ति दे और जिसको

न चाहे न दे । जैसे समय का हाकिम जिस अपराधी से प्रसन्न हो उसको

छोड़ दे और जिससे अप्रसन्न हो उसको कैद में डाल दे । उसकी इच्छा है

जो चाहे सो करे । उस पर हमारा ऐश्वर्य नहीं है । न जाने ईश्वर क्या करेगा।

पर समय के हाकिम पर विश्वास रखना चाहिए । इस समय का हाकिम

हमारा पैगम्बर है। उस पर विश्वास लाने से मुक्ति होती है। हाँ ! यह बात

अवश्य है कि विघा से अच्छे काम हो सकते हैं परन्तु मुक्ति तो केवल उसी

के हाथ में है ।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी(पादरी साहब के उत्तर में)आपने

जो यह कहा कि दुःखों से छूटना मुक्ति नहीं, पापों से छूटने का नाम मुक्ति

है। सो मेरे अभिप्राय को न समझकर यह बात कही है । क्योंकि मैं तो और

पहले साधन में ही सब पापों अर्थात् असत्य कामों से बचना कह चुका

हूं। और बुरे कामों का फल भी दुःख कहाता है अर्थात् जब पाप करेगा तो

दुःख से नहीं बच सकता । इसके अनन्तर और साधनों में भी स्पष्ट कहा

है कि अधर्म छोड़कर धर्म का आचरण करना मुक्ति का साधन है । जो

पादरी साहब इन बातों को समझते तो कदाचित् ऐसी बात न कहते ।

दूसरे, जो आप यह कहते हैं कि ईश्वर ने आदम को पवित्र रचा था

परन्तु शैतान ने बहकाकर पाप करा दिया तो उसकी सन्तान भी इसी कारण

से पापी हो गई । सो यह बात ठीक नहीं है क्योंकि आप लोग ईश्वर को

सर्वशक्तिमान् मानते ही हैं । सो जब कि ईश्वर के पवित्र बनाये आदम को

शैतान ने बिगाड़ दिया और ईश्वर के राज्य में विघ्न करके ईश्वर की व्यवस्था

को तोड़ डाला तो इससे ईश्वर सर्वशक्तिमान् नहीं रह सकता । और ईश्वर

की बनाई हुई वस्तु को कोई नहीं बिगाड़ सकता है।

और एक आदम ने पाप किया तो उसकी सारी सन्तान पापी हो गई

यह सर्वथा असम्भव और मिथ्या है । जो पाप करता है वही दुःख पाता है

दूसरा कोई नहीं पा सकता और ऐसी बात कोई विद्वान् नहीं मानेगा । और

देखो एक आदम और हव्वा से किसी प्रकार इस जगत् की उत्पत्ति भी नहीं

हो सकती क्योंकि बहन और भाई का विवाह होना बड़े दोष की बात है।

इसलिए ऐसी व्यवस्था मानना चाहिए कि सृष्टि के आदि में बहुत से पुरुष

और स्त्री परमेश्वर ने रचे ।

और जो यह कहा कि शैतान बहकाता है तो मेरा यह प्रश्न है कि

जब शैतान ने सब को बहकाया तो फिर शैतान को किस ने बहकाया ? जो

कहो कि शैतान आप से आप ही बहक गया तो सब जीव भी आप से आप

ही बहक गये होंगे फिर शैतान को बहकाने वाला मानना व्यर्थ है । जो कहो

कि शैतान को भी किसी ने बहकाया है तो सिवाय ईश्वर के दूसरा कोई

बहकाने वाला शैतान को नहीं है । तो फिर जब ईश्वर ने ही सब को बहकाया

तब मुक्ति देनेवाला कोई भी आप लोगों के मत में न रहा और न मुक्ति पाने

वाला । क्योंकि जब परमात्मा ही बहकाने वाला ठहरा तो बचाने वाला कोई

भी नहीं हो सकता । और यह बात परमात्मा के स्वभाव से भी विरुद्ध है

क्योंकि वह न्यायकारी और सत्य कामों का ही कर्त्ता है तथा अच्छे कामों

से ही प्रसन्न होता है। वह किसी को दुःख देनेवाला और बहकाने वाला नहीं।

और देखो ! कैसे आश्चर्य की बात है कि यदि शैतान ईश्वर के राज्य

में इतना गड़बड़ करता है फिर भी ईश्वर उसको दण्ड न देता है, न मारता

है, न कारागृह में डालता है । इससे स्पष्ट परमात्मा की निर्बलता पायी जाती

है और विदित होता है कि परमात्मा ही को बहकाने की इच्छा है । इससे

यह बात ठीक नहीं और न शैतान कोई मनुष्य है । जब तक शैतान के मानने

वाले शैतान का मानना न छोड़ेंगे तब तक पाप करने से नहीं बच सकते क्योंकि

वे समझते हैं कि हम तो पापी ही नहीं । जैसा शैतान ने आदम को और

उसकी सन्तान को बहका के पापी किया वैसा ही परमात्मा ने आदम की

सन्तान के पाप के बदले में अपने एकलौते बेटे को शूली पर चढ़ा दिया।

फिर हम को क्या डर है । और जो हम से कुछ पाप भी होता है तो हमारा

विश्वास ईसामसीह पर है वह आप क्षमा करा देगा । क्योंकि उसने हमारे

पापों के बदले में जान दी है । इसलिये ऐसी व्यवस्था मानने वाले पापों से

नहीं बच सकते ।

और जो घड़ी का दृष्टान्त दिया था सो ठीक है । क्योंकि सब अपने—अपने

काम करने में स्वतन्त्र हैं परन्तु ईश्वर की आज्ञा अच्छे कामों के करने के

लिये है बुरे के लिये नहीं । और जो आपने यह कहा कि स्वर्ग में पहुंचना

मुक्ति है । शैतान के बहकाने के कारण मनुष्यों में शक्ति नहीं कि पापों से

छूटकर मुक्ति पा सकें यह बात भी ठीक नहीं । क्योंकि जब मनुष्य स्वतन्त्र

हैं और शैतान कोई मनुष्य नहीं तो आप दोषों से बचकर परमात्मा की कृपा

से मुक्ति को पा सकते हैं । और स्वर्ग से आदम गेहूं खाने के कारण निकाला

गया और यह ही आदम को पाप हुआ कि गेहूं खाया तो मैं आप से पूछता

हूं कि आदम ने तो गेहूं खाया और पापी हो गया और स्वर्ग से निकाला गया।

आप लोग जो उस स्वर्ग की इच्छा करते हैं तो क्या आप लोग वहां सब पदार्थ

खावेंगे ? तो क्या पाप नहीं होगा ? और वहां से निकाले नहीं जाओगे ?

इससे यह बात भी ठीक नहीं हो सकती ।

और आप लोगों ने ईश्वर को मनुष्य के सदृश माना होगा अर्थात् जैसे

मनुष्य सर्वज्ञ नहीं वैसे ही आपने परमात्मा को भी माना होगा कि जिससे

आप वहां गवाही और वकील की आवश्यकता बतलाते हैं । परन्तु आपके

ऐसे कहने से ईश्वर की ईश्वरता सब नष्ट हो जाती है । वह सब कुछ जानता

है उसको गवाही और वकील की कुछ आवश्यकता नहीं है । और उसको

किसी की सिफारिश की भी आवश्यकता नहीं । क्योंकि सिफारिश न जानने

वाले से की जाती है । और देखिये ! आपके कहने से परमात्मा पराधीन ठहरता

है क्योंकि विना ईसामसीह की गवाही वा सिफारिश के वह किसी को मुक्ति

नहीं दे सकता और कुछ भी नहीं जानता । इससे परमात्मा में अल्पज्ञता आती

है कि जिससे वह सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ किसी प्रकार नहीं हो सकता।

और देखो ! जबकि वह न्यायकारी है तो किसी की सिफारिश और मिथ्या

प्रशंसा से न्याय के विरुद्ध कदाचित् नहीं कर सकता जो विरुद्ध करता है

तो न्यायकारी नहीं ठहर सकता ।

इसी प्रकार जो आप मनुष्य हाकिम के सदृश ईश्वर के दरबार में

भी फरिश्तों का होना मानोगे तो और बहुत से दोष ईश्वर में आवेंगे।

इससे ईश्वर सर्वव्यापक नहीं हो सकता क्योंकि जो सर्वव्यापक है तो शरीर

वाला न होना चाहिये । और जो सर्वव्यापक नहीं है तो अवश्य है कि शरीर

वाला हो । और शरीर वाला होने से उसकी शक्ति सब पर घेरने वाली न

हुई। और शरीर वाला जितना दूर का ज्ञान रखता है पर उसको पकड़ और

मार नहीं सकता । और जो शरीर वाला होगा उसका जन्म और मरण भी

अवश्य होगा । इसलिये ईश्वर को किसी एक जगह पर और फरिश्तों का

उसके दरबार में होना, ऐसी बातें मानना किसी प्रकार ठीक नहीं हो सकता।

नहीं तो ईश्वर की सीमा हो जायेगी ।

देखो ! हम आर्य्य लोगों के शास्त्रों को यथावत् पढ़े बिना लोगों को

उलटा निश्चय हो जाता है अर्थात् कुछ का कुछ मान लिया जाता है । जो

पादरी साहब ने कलियुग के विषय में कहा सो ठीक नहीं । क्योंकि हम

आर्य्य लोग युगों की व्यवस्था इस प्रकार से नहीं मानते । ऐतरेय ब्राह्मण का

प्रमाण है कि

कलिश्शयानो भवति सञ्जिहानस्तु द्वापरः ।

उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं सम्पघते चरन् ।।

(ऐत० पञ्जिका ७ । कण्डिका १५)

अर्थात् जो पुरुष सर्वथा अधर्म करता है और नाममात्र धर्म करता है

उसको कलि, और जो आधा अधर्म और आधा धर्म करता है उसको द्वापर

और एक हिस्सा अधर्म और तीन हिस्से धर्म करता है उसको त्रेता और जो

सर्वथा धर्म करता है उसको सतयुग कहते हैं ।

इसके जाने विना कोई बात कह देना ठीक नहीं हो सकती । इससे

जो कोई बुरा काम करता है वह दुःख पाने से कदाचित् नहीं बच सकता।

और जो कोई अच्छा काम करता है वह दुःख पाने से बच जाता है, किसी

भी देश में चाहे क्यों न हो ।

क्या ईसामसीह के विना ईश्वर अपने सामर्थ्य से अपने भक्तों को नहीं

बचा सकता है ? वह अपने भक्तों को सब प्रकार से बचा सकता है । उसको

किसी पैगम्बर की आवश्यकता नहीं । हाँ ! यह सच है कि जब जिस—जिस

देश में शिक्षा करनेवाले धर्मात्मा उत्तम पुरुष होते हैं उस—उस देश के मनुष्य

पापों से बच जाते हैं । और उन्हीं देशों में सुख और गुणों की वृद्धि होती

है । यह भी सब लोगों के लिये सुधार हैे । इसका कुछ मत से प्रयोजन नहीं।

देखो ! आर्य लोगों में पूर्व उपदेश की व्यवस्था अच्छी थी । इससे उस समय

में वे सुधरे हुए थे । इस समय में अनेक कारणों से सत्य उपदेश कम होने

से जो किसी बात का बिगाड़ हो तो इससे आर्य लोगों के सनातन मत में

कोई दोष नहीं आ सकता । क्योंकि सृष्टि की उत्पत्ति के समय से लेके आजतक

आर्यों ही का मत चला आता है । वह अब तक कुछ नहीं बिगड़ा ।

देखो ! जितने १८०० वा १३०० वर्षों के भीतर ईसाइयों और

मुसलमानों के मतों में आपस के विरोध से फिरके हो गये हैं । उनके सामने

जो १९६०८५२९७६ वर्षों के भीतर आर्यों के मत में बिगाड़ा हुआ तो

वह बहुत ही कम है । और आप लोगों में जितना सुधार है सो मत के

कारण नहीं किन्तु पार्लिमेण्ट आदि उत्तम प्रबन्ध से है, जो ये न रहें, मत से

कुछ भी सुधार न हो । और पादरी साहब ने जो इंगलिस्तान के दुष्ट मनुष्य

का दृष्टान्त मेरे साथ मिलाकर दिया सो इस प्रकार कहना उनको योग्य न

था । परन्तु न जाने किस प्रकार से यह बात भूल से उनके मुख से निकली।

(मौलवी साहब के उत्तर में)ईश्वर चाहे सो करे ऐसा ठीक नहीं।

क्योंकि वह पूर्ण विघा और ठीक—ठीक न्याय पर सदा रहता है । किसी का

पक्षपात नहीं करता । इस कहने से कि जो चाहे सो करे यह भी आता है

कि ईश्वर ही बुराई भी करता होगा और उसी की इच्छा से बुराई होती है,

यह कहना ईश्वर में नहीं बनता । ईश्वर जो कोई मुक्ति का काम करता है

उसी को मुक्ति देता है । मुक्ति के काम के विना किसी को मुक्ति नहीं

देता, क्योंकि वह अन्याय कभी नहीं करता । जो विना पाप—पुण्य के देखे

जिसको चाहे दुःख देवे और जिसको चाहे सुख तो ईश्वर में अन्याय आदि

प्रमाद लगता है। सो वह ऐसा कभी नहीं करता। जैसे अग्नि का स्वभाव प्रकाश

और जलाने का है । इनके विरुद्ध नहीं कर सकता । वैसे ही परमात्मा भी

अपने न्याय के स्वभाव से विरुद्ध पक्षपात से कोई व्यवस्था नहीं कर सकता।

सब समय का हाकिम मुक्ति के लिए परमेश्वर ही है दूसरा कोई

नहीं। और जो कोई दूसरे को माने, उसका मानना व्यर्थ है । मुक्ति दूसरे पर

विश्वास करने से कभी नहीं हो सकती । क्योंकि ईश्वर जो मुक्ति देने में

दूसरे के आधीन है या दूसरे के कहने से दे सकता है तो मुक्ति देने में

ईश्वर पराधीन है तो वह ईश्वर ही नहीं हो सकता। वह किसी का सहाय

अपने काम में नहीं लेता क्योंकि वह सर्वशक्तिमान् है । मैं जानता हूं कि

सब विद्वान् ऐसा ही मानते होंगे । जो पक्षपात से औरों के दिखाने को न मानते

हों तो दूसरी बात है ।

इसमें मुझ को बड़ा आश्चर्य है कि परमात्मा को ट्टट्टलाशरीक’’ भी मानते

हैं और फिर पैगम्बरों को भी मुक्ति देने में उसके साथ मिला देते हैं । यह बात

कोई विद्वान् नहीं मानेगा । इससे यह सिद्ध होता है कि परमेश्वर धर्मात्मा मनुष्यों

को मुक्ति के काम करने से मुक्ति स्वतन्त्रता से दे सकता है किसी की सहायता

के आधीन नहीं । मनुष्य को ही आपस में सहायता की आवश्यकता है ईश्वर

को नहीं । न वह मिथ्या प्रसन्न होने वाला है । जो मिथ्या प्रसन्न होकर अन्याय

करे । वह तो अपने सत्य धर्म और न्याय से सदा युक्त है और अपने सत्य प्रेम

से भरे हुए भक्तों को यथावत् मुक्ति देकर और सब दुःखों से बचाकर सदा के

लिये आनन्द में रखता है । इसमें कुछ सन्देह नहीं ।।

इतने में चार बज गये । स्वामी जी ने कहा कि हमारा व्याख्यान बाकी

है । मौलवी साहब ने कहा कि हमारे नमाज का समय आ गया । पादरी स्काट

साहब ने स्वामी जी से कहा कि हम को आप से एकान्त में कुछ कहना है सो

वे दोनों तो उधर गये । इधर एक ओर तो एक मौलवी मेज पर जूता पहने हुए

खड़े होकर और दूसरी ओर पादरी अपने मत का व्याख्यान देने लगे ।

और कितने ही लोगों ने यह उड़ा दिया कि मेला हो चुका । तब स्वामी

जी ने पादरी और आर्य लोगों से पूछा कि यह क्या गड़बड़ हो रहा है ? मौलवी

लोग नमाज पढ़कर आये वा नहीं ? उन्होंने उत्तर दिया कि मेला तो हो चुका।

इस पर स्वामी जी बोले कि ऐसे झटपट मेला किसने समाप्त कर दिया ?

न किसी की सम्मति ली गई न किसी से पूछा गया । अब आगे कुछ बातचीत

होगी वा नहीं ?

जब वहां बहुत गड़बड़ देखी और संवाद की कोई व्यवस्था न जान

पड़ी तो लोगों ने स्वामी जी से कहा कि आप भी चलिये । मेला तो पूरा

हो ही गया । इस पर स्वामी जी ने कहा कि हमारी इच्छा तो यह थी कि

कम से कम पांच दिन मेला रहता । इसके उत्तर में पादरी साहबों ने कहा

कि हम दो दिन से अधिक नहीं रह सकते । फिर स्वामी जी आकर अपने

डेरे पर धर्मसंवाद करने लगे। उस दिन रात को पादरी स्काट साहब और दो

पादरियों के साथ स्वामी जी के डेरे पर आये। स्वामी जी ने कुरसियां बिछवा

कर आदरपूर्वक उनको बिठलाया और आप भी बैठ गये । फिर आपस में

बातचीत होने लगी

पादरी साहबों ने पूछा किआवागमन सत्य है वा असत्य ? और

इसका क्या प्रमाण है ?

स्वामी जी ने कहा किआवागमन सत्य है और जैसे कर्म करता है

वैसा ही शरीर पाता है जो अच्छे काम करता है तो मनुष्य का और जो बुरे करता

है तो पक्षी आदि का शरीर पाता है । और जो बहुत उत्तम काम करता है वह

देवता अर्थात् विद्वान् और बुद्धिमान् होता है । देखो ! जब बालक उत्पन्न होता

है तब उसी समय अपनी माता का दूध पीने लगता है । कारण यही है कि उसको

पहले जन्म का अभ्यास बना रहता है । यह भी एक प्रमाण है और धनाढ्य,

कगल, सुखी, दुःखी अनेक प्रकार के उंQच—नीच देखने से विदित है कि कर्मों

का फल है । कर्म से देह और देह से आवागमन सिद्ध है । जीव अनादि हैं कि

जिनका आदि और अन्त नहीं । जिस योनि में जीव जन्म लेता है उसका कुछ

स्वभाव भी बना रहता है । इसी कारण मनुष्य आदि विचित्र स्वभाव और प्रकृति

आदि के होते हैं । इससे भी आवागमन सिद्ध होता है ।

इसी प्रकार और बहुत से प्रमाण आवागमन के हैं । परन्तु जीव का

एक बार उत्पन्न होना और फिर कभी न होना इसका कुछ प्रमाण नहीं हो

सकता । क्योंकि जो मैंने कहा उसके विरुद्ध होना चाहिये था, सो ऐसा होना

असम्भव है । और फिर यह बात कि मरा और हवालात हुई अर्थात् जब कयामत

होगी तब उसका हिसाब और किताब होगा तब तक बेचारा हवालात में रहा

मानना अच्छा नहीं ।

फिर पादरी साहब चले गये । मौलवियों ने शाहजहांपुर जाकर मुन्शी

इन्द्रमणि जी को लिखा कि जो आप यहां आवें तो हम आप से शास्त्रार्थ

करना चाहते हैं परन्तु जब स्वामी जी और मुन्शी जी वहां पहुंचे तो किसी

ने शास्त्रार्थ का नाम तक भी न लिया ।

(दिग्विजयार्वQ पृ० ४१, लेखराम २९२ से ३१४)