मूर्ति नहीं तो मुख कहां से आया

(पण्डित दुर्गादास डुमराओं निवासी से शास्त्रार्थअगस्त १८७३)

नोट२६ जौलाई, सन् १८७३ से ८ अगस्त, सन् १८७३ तक स्वामी

जी रियासत डुमराओं में ठहरे थे । उसी बीच में पण्डित दुर्गादास डुमराओं

निवासी से उनका यह शास्त्रार्थ हुआ था । महाराजा साहब डुमराओं ने रायबहादुर

दीवान जयप्रकाश जी के द्वारा पण्डित दुर्गादत्त जी को बुलाया और स्वामी

जी को भी रेलवे वाली कोठी से तालाब के ऊपर वाली कोठी पर बुलाया।

राजा साहब और दीवान साहब के अतिरिक्त वहां तीन सौ के लगभग मनुष्य

थे । पण्डित जी चूंकि महादेव के पुजारी थे और यह निश्चय हो चुका था

कि शास्त्रार्थ मूर्तिखण्डन पर नहीं होगा इसलिये पण्डित जी इस विचार से

कि मूर्ति के बिना यात्रा करनी पाप हैशिवलिंग की मूर्ति साथ ले गये और

अपने सामने कुर्सी पर रख दी और वार्ता आरम्भ हुई

स्वामी जीहम द्वैत मानते हैं । पण्डित जी ने कहा कि इस श्रुति

एकमेवाद्वितीयम् ब्रह्म’’ से विरोध होता है अर्थात् आप का द्वैत मानना

इस के विरुद्ध है ।

स्वामी जीइसका यह अर्थ नहीं जो आप समझे । इसका यह अर्थ

है कि जैसे किसी के घर में कोई उपस्थित न हो तो वह कहता है कि यहां

मैं एक ही हूं और कोई नहीं परन्तु गांव वाले और नाते कुटुम्ब का निषेध

नहीं । वे विघमान हैं, उनका अस्वीकार नहीं । इसलिए सजातीय तथा जाति

स्वगत भेद शून्य जो शटराचार्य का मत है वह मिथ्या है, हम उसको नहीं

मानते । यहां केवल दूसरे ब्रह्म का निषेध है न कि जीव का ।

पण्डित जीइस सिद्धान्त को तो हम नहीं मानते ।

स्वामी जीशटराचार्य के सिद्धान्त को न मानने में हमने तो युक्ति

दी है । परन्तु जो आप मानते हो तो आपके पास क्या प्रमाण है ?

इसका उन्होंने कोई उत्तर न दिया ।

स्वामी जी ने मूर्ति के विषय में आक्षेप किया कि मूर्तिपूजा में श्रुति

का प्रमाण नहीं ।

पण्डित जी ने

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः ।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ।।

(यजु० ३१।११)

ङ्क्षम्बकं यजामहे सुगनिं्ध पुष्टिवर्धनम् । (यजु० ३।६०)

यह दो श्रुति प्रमाण दीं कि यदि मुख नहीं तो चारों वर्णों की उत्पत्ति

कैसे हुई और मूर्ति नहीं तो मुख कहां से आया और दूसरा मन्त्र विशेष शिव

की पूजा का है जिसके तीन नेत्र हैं और जाबालोपनिषद् में लिखा है

धिव्Q भस्मरहितं भालं धिव्Q ग्राममशिवालयम् ।

इत्यादि प्रमाणों से मूर्तिपूजा सिद्ध है । आप कैसे कहते हैं कि मूर्तिपूजा

में श्रुति प्रमाण नहीं है ।

स्वामी जी ने प्रथम उन दो मन्त्रों का व्याकरण और ब्राह्मण ग्रन्थों के

अनुसार यथार्थ अर्थ करके उनके भ्रम को निवारण करने का प्रयत्न किया

और बताया कि प्रामाणिक उपनिषदों में जाबाल नहीं है, वह जालोपनिषद्

हैउसमें किसी ने वाक्यजाल रचा है । वेद के विरुद्ध है इसलिए अप्रमाण

है । इस पर पण्डित जी ने कुछ उत्तर न दिया । समस्त श्रोतागण परिचित

तथा स्वयं दीवान साहब साक्षी हैं ।

फिर गीता के श्लोक ट्टट्टसर्वधर्मान् परित्यज्य’’ पर कुछ बातचीत होकर

हंसी खुशी से सभा विसर्जित हुई । (लेखराम २२८—२२९)

अग्नि शब्द का क्या अर्थ है ?