(अहमदाबाद में पण्डितों से शास्त्रार्थजनवरी १८७५)
२७ जनवरी को राव बहादुर विट्ठलदास के गृह पर एक सभा हुई।
जिसका उद्देश्य स्वामी जी की विदासूचक संवर्द्धना करना और आर्यसमाज—
स्थापना के विषय में परामर्श करना था । सभा में बेचरदास अम्बाईदास,
गोपालराव हरि देशमुख, भोलानाथ साराभाई, अम्बालाल सागरलाल प्रभृति
महानुभाव उपस्थित थे । इसके अतिरिक्त शास्त्रीगण भी थे । जिनमें से कुछ
के नाम ये हैंशास्त्री सेवकराम, लल्लूभाई बापू जी, भोलानाथ भगवान् ।
शास्त्रीगण कहते थे कि मूर्तिपूजा हमारे शास्त्रों के अनुकूल है । इस
पर बेचरदास अम्बाईदास ने उनसे कहा कि स्वामी जी आपसे शास्त्रार्थ करने
पर उघत हैं, आप उनसे शास्त्रार्थ क्यों नहीं कर लेते ? परन्तु शास्त्री लोग
इस पर सहमत नहीं हुए । उनसे शास्त्रार्थ न करने का कारण पूछा गया ।
उन्होंने कहा कि स्वामी जी ने
आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यञ्च ।
हिरण्ययेन सविता रथेन देवो याति भुवनानि पश्यन् ।।
यजु० ३३।४३।।
वेदमन्त्र का अर्थ अशुद्ध किया है । इस पर सब लोगों ने पण्डितों से
अपना अर्थ करने का अनुरोध किया और कहा कि यह प्रतिपादित करो कि
स्वामी जी ने भूल की है और आपका अर्थ ठीक है । अपने किए हुए अर्थों
के नीचे अपने हस्ताक्षर कर दो । कुछ पण्डित तो सहमत हो गये और उन्होंने
अर्थ करके हस्ताक्षर कर दिये और कुछ इस पर भी सहमत न हुए । स्वामी
जी ने निम्न अर्थ करके उस पर हस्ताक्षर कर दिये ।
स्वामी जी के किये अर्थ
(आकृष्णेन) आकर्षणात्मना (रजसा) रजोरूपेण रजतस्वरूपेण वा
(रथेन) रमणीयेन (देवः) घोतनात्मकः (सविता)प्रसवकर्त्ता वृष्ट्यादेः (मर्त्यम्)
मर्त्यलोकम् (अमृतम्) ओषध्यादिरसं (निवेशयन्) प्रवेशयन् (भुवनानि पश्यन्)
दर्शयन् (याति) रूपादिकं विभक्तं प्रापयतीत्यर्थः (हिरण्ययेन) ज्योतिर्मयेन ।
(सविता) सर्वस्य जगत्—उत्पादकः (देवः) सर्वस्य प्रकाशकः (मर्त्यम्)
मर्त्यलोकस्थान् मनुष्यान् (अमृतम्) सत्योपदेशरूपम् (निवेशयन्) प्रवेशयन्
सर्वाणि (भुवनानि) सर्वज्ञतया (पश्यन्) सन् (आकृष्णेन) सर्वस्याकर्षणस्वरूपेण
परमाणूनां धारणेन वा (रथेन) रमणीयेनानन्दस्वरूपेण वर्त्तमानः सन् (याति)
धर्म्मात्मनः स्वान् भक्तान् सकामान् प्रापयतीत्यर्थः ।
संवत् १९३१ पौष बदि षष्ठी, बुधवार, ७ काल, ४० मिनट सही
सम्मतिरत्र दयानन्दसरस्वतीस्वामिनः ।
शास्त्रियों के किये अर्थ
(आकृष्णेन) ईषत्कृष्णेन (रजसा वर्तमानः) सहितः (सविता देवः)
सूर्य्यः (अमृतम्) स्वर्गं (मर्त्यम्) भूलोकं (निवेशयन्) स्वस्वप्रदेशेषु स्थापयन्
(हिरण्ययेन रथेन) स्यन्दनेन (भुवनानि पश्यन् याति) गच्छति ।
सही लल्लूभाई बापूशास्त्रिणः सम्मतोऽयमर्थः ।
शास्त्री सेवकराम रामनाथः ।
सम्मतिरत्र भास्करशास्त्रिणः ।
सम्मतिरत्र अमृतरामशास्त्रिणः ।
इसके पश्चात् स्वामी जी ने एक वक्तृता दी जिसमें कहा कि सब को
वेदों का अनुकरण करना चाहिये ।
गोपालरावहरि, भोलानाथ, अम्बालाल आदि ने दोनों के अर्थों को देख
और समझकर कहा कि शास्त्री अविवेकी और दुराग्रही हैं, स्वामी जी का
किया अर्थ ही ठीक है ।
इस मन्त्र का जो अर्थ स्वामी जी ने किया था, उस पर उन निष्कारण
वैरी पण्डित विष्णुपरशुराम शास्त्री ने बहुत आक्षेप किया और उसे अशुद्ध बताया
था । उसके सम्बन्ध में स्वामी जी ने अपने एक पत्र में संवत् १९३१, फाल्गुन
शुक्ला ९ को गोपालराव हरि देशमुख को लिखा था कि उस विष्णु शास्त्री
के विषय में एक बानगी लिखते हैं कि ट्टऋ गतिप्रापणयोः’ इस धातु से रथ
शब्द सिद्ध होता है । ट्टरमु क्रीडायाम्’ इस धातु से नहीं, इससे यह अर्थ निर्युक्त
और निर्मूल है । ऐसी मूर्खता कोई विघार्थी भी नहीं करेगा । स्वामी जी ने
लिखा है कि पाणिनिमुनिरचित उणादिगण का सूत्र प्रमाण है
ट्टहनि—कुषि—नी—रमि—काशिभ्यः’ क्थन् । हथः, कुष्ठः, निथः,
रथः, काष्ठम् ।
यास्को निरुक्तकारःरथो रंहतेर्गतिकर्मणः इत्यत्र रममाणो—
ऽस्ंिमस्तिष्ठतीति वेति ।।
इससे ट्टरम’ धातु से ही रथ शब्द सिद्ध होने से ट्टट्टरमणीयो रथो
रमतेऽस्मिन्निति वा ।’’
इन प्रमाणों को देखते हुए कौन कह सकता है कि विष्णुपरशुराम शास्त्री
ने स्वामी जी पर रथ शब्द की निरुक्ति को अशुद्ध कहकर अपने नाम और
विद्वत्ता को कलटित नहीं किया ? उनका ऐसा करना केवल छिद्रान्वेषण करने
के अभिप्राय से ही था ।
उपर्युक्त प्रचार से वेदार्थविषयक बातचीत होने के पश्चात् शास्त्रियों
का स्वामी जी से मूर्तिपूजा और वर्णाश्रम पर भी वार्तालाप हुआ था । शास्त्रियों
ने भोलानाथ साराभाई और अम्बालाल सागरमल को मध्यस्थ बनाया था ।
विचार की समाप्ति पर दोनों ही मध्यस्थों ने अपनी सम्मति स्वामी जी के
पक्ष में व शास्त्रियों के विरुद्ध दी थी । अन्त में लोगों ने स्वामी जी को
धन्यवाद दिया और गोपालराव हरि देशमुख ने उनके भाषण से सन्तुष्ट होकर
उन्हें एक सुन्दर पीताम्बर भेंट किया ।
रावबहादुर गोपालराव हरि देशमुख पहले वेदों के विरोध में लेख और
पुस्तक लिखा करते थे । स्वामी जी के बम्बई में दर्शन, सत्संग और
व्याख्यान—श्रवण से उनका संशयोच्छेदन हो गया और वे स्वामी जी के भक्त
बन गये । स्वामी जी उन्हीं के निमन्त्रण पर अहमदाबाद गये थे ।
(देवेन्द्रनाथ १।३२३, लेखराम पृ० २५८)