(बम्बई में शास्त्रार्थ आचार्य कमलनयन जी से१२ जून, १८७५)
बम्बई में नियमपूर्वक समाज स्थापित करके स्वामी जी द्वितीय बार
अहमदाबाद पधारे और वहां प्रबल युक्तियों से स्वामी जी ने नारायणमत की
समीक्षा की । बम्बई से स्वामी जी के चले आने के पश्चात् वहां के पौराणिक
पण्डितों ने यह प्रसिद्ध किया कि स्वामी जी शीघ्र यहां से चले गये नहीं तो
हम उनसे शास्त्रार्थ करने को उघत थे । जब इनके मिथ्या प्रवाद से लोगों
में कुछ भ्रान्ति सी होने लगी तो समाज के मन्त्री ने बम्बई से तार भेजकर
स्वामी जी को अहमदाबाद से बुलवाया । स्वामी जी के आते ही पौराणिक
पण्डितों को मुंह दिखाना कठिन हो गया। लोगों के आग्रह करने पर भी शास्त्रार्थ
से जी चुराने लगे । पं० कमलनयन आचार्य भी जो बम्बई के पौराणिक पण्डितों
के शिरोमणि माने जाते थे शास्त्रार्थ से बचने लगे । निदान बहुत से प्रतिष्ठित
सभ्य लोगों के बाधित करने पर उन्होंने बड़ी कठिनता से स्वामी जी के सम्मुख
आना स्वीकार किया । १२ जून शास्त्रार्थ की तिथि नियत हुई ।
शास्त्रार्थ का स्थान प्रQाम जी क्राउस जी इन्स्टीट्यूट’ नियत हुआ । नियत
समय पहले से लोग आने लगे । दोपहर के तीन बजे पश्चात् स्वामी जी
पधारे और उन्हें बड़ी प्रतिष्ठा के साथ एक उच्च स्थान पर कुरसी पर बिठाया
गया । उनके सामने ही एक कुरसी आचार्य कमलनयन जी के लिए बिछायी
गई । बीच में लगभग डेढ़ सौ प्रामाणिक संस्कृत की पुस्तकें रखी गईं जिससे
कि दोनों पक्षों को प्रमाणों के देखने का सुभीता रहे । चौंतरे के नीचे आठ
कुर्सियां समाचार—पत्रों के पत्र—प्रेषकों के लिए क्रम से लगाई गई थीं । ये
वास्तव में दोनों ओर की उक्तियां लिखने के लिये आये थे । इस सभा में
बम्बई के लगभग समस्त सेठ, साहूकार, अधिकारी और प्रतिष्ठित शिक्षित
पुरुष उपस्थित थे । यथा रायबहादुर बेचरदास अलबाईदास, सेठ लक्ष्मीदास
खेम जी, सेठ मथुरादास लोजी, राव बहादुर दादूबा पाण्डुरग्, भाई शटरनाना,
भाई गगदास किशोरदास, हरगोविन्ददास, राणा मनसुखराम सूरजराम, रणछोड़
भाई उदयराम, विष्णु परशुराम इत्यादि प्रायः श्रीमान् और विद्वान् उपस्थित थे।
इस समय यह खबर उड़ी कि आचार्य कमलनयन जी यहां इसलिए नहीं आवेंगे
कि यह जगह एक पारसी की है । कारण यह था कि रामानुज सम्प्रदाय के
यह आचार्य थे और इनके अनुयायी नहीं चाहते थे कि हमारे आचार्य के गौरव
में अन्तर पड़े । परन्तु ज्यों त्यों आध घण्टे के पीछे आचार्य जी अपने २५—३०
शिष्यों के सहित सभा में सुशोभित हुए और स्वामी जी के सामने वाली कुर्सी
पर विराजमान हो गये, निदान राव बहादुर बेचरदास अलबाईदास जी को
सभापति बनाया गया और उन्होंने आरम्भ में एक उपयुक्त वक्तृता की जिसका
सार यह था कि वास्तव में हम सब पौराणिक और मूर्तिपूजक हैं और मैं
स्वयं मूर्तिपूजा किया करता हूं । परन्तु हम सब यहां पर शास्त्रार्थ सुनने एकत्र
हुए हैं । आग्रह और पक्ष को अपने चित्त से हटाकर स्वामी जी और आचार्य
जी की विघापूरित और सारगर्भित वक्तृताओं को सुनें और सत्य को ग्रहण
करें । हठ और विवाद से काम न लें । इस समय सब से प्रधान विषय मूर्तिपूजा
है । स्वामी जी का यह पक्ष है कि मूर्तिपूजा वेदों से निषिद्ध है और इसलिए
वह पापकर्म है । आचार्य जी का पक्ष इसके सर्वथा विपरीत है अर्थात् वे
मूर्तिपूजा को वेद—विहित समझते हैं । बस अब हमें दोनों महाशयों की उचित
उक्ति—प्रत्युक्तियों को एकाग्र मन होकर बड़े ध्यान से सुनना चाहिए । किसी
प्रकार का क्रोध, आवेग और कोलाहल नहीं करना चाहिए । अन्त में सेठ
साहब ने यह भी विज्ञापित कर दिया था कि वास्तव में यह शास्त्रार्थ दो महाशयों
की परस्पर प्रतिज्ञा का परिणाम है । जिन्होंने इसके व्यय का सारा भार परस्पर
आधा बांटकर अपने ऊपर लिया है उनके नाम ठक्कर जीवनदयालु जी और
मारवाड़ी शिवनारायण वेनीचन्द हैं । ठक्कर जी ने मारवाड़ी शिवनारायण
वेनीचन्द से (जो सदा आचार्य कमलनयन जी के पक्ष का आश्रय लिया करते
हैं ।) यह कहा था कि यदि आचार्य जी शास्त्रार्थ में स्वामी जी को जीत
लेंगे तो मैं आचार्य जी का शिष्य हो जाउंQगा अन्यथा आपको स्वामी जी का
भक्त होना पड़ेगा । शास्त्रार्थ का विषय मूर्तिपूजा है । मैं फिर निवेदन करता
हूं कि आप सब महाशय स्वस्थचित्त होकर आचार्य जी और स्वामी जी की
पाण्डित्य भरी वक्तृताओं को सुनें और अपने लिए उसका परिणाम निकालें।
सेठ साहब अपनी वक्तृता समाप्त करके बैठ गये । तदनन्तर मारवाड़ी
शिवनारायण वेनीचन्द ने यह विवाद उपस्थित किया कि ठक्कर जी से मैंने
यह भी कह दिया था कि मूर्तिपूजा की सिद्धि में पुराणों के भी प्रमाण दिये
जावेंगे । परन्तु ठक्कर जी के प्रतिज्ञा—पत्र प्रस्तुत करने पर वे मौन हो गये,
यह प्रतिज्ञा—पत्र सेठ साहब ने सभा में उच्चैः स्वर से सब को सुना दिया।
उसमें इस बात की गन्ध भी नहीं थी । निदान मारवाड़ी जी को चुप होना
पड़ा । अब आचार्य कमलनयन जी की बारी आई, वे कहने लगे कि कितने
पण्डित इस सभा में उपस्थित हैं, पहले वे मुझे अपने—अपने मत से सूचना
देवें कि किन—किन सम्प्रदायों से सम्बन्ध रखते हैं । यह सुनकर विचारशील
पुरुषों ने कहा कि यह एक अत्यन्त असग्त और व्यर्थ प्रश्न है । आपको
इस समय साधारण रीति पर किसी के विश्वास वा मत से कुछ प्रयोजन न
होना चाहिए । सभापति आप की सम्मति से नियत हो चुके हैं बाकी सब
शेष श्रोतागण हैं उनको शास्त्रार्थ की समाप्ति पर अधिकार है कि कुछ सम्मति
निर्धारण करें । परन्तु आचार्य जी ऐसी युक्ति युक्त बातों को कब सुनते थे
कहने लगे कि हम कैसे समझें कि ये लोग किन—किन सम्प्रदायों के और
ठीक—ठीक सम्मति निर्धारण कर सकेंगे या नहीं ? यह सुनकर पं० कालिदास
गोविन्द जी शास्त्री खड़े हुए और आचार्य जी को सम्बोधन करके कहने लगे
कि आप व्यर्थ इस प्रकार की बातों से अपना और उपस्थित लोगों का समय
नष्ट करना चाहते हैं । मैं आप के सम्मुख प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं निष्पक्ष
और सत्य—सत्य जो कुछ मेरी समझ में आवेगा अन्त में प्रकट कर दूंगा और
जो कुछ शास्त्रार्थ सुनने के बाद मेरी सम्मति होगी वह भी नहीं छिपाउंQगा
और आप दोनों की वक्तृता अक्षरशः लिखता जाउंQगा । शोक कि आचार्य
जी ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया । तब स्वामी जी ने कोमलता और प्रीति
के साथ आचार्य जी से कहा कि आज का दिन मैं अत्यन्त माग्लिक समझता
हूं कि आप धर्म के एक आवश्यक विषय पर मुझ से वार्तालाप करने के
लिए यहां पधारे हैं और लोगों के इतने संग्रह से यह प्रकट है कि लोगों में
सत्यासत्य के निर्णय करने का सच्चा और प्रबल उत्साह है । मेरा जो पक्ष
है वह सभापति महाशय ने बड़ी उत्तमता के साथ सर्व साधारण को अभी
सुना दिया है इसी प्रकार आपका भी । अब आप को उचित है कि मूर्तिपूजा
को वेदों में सिद्ध करें, प्रामाणिक ग्रन्थों के प्रमाण देवें जिससे प्रकट हो कि
प्रमाण और प्रतिष्ठा (मूर्ति में प्राण का संचार हो जाता है) आवाहन (जिससे
उनको बुलाया जाता है) विसर्जन (जिससे उन को विदा किया जाता है)
पूजन (जिससे उन्हें प्रसन्न और आनन्दित किया जाता है) इत्यादि करना सार्थक
और उचित है । यों तो इस समय एक सज्जन और विचारशील सेठ साहब
सभापति हैं परन्तु मेरी सम्मति में मेरे और आपके वास्तविक मध्यस्थ चारों
वेद हैं । आप विश्वास रखें हम में से लेशमात्र भी किसी का पक्ष न करेंगे।
उचित रीति यह है कि हमारे कथोपकथन अक्षरशः पीछे से प्रकाशित कर
दिये जावें जिससे कि सर्वत्र पण्डितों को अपनी स्वतन्त्र सम्मति निर्धारण करने
का अवसर मिल सके। स्वामी जी की यह समीचीन उक्ति सुनकर भी आचार्य
जी की समझ में नहीं आया और वे अपना हठ करते रहे कि हमने जो कुछ
कहा है जब तक वह नहीं होगा शास्त्रार्थ नहीं हो सकता । जिसका स्पष्ट
यह आशय था कि हम शास्त्रार्थ नहीं करते । यह व्यवस्था देखकर सेठ
मथुरादास लोजी खड़े हुए और उन्होंने आदि से अन्त तक वह कार्यवाही सुनायी
जो उन्होंने कुछ प्रतिष्ठित पुरुषों की प्रेरणा से आचार्य कमलनयन जी से शास्त्रार्थ
के विषय में की थी ।
आचार्य जी में इतना साहस कब हो सकता था कि सेठ जी के एक
शब्द का भी प्रत्याख्यान करें । निदान अत्यन्त लज्जित होकर विना कुछ
कहे सुने सभा से उठकर चल दिये । इस पर प्रधान सभा ने आचार्य जी को
सम्बोधन करके कहा कि आप इस प्रकार विना कुछ कहे जाते हैं यह उचित
नहीं है । सहस्रों मनुष्य आज बड़े उत्साह से आपके पाण्डित्य का चमत्कार
देखने आये थे, उनको बड़ी भारी निराशा होगी । स्वामी जी ने फिर आचार्य
जी से कहा कि आजकल मूर्तिपूजा से लाखों मनुष्यों का निर्वाह होता है यदि
आप उनकी आजीविका स्थिर रखना चाहते हैं तो इससे बढ़कर और कौन—सा
अवसर होगा । परन्तु आचार्य जी को तो वहां एक क्षण भर ठहरना भी कठिन
हो गया था । वे अपने मन में कहते थे कि वह कौन—सी घड़ी हो जो मैं अपने
घर पहुंच जाउंQ । परिणाम यह हुआ कि आचार्य जी जैसे कोरे आये थे वैसे
ही चले गये । आचार्य जी के चले जाने के पश्चात् सेठ छबीलदास लल्लूभाई
और राजमोहन राजेश्वरी बोल जी ठाकुर ने रामानुज सम्प्रदाय के आचार्य की
इस उदासीनता पर अत्यन्त शोक प्रकट किया । इसी सभा में सेठ गोविन्ददास
बाबा ने स्वामी जी से प्रश्न किया कि मूर्तिपूजा सनातन से चली आती है वा
यह आधुनिक है । स्वामी जी ने उत्तर दिया कि बहुत थोड़े काल से यह प्रवृत्त
हुई है । बौद्ध और जैन के पश्चात् बहुत से कम समझ मनुष्यों ने इसको चला
दिया था । नहीं तो संस्कृत के प्राचीन और प्रामाणिक ग्रन्थों में इसका कहीं
नाम तक नहीं पाया जाता । इसके पश्चात् स्वामी जी ने इसी सभा में अपना
यौक्तिक व्याख्यान मूर्तिपूजा के खण्डन में प्रारम्भ किया और वेदादि सच्छास्त्रों
के प्रमाणों से मूर्तिपूजा को महापाप सिद्ध कर दिया। समाप्ति पर सभापति ने
स्वामी जी के गले में फूलों का हार डाला और सेठ छबीलदास लल्लूभाई इन्हें
अपनी जोड़ी में सवार कराकर इनके आश्रम तक पहुंचा आये ।
(आर्यधर्मेन्द्र जीवन, रामविलास शारदा पृ० ११७)