मूर्तिपूजा वेदविहित है वा नहीं

(बम्बई में पण्डितों से शास्त्रार्थमार्च, १८७६)

जब बम्बई के शास्त्रीगण सब प्रकार से तैयारी कर चुके तो स्वामी

जी को शास्त्रार्थ के लिये आहूत किया गया । उन्होंने तत्क्षण शास्त्रार्थ करना

स्वीकार कर लिया । शास्त्रार्थ का विषय वही पुराना विषय था कि मूर्तिपूजा

वेदविहित है वा नहीं । शास्त्रार्थ की तिथि २७ मार्च, सन् १८७६ और स्थान

भाई जीवन जी का हाल नियत हुआ ।

नियत तिथिपर शास्त्रार्थ—सभा सग्ठित हुई । दर्शकों से हाल इतना

खचाखच भर गया था कि खड़े होने तक को जगह न रही थी और बहुत

से लोगों को घर लौट जाना पड़ा था । स्वामी जी यथासमय विना किसी आडम्बर

के सभा में उपस्थित हो गये । पण्डित रामलाल भी पधारे और बड़े दलबल

और घोर गर्ज के साथ पधारे । उनके साथ अनेक स्थानीय शास्त्री और उनके

शिष्य तथा श्रद्धालु जन थे । शास्त्रार्थ—सभा में मध्यस्थ का आसन श्री भूझाऊ

जी शास्त्री ने ग्रहण किया । शास्त्रार्थ उचित भावानुकूल और ऐसे ढंग से

हुआ कि उसमें भाग लेने वालों के लिये वह प्रशंसनीय था ।

पण्डित गट्टूलाल जी ने भी शास्त्रार्थ करना स्वीकार किया था, परन्तु

वे सभास्थल में नहीं पधारे । उनके लाने के लिए गाड़ी भी भेजी गई परन्तु

उन्होंने कहला भेजा कि हम को वमन हो गया है, हम नहीं आ सकते, हमारी

ओर से पण्डित रामलाल ही शास्त्रार्थ करेंगे ।

स्वामी जी ने प्रथम ही पण्डित रामलाल से यह स्वीकार करा लिया

कि आर्य्यों का मौलिक धर्म—ग्रन्थ वेद है और फिर उनसे वेद का कोई मन्त्र

वा पंक्ति दिखाने को कहा कि जिसमें मूर्तिपूजा की ओर सटेत हो । पण्डित

रामलाल ने पुराण और स्मृतियों के प्रमाण उपस्थित किये । स्वामी जी ने

कहा कि ये ग्रन्थ प्रामाणिक नहीं, यदि कोई वेदमन्त्र स्मरण हो तो कहिये।

इस पर पण्डित रामलाल ने फिर मनुस्मृति के प्रमाण प्रस्तुत किये । स्वामी

जी ने कहा कि इन प्रमाणों में आये हुए प्रतिमा और देव शब्दों से मूर्तिपूजा

का कोई सम्बन्ध नहीं है और उनके यथार्थ अर्थ करके दिखाये और यह

भी कहा कि पण्डित जी के बताए हुए ग्रन्थों में पण्डितों ने अपनी स्वार्थसिद्धि

के निमित्त बहुत से असत्य भाग प्रक्षिप्त कर दिये हैं । अतः वह उन ग्रन्थों

का प्रमाण उक्त असत्य भागों को छोड़कर ही स्वीकार करते हैं । मौलिक

धर्म्म—ग्रन्थ वेद में एक शब्द भी नहीं है, जिससे मूर्तिपूजा का प्रतिपादन होता

हो, अन्य ग्रन्थ प्रामाणिक नहीं हो सकते ।

तदनन्तर पण्डित रामलाल ने फिर भी स्मृतियों और पुराणों के प्रमाण

उपस्थित किये । इस पर मध्यस्थ ने कहा कि पण्डित जी ! स्वामी जी प्रश्न

कुछ और करते हैं और आप उत्तर कुछ और ही देते हैं । यह सभा और

पण्डितों का नियम नहीं । जैसे किसी से द्वारिका का मार्ग पूछा और उसने

कलकत्ते का मार्ग बतलाया, ऐसा ही आपका यह शास्त्रार्थ है । अन्त में पण्डित

रामलाल ने कहा कि हम मूर्तिपूजा को वेद से सिद्ध नहीं कर सकते परन्तु

मनुस्मृति, ब्राह्मण ग्रन्थों और पुराणों के प्रमाणों से सिद्ध करते हैं । इसी पर

शास्त्रार्थ समाप्त हो गया ।

शास्त्रार्थ—सभा साढ़े ग्यारह बजे रात्रि के विसर्जन हुई । शास्त्रार्थ के

अन्त में अनेक लोगों ने भाई जीवन जी को धन्यवाद दिया कि उनके उघोग

से ऐसा चामत्कारिक परिणाम प्राप्त हुआ । सब लोग यह विश्वास लेकर

घरों को लौटे कि आर्य्यों के मौलिक धर्मग्रन्थ वेद में मूर्तिपूजा की कोई आज्ञा

नहीं है । (देवेन्द्रनाथ १।३६५, लेखराम पृ० २४९—२५०)