स्वामी दयानन्द ने दस या पन्द्रह प्रश्न लिखकर जयपुर की संस्कृत
पाठशाला में पण्डितों के पास भेजे । पण्डित महाशयों ने इनके उत्तर में
गाली—गलौज के सिवाय और कुछ नहीं लिखा । स्वामी जी ने इस पत्र में
आठ प्रकार के दोष निकालकर हरिश्चन्द्रादि महान् पुरुषों के पास भेज दिये।
उस पत्र को पढ़कर सब ने अत्यन्त शोक प्रकट किया और पत्र का कुछ
भी उत्तर नहीं दिया । फिर सब पण्डित एकत्रित होकर व्यास बक्षीराम जी
के पास गये और कहा कि हमारा स्वामी जी से शास्त्रार्थ करवा दो । पण्डितों
के कहने पर व्यास जी ने स्वामी जी को महलों में बुलवाया, सब पण्डित
भी एकत्रित हुए और शास्त्रार्थ होने लगा । अन्त में पण्डित निरुत्तर होकर
चुप हो गए, और एक मैथिल पण्डित ने कहा कि महाभाष्य की गणना व्याकरण
में नहीं है । स्वामी जी ने उसको यही बात लिख देने के लिए कहा । परन्तु
उन्होंने नहीं लिखा और रात्रि विशेष हो गई, यह बहाना करके चुप हो गये।
(आर्य धर्मेन्द्रजीवन, रामविलास शारदा पृ० ३१, ३२, लेखराम पृ० ५५)