(अनूपशहर—निवासी पं० अम्बादत्त वैघ से शास्त्रार्थनवम्बर १८६७)
जब महाराज को कर्णवास में निवास करते हुए बहुत दिन हो गये और
उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई, तब भगवानदास आदि को महाराज की बढ़ती
हुई लोकप्रियता असह्य हो गई । उन्होंने सोचा कि उनके मार्ग से दयानन्द
रूपी कण्टक तभी दूर हो सकता है जब उसे शास्त्रार्थ में परास्त किया जावे।
अतः वह अनूपशहर निवासी पं० अम्बादत्त पर्वती को जो संस्कृत में बहुत
व्युत्पन्न समझे जाते थे स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने के लिये बुला लाये ।
पं० अम्बादत्त से शास्त्रार्थ हुआ । परिणाम यह निकला कि पण्डित जी
परास्त हुए और उन्होंने एक सत्यप्रिय मनुष्य की भांति भरी सभा में मुक्तकण्ठ
से कहा कि जो कुछ स्वामी जी कहते हैं, वह सत्य है, मूर्तिपूजा अवैदिक
और त्याज्य है ।
(श्री देवेन्द्रनाथ जी कृत जीवनचरित्र, भाग १, पृष्ठ १०५, लेखराम, पृ० ७६)
मूर्तिपूजा