शिवपुराण खण्डन

(पण्डित लक्ष्मीधर जी तथा पं० दौलतराम जी दीनानगर निवासी से

गुरुदासपुर में शास्त्रार्थअगस्त, १८७७)

१८ अगस्त, सन् १८७७ से २६ अगस्त, सन् १८७७ तक स्वामी जी

गुरुदासपुर रहे । मियां हरिसिंह और मियां शेरसिंह जी ने जो दोनाें मूर्तिपूजक

थे, पण्डित लक्ष्मीधर जी और पण्डित दौलतराम जी दीनानगर निवासी को

स्वामी जी महाराज के साथ शास्त्रार्थ करने को बुलवाया । जिस दिन ये पण्डित

लोग आये उस दिन स्वामी जी का व्याख्यान शिवपुराण के खण्डन पर था।

स्वामी जी ने वह कहानी सुनाई कि लिंग महादेव का बढ़ा और ब्रह्मा विष्णु

सूअर और हंस बनकर उसके नापने के लिये गये, आदि आदि ।

दोनों पण्डितों और दोनों मियां सज्जनों ने कुछ सभ्यता विरुद्ध शब्द

कहने आरम्भ किये कि झूठ बकता है । तब डाक्टर बिहारीलाल जी ने सभा

के नियमों के अनुसार निवेदन किया कि प्रथम सब कुछ सुन लेना चाहिये

तत्पश्चात् आक्षेप करने के लिये उघत रहना चाहिये । परन्तु यह कहां सम्भव

था । अन्त में जब स्वामी जी ने देखा कि पण्डित लोग बोलने से नहीं रुकते

तो कहा कि अब मैं मौन हो जाता हूं, पण्डितों में से जिसे कोई शंका  करनी

हो करे । चूंकि भीड़ बहुत थी और लोगों को उत्सुकता थी कि दोनों पक्षों

को देखें । इसलिये श्रोताओं की प्रार्थना पर बाबू बिहारीलाल जी ने कहा कि

पण्डितों में से जो शास्त्रार्थ करना चाहते हैं वे मैदान में कुर्सी पर पधारें और

स्वयम् एक कुर्सी वहां बिछवा दी । चूंकि उनमें से कोई एक ऐसा विद्वान्

न था और न उनमें स्वामी जी की विघा और तेज का सामना करने की शक्ति

थी । इसलिये मियां सज्जनों और पण्डित लोगों की यह इच्छा थी कि सब

मिलकर प्रश्नोत्तर करें और इस तर्क वितर्क  में ये लोग भांति—भांति की बोलियां

बोलते थे जिससे कोलाहल होता था । इसलिये स्वामी जी ने कहा कि जो

एक पण्डित चाहे सामने बैठकर उत्तर प्रश्न करे । यघपि यह सुझाव पूर्णतया

बुद्धि के अनुकूल था परन्तु विरोधी पक्ष के लिये लाभदायक न था । मियां

हरिसिंह ने कहा कि अकेला कोई पण्डित आपसे शास्त्रार्थ नहीं कर सकता,

दो वा अधिक मिलकर करेंगे । स्वामी जी ने कहा कि अच्छा जिसको इच्छा

हो यहां आनकर उसको बारी—बारी बतलाता रहे । इस पर सहसा मियां हरिसिंह

के मुख से निकला कि यह बन्दर किल्ली कौन खेल सकता है ।

फिर जब डाक्टर साहब ने अनुरोध किया कि शास्त्रार्थ का नियम है कि

दोनों सम्मुख बैठकर विचार करें, अवश्य पण्डित जी को सामने बैठकर शास्त्रार्थ

करना चाहिये। तब मियां साहब के मुख के निकला क्या कंजरियों (वेश्याओं)

का नाच है जो बीच में आने की आवश्यकता है ।’’ इस असभ्यतापूर्ण वाक्य

की उपेक्षा की गई और जिस प्रकार वे चाहते थे वैसे ही बातचीत आरम्भ हुई।

मूर्तिपूजा पर बात चली । पण्डितों ने यह मन्त्र गणानां त्वा’ इत्यादि

पढ़ा कि इससे गणेश जी की मूर्ति सिद्ध होती है । स्वामी जी ने इस पर

किसी भाष्य का प्रमाण मांगा । उन्होंने महीधर की चर्चा की । स्वामी जी

ने झट महीधर का भाष्य निकाल कर आगे रखा और उसका अश्लील अर्थ

लोगों को सुनाया कि न तो इससे मूर्तिपूजा सिद्ध होती है और न गणेश—पूजा।

प्रत्युत यह तो अत्यन्त अश्लील भाष्य है और साथ ही सनातन निरुक्तादि ग्रन्थों

से उसका श्रेष्ठ अर्थ भी बतलाया कि इसका मूर्तिपूजा से कोई सम्बन्ध नहीं।

जब मियां साहब को यह बात बुरी लगी तब कहा कि अंग्रेजी राज्य है अन्यथा

यदि रियासत होती तो कोई आपका शिर काट डालता । स्वामी जी ने इसकी

तनिक भी पर्वाह न की और निरन्तर खण्डन करते रहे। जब मियां सज्जनों

से और कुछ न हो सका तो यह कहा कि यहां पर मैजिस्ट्रेट और पुलिस

दोनों उपस्थित हैं, इसका भी ध्यान रखना । उनकी बात डाक्टर बिहारीलाल

जी को बहुत बुरी लगी जिस पर उन्होंने मियां साहब को भली—भांति मुंहतोड़

उत्तर दिया और डॉक्टर साहब और मियां साहब की परस्पर विरोधात्मक

बातचीत होकर सभा विसर्जित हुई । (लेखराम पृष्ठ ३५२ से ३५३)