(मुन्शी इन्द्रमणि जी के शिष्य ला० जगन्नाथदास की बनाई
आर्य—प्रश्नोत्तरी की समालोचनाअप्रैल, १८८२)
ऋषि दयानन्द सरस्वती के पत्र विज्ञापन संस्करण २ पृष्ठ ३४४ से उद्धृत
श्रीयुत सम्पादक देशहितैषी महाशय मन्त्री आर्यसमाजअजमेर—समीपेषु।
प्रिय सम्पादकवर ! जो मनुष्य स्वार्थ बुद्धि छोड़ परमार्थ करने में प्रवृत्त
नहीं होता, उस का हृदय पूर्ण शुद्ध होना असम्भव है । चाहे वह बहुत युक्ति
और गूढ़ता अपनी कपटता को प्रसिद्ध करने में कैसा ही यत्नवान् क्यों न
हो । उसका कपट कभी न कभी प्रकाशित हो ही जाता है । प्रत्यक्ष दृष्टान्त
देख लो कि लाला जगन्नाथदास मुन्शी इन्द्रमणि जी के शिष्य की बनाई हुई
(आर्य—प्रश्नोत्तरी) की समालोचना करने से (बहुत से विषय उस में सत्य
और परोपकारक दीख पड़ते हैं परन्तु बहुधा विषय ऐसे भी हैं कि जिन के
सुनने वा पाठ करने वालों का भ्रमजाल में फंस वेदादि सत्य शास्त्रों से विरुद्ध
होना सम्भव है । ये विरुद्ध विषय केवल लाला जगन्नाथदास ही के अभिप्राय
से नहीं किन्तु मुन्शी इन्द्रमणि भी उन दोषयुक्त विषयों के अनुयायी प्रतीत
होते हैं ।) अस्तु, जो हो मुझ को सत्य—सत्य परीक्षा इस ग्रन्थ की करके
दोषों का प्रकाश करना अवश्य है । कारण सज्जन लोग गुण ग्रहण कर दोषों
को छोड़ दें । इतना ही नहीं किन्तु जैसे विषयुक्त उत्तमान्न का बुद्धिमानों को
त्याग करना अवश्य होता है, इसी प्रकार आर्य लोगों के लिए यह (आर्य
प्रश्नोत्तरी) ग्रन्थ गुणों के साथ दोषदायक होने से श्रेष्ठ को त्याग के योग्य
है । अब इस का कुछ थोड़ा सा नमूना संक्षेप से दिखलाता हूं ।
[आर्य प्रश्नोत्तरी पृष्ठ २। प्रश्नोत्तर ७] परमात्मा ने सृष्टि की आदि
में श्री ब्रह्मा जी के हृदय में वेदों का प्रकाश किया । उन से ऋषि मुनि
अस्मदादिकों को प्राप्त हुए ।’’
[समीक्षा] यह बात प्रमाण करने योग्य नहीं, क्योंकि (अग्नेर्वै ऋग्वेदो
ऽजायत (अजायत) वायोर्यजुर्वेदः सूर्य्यात्सामवेदः) शतपथ ब्राह्मण वचन।
अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम् ।
दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजुःसामलक्षणम् ।। मनुस्मृति का वचन ।
अब देखिये अग्नि आदि महर्षियों से ऋग्वेदादि का प्रकाश हुआ । इत्यादि
ब्राह्मण वचनों के अनुसार मनु जी महाराज कहते हैं ब्रह्मा जी ने अग्न्यादि
महर्षियों के द्वारा वेदों की प्राप्ति की । अतएव यो वै ब्रह्माणं विदधाति
पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै ।’’ इस श्वेताश्वतरोपनिषद् के वचनार्थ
की सग्ति शतपथ और मनु जी के वचन से अविरुद्ध होनी चाहिए । किन्तु
परमात्मा ने चारों महर्षियों के द्वारा श्री ब्रह्मा जी को चारों वेदों की प्राप्ति
कराई । और अब भी जो कोई चार वेदों को पढ़ता है वही यज्ञ में ब्रह्मासन
को प्राप्त और उसी का नाम ब्रह्मा भी होता है । यदि मुन्शी इन्द्रमणि
जी और उन के शिष्य १ला० जगन्नाथदास वेद और तदनुयायी ब्राह्मणादि ग्रन्थों
को पढ़े होते तो ऐसे भारी भ्रम में न पड़ ऐसे ऐसे अन्यथा भाषण वा लेख
१. जब मुन्शी इन्द्रमणि ने सहायता में आए हुए धन का पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार
पूर्ण ब्यौरा न बताया और न छापा, तब श्री स्वामी जी ने उन सब से सम्बन्ध—विच्छेद
कर लिया । तब मुन्शी जी ने आर्य—प्रश्नोत्तरी (संवत् १९३८ आर्यदर्पण प्रेस शाहजहांपुर
में छापी । उस का उत्तर लिखवा कर श्री स्वामी जी ने भारतसुदशाप्रवर्तक में छपने
के लिए भेजा ।
क्यों करते? इन को उचित है कि अपना हठ छोड़ सत्य का ग्रहण करें ।
(पृष्ठ ३। प्रश्नोत्तर १६) जीव वास्तविक अनन्त हैं । इस कारण ईश्वर
के ज्ञान में भी अनन्त ही हैं ।’’
(समीक्षा) जब जीव देश काल वस्तु अपरिच्छिन्न अर्थात् भिन्न—भिन्न
हैं । उन को अनन्त कहना मानो एक अज्ञानी का दृष्टान्त बनना है। अनन्त
तो क्या, परन्तु परमेश्वर के ज्ञान में असंख्य भी नहीं हो सकते । परमेश्वर
के समीप तो सब जीव वस्तुतः अतीव अल्प हैं । जीवों की तो क्या परन्तु
प्रति जीव के अनेक कर्मों के भी अन्त और संख्या को परमेश्वर यथावत्
जानता है । जो ऐसा न होता तो वह परब्रह्म जीव और उन के कर्मों का
जैसा—जैसा जिस—जिस जीव ने कर्म किया है उन उन का फल न दे सके।
जब कोई इन से प्रश्न करे कि एक—एक जीव अनन्त हैं वा सब मिल के?
जो एक—एक अनन्त हैं तो य आत्मनि तिष्ठन्’’ इत्यादि ब्राह्मण वचन अर्थात्
जो परमात्मा व्याप्य जीवों में व्यापक हो रहा है और ऐसा ही ला० जगन्नाथदास
ने पृष्ठ ५ प्रश्नोत्तर ३२’’ के उत्तर में लिखा है कि जीवेश्वर का व्याप्य
व्यापक सम्बन्ध और पृष्ठ ४, प्रश्न २१’’ में जीव को अणु माना है । जीव
शरीर को छोड़ दूसरे शरीर में जाता और शरीर के मध्य में रहता है । इसलिए
अनन्त वा असंख्य ईश्वर के ज्ञान में नहीं । किन्तु जीवों के ज्ञान में जीव
असंख्य हैं । जिन ला० जगन्नाथदास वा मुन्शी इन्द्रमणि जी को अपने ग्रन्थस्थ
पूर्वापर विरुद्ध विषयों का ज्ञान भी नहीं है तो आगे क्या आशा होती है ।
इसी से इन के सब प्रपञ्चों का उत्तर समझ लेना शिष्टों को योग्य है ।
(पृष्ठ ४, प्रश्न २४) जीव के गुण वास्तव में विभु हैं, परन्तु वृद्धावस्था
में अविघा से आच्छादित होने से परिछिन्न हैं। मुक्तावस्था में विभु हो जाते हैं।’’
(समीक्षा) विभु गुण उसी के होते हैं जो द्रव्य भी विभु हो । और
जिस को अणु मानते हैं क्या उस के गुण विभु हो सकते हैं ? क्योंकि गुणों
का आधार द्रव्य होता है । भला कोई कह सकता है कि परिछिन्न द्रव्य में
विभु गुण हों । क्या गुणी देशी और गुण विभु हो सकते हैं ? और गुणी को
छोड़ केवल गुण पृथक भी रह सकता है ? नहीं ! नहीं !! और जो (पृष्ठ
४१ प्रश्नोत्तर २१ में) जीव को अणु माना है । वह भी ठीक नहीं । क्योंकि
एक अणु में भी जीव रह सकता है । अर्थात् एक अणु में अनेक जीव रह
सकते हैं । देखो अणु अणु कांच वा पृथ्वी आदि के मध्य में से पार नहीं
जा सकता और जीव जा सकता है । इसलिए जीव अणु से भी सूक्ष्म है और
इसके अणु भी विभु नहीं । हां मुक्तावस्था में जिस ओर उस का ज्ञान होगा
उस दूरस्थ पदार्थ को भी अपने ज्ञान से जान लेता है । नहीं तो
युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिग्म् ।’’ इस न्याय शास्त्र के सूत्र का अर्थ
ही नहीं घट सकेगा । जो एक क्षण में एक पदार्थ को जाने अनेक को नहीं,
उसी को मन कहते हैं । वही मन मुक्तावस्था में भी रह जाता । पुनः उसी
मनरूप साधन से विभु गुण वाला जीव कैसे हो सकता है ?
(पृष्ठ ४ प्रश्न २५) जीव परतन्त्र है ।’’
(समीक्षा) जीव किस के आधीन है ? जो कहो कि परमेश्वर के तो
जो कुछ जीव कर्म करता है वह स्वतन्त्रता से वा ईश्वराधीनता से ? जो ईश्वरा—
धीनता से करता है तो जीव को पाप पुण्य का फल न होना चाहिये, किन्तु
ईश्वर को होना चाहिए । जैसे सेनाध्यक्ष वा राजा की आज्ञा से कोई किसी
को मारे तो वह अपराधी नहीं होता, अथवा किसी के मारने में लकड़ी तलवारादि
शस्त्र (न) अपराधी और न दण्डनीय होते हैं, वैसे ही जीवों को भी दण्ड
न होना चाहिये । किन्तु पाप पुण्य का फल सुख—दुःख ईश्वर भोगे। इसलिए
जीव अपने कर्म करने में सर्वदा स्वतन्त्र और पाप का फल दुःख भोगने में
ईश्वर की व्यवस्था से परतन्त्र रह जाते हैं । जैसे चोर चोरी करने में स्वतन्त्र
और राजदण्ड भोगने में परतन्त्र हो जाते हैं, इसी प्रकार जीवों को भी जानो।
(पृष्ठ ४ प्रश्नोत्तर २८) मुक्त जीव कर्मवश होकर फिर कभी
संसार में नहीं आते । ईश्वरेच्छानुकूल अपनी इच्छा से केवल धर्म रक्षा
करने को आते हैं ।’’
(समीक्षा) पाठकगण! विचारिये यह अविघा का प्रताप नहीं है तो और
क्या है ? जो कहते हैं कि जीव संसार में कभी नहीं आते और ईश्वरेच्छानुकूल
अपनी इच्छा से केवल धर्म रक्षा करने को आते भी हैं । धन्य ! भला इस
पूर्वापर विरुद्धता को गुरु और चेले ने तनिक भी न समझा । विचारणीय है
कि जिस का ज्ञान, सामर्थ्य, कर्म अन्त वाले हैं उस का फल अनन्त कैसे
हो सकता है ? और जो मुक्ति में से जीव संसार में न आवे तो संसार का
उच्छेदन अर्थात् नाश ही हो जाय । और मुक्ति के स्थान में भीड़ भड़क्का
हरद्वार के मेले के समान हो जावे । और ईश्वर भी अन्त गुण, कर्म वाले
का फल अनन्त देवे तो न्यायरहित हो जाय । और परिमित गुण, कर्म, स्वभाव
वाले जीव अनन्त आनन्द को भोग भी नहीं सकते । फिर यह बात वेद तथा
शास्त्र के विरुद्ध भी है । देखो ट्टअग्नेर्वयं प्रतमस्यामृतानां मनामहे चारु
देवस्य नाम । स नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च ।।’
(ऋग्वेद वचन) अर्थहम उसी सुन्दर निष्पाप परमात्मा का नाम जानते हैं
और स्व—प्रकाश स्वरूप जगदीश्वर मोक्षप्राप्त जीवों को पुनः अवधि पर संसार
में माता—पिता के दर्शन कराता है अर्थात् मुक्ति सुख को भुगाकर पुनः संसार
में जन्म देता है । इसी प्रकार सांख्य शास्त्र में भी लिखा है नात्यन्तोच्छेदः’’
इत्यादि वचनों से यही सिद्ध होता है कि अत्यन्त जन्म—मरण का छेदन (न)
किसी का हुआ और न होगा, किन्तु समय पर पुनः जन्म लेता है । इत्यादि
प्रमाणों और युक्तियों से मुक्त जीव भी पुनरावृत्ति में आते हैं ।
(पृष्ठ ४, प्रश्नोत्तर ३०) एक वृक्ष में एक ही जीव होता है अथवा
अनेक ?’’ ।
(समीक्षा) जो एक वृक्ष में एक जीव होता तो प्रत्येक जीव (वृक्ष)
में पृथक —पृथक जीव कहां से आते और किसी वृक्ष की डाली काटकर
लगाने से जम जाता है उस में जीव कहां से आया, इसलिये एक वृक्ष
में अनेक जीव होते हैं ।
(पृष्ठ ५, प्रश्नोत्तर ३५) अनेक पूर्व जन्मों के कर्म जो ईश्वर के
ज्ञान में स्थित हैं वे सञ्चित कहलाते हैं ।’’
(समीक्षा) क्या जीव का कर्म जीव के ज्ञान में सञ्चित नहीं होता ?
जो ऐसा न हो तो कर्मों के योग से पवित्रता और अपवित्रता जीव में न होवे।
इसलिए जो—जो अध्ययनादि कर्म जीव करते हैं उन का सञ्चय जीव में ही
होता है, ईश्वर में नहीं । किन्तु ईश्वर तो केवल कर्मों का ज्ञाता है और फल—
प्रदाता है ।
(पृष्ठ १२, प्रश्नोत्तर ७७) केवल देवता और शिष्ट पुरुषों के नाम
पर जन्माष्टम्यादि व्रत हैं । सो ईश्वरातिरिक्त किसी देव की उपासना कर्तव्य
नहीं ।’’
(समीक्षा) क्या शिष्ट पुरुषों से भिन्न भी कोई देवता है ? विना पृथिव्यादि
के तैंतीस और वेद मन्त्र तथा माता—पिता आचार्य अतिथि आदि के जिन का
वेदों ने पूजन अर्थात् सम्यव्Q सत्कार करना कहा है । क्या यह भी मनुष्यों
को कर्त्तव्य नहीं ।
(पृष्ठ १३, प्रश्नोत्तर ८२) जो कुछ ईश्वर ने नियत किया है उस में
न्यूनाधिक करने वाला कोई नहीं । जो बात जिस प्राणी के लिए जिस काल में
जिस प्रकार से ईश्वर ने नियत की है उस से विरुद्ध कभी नहीं होती ।’’
(समीक्षा) क्या ब्रह्मचर्य्य और योगाभ्यासादि उत्तम कर्मों से आयु
का अधिक होना और कुपथ्य से वा व्यभिचारादि से न्यून नहीं होता?
जब ईश्वर का नियत किया हुआ ही होता है तो जीव के कर्मों की
अपेक्षा कुछ भी नहीं रह सकती । और जो अपेक्षा है तो केवल ईश्वर
ने नियत नहीं किया किन्तु दोनों निमित्तों से होती है । जो हमारा क्रियमाण
स्वतन्त्र न हो तो हम उन्नति को प्राप्त कभी नहीं हो सकते । इसलिए
हम कर्म करने में स्वतन्त्र और ईश्वर जीवों के कर्मों को यथायोग्य जानकर
कर्मानुसार शुभाऽशुभ फल देने में स्वतन्त्र है । ऐसा माने विना ईश्वर में वे
ही दोष आ जावेंगे, जो २५ वें प्रश्नोत्तर की समीक्षा में लिख आये हैं ।
(पृष्ठ १३, प्रश्नोत्तर ८४) स्वर्ग संसारान्तर्गत है वा लोकान्तर ? उत्तर’’
स्वर्ग लोक विशेष है वहां क्षुधा, पिपासा, बुढ़ापा आदि दुःख नहीं हैं ।’’
(समीक्षा) क्या लोकान्तर का नाम संसार है या नहीं । क्या विना मुक्ति
के प्रलय अथवा स्थूल शरीर के क्षुधादि की निवृत्ति हो सकती है । ऐसे विशेष
स्वर्ग लोक को गुरु—शिष्य देख आये होंगे । जो पूर्व मीमांसा को देखा होता
तो ऐसी अन्यथा बातें क्यों लिखते। देखिये स एव स्वर्गः स्यात् सर्वान्
प्रत्यविशिष्टत्वात् ।’’ पूर्व मीमांसा का वचन । जो सर्वत्र अविशेष अर्थात् सुख
विशेष की प्राप्ति का नाम स्वर्ग और दुःखविशेष की प्राप्ति का नाम नरक लिखा
है । सब जीवों को सब संसार में प्राप्त होता है किसी विशेष लोकान्तर ही
में नहीं । और जहां शरीर धारण, श्वास, प्रश्वास, भोग, वृद्धि क्षय आदि होते
हैं वहां क्षुधा, पिपासा और बुड्ढापन आदि क्यों नहीं ? यह सब अविघा की
बात है । ध्यान दीजिये वेद का कोष क्या कहता है (स्वः) साधारण नाम में
है निघण्टु १।४ । स्वः सुखं गच्छति यस्मिन् सः स्वर्गः।’’ जिस में सुख
की प्राप्ति हो वह स्वर्ग कहाता है परन्तु गौणमुख्ययोर्मध्ये मुख्ये कार्य्य—
सम्प्रत्ययः।’’ यह व्याकरण महाभाष्यकार का वचन है । इससे यह सिद्ध होता
है कि निर्मल धर्म्माऽनुष्ठानजन्य सत्य विघादि साधनों से सिद्ध आत्मीय और
शारीरिक सुख विशेष है । उसी प्रधान सुख की प्राप्ति का नाम स्वर्ग है ।
(पृष्ठ १४, प्रश्नोत्तर ९१) सम्पूर्ण जीव वास्तव में ईश्वर के दास
हैं । इस कारण मनुष्यों के नाम में ईश्वर वाच्य शब्द में दास शब्द का
प्रयोग करना अत्युत्तम है ?’’
(समीक्षा) यह शास्त्रीय व्यवहार से सर्वथा बाहर है । किन्तु केवल
कपोलकल्पना मात्र ही है । क्योंकि
शर्म्मवद् ब्राह्मणस्य स्यात् राज्ञो रक्षासमन्वितम् ।
वैश्यस्य गुप्तसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् ।। मनु०
जैसे ब्राह्मण का नाम विष्णु शर्म्मा, क्षत्रिय का विष्णु वर्म्मा, वैश्य का
विष्णु गुप्त और शूद्र का विष्णुदास इस प्रकार रखना चाहिये । जो कोई द्विज
शूद्र बनना चाहे तो अपना नाम दासशब्दान्त धर ले और जो शास्त्रोक्त विधि
छोड़ मनोमुख चले उस को क्या कहना !
(पृष्ठ १६, प्रश्नोत्तर ९७) परलोक और धर्मार्थ के फल तथा ईश्वर
को न मानने वाले को नास्तिक कहते हैं ।’’
(समीक्षा) इस में केवल इतनी न्यूनता है कि नास्तिको वेदनिन्दकः’’
जो लाला जगन्नाथदास और मुन्शी इन्द्रमणि जी ने मनुस्मृति पढ़ी वा अच्छे
प्रकार से देखी भी होती तो वेदनिन्दक का नाम नास्तिक में क्यों न लिखते,
जिस से सब कुछ अर्थ आ जाता और लक्षण भी दृष्टि पड़ता ।
(पृष्ठ १६, प्रश्नोत्तर ९८) हिन्दू’’ शब्द संस्कृत भाषा का नहीं
है, फारसी भाषा में वास्तविक अर्थ हिन्दुस्तान’’ के रहने वाले का अर्थ
है और (काला, लुटेरा, गुलाम) ये सांकेतिकार्थ हैं ।’’
(समीक्षा) वह क्या ! जब संस्कृत भाषा का नहीं है तो इस का वास्तविक
अर्थ कभी नहीं हो सकता, वास्तविक अर्थ (में) इस देश वालों—का नाम
(आर्य्य) और इस देश का नाम आर्य्यावर्त्त है’’ । इस सत्यार्थ को छोड़ असत्यार्थ
की कल्पना करनी मुझ को तो अविघा और हठ की लीला दृष्टि पड़ती है।
जब अर्बी’’ की (लुगात) नामक पुस्तक में लिखा है कि लुटेरे आदि
का नाम हिन्दू है तो उस भाषा में वास्तविक नाम क्यों नहीं ? केवल साटेतिक
अर्थ क्यों ? अर्थात् जो कोई आर्य्य होकर अपने हिन्दू नाम होने में आग्रह
करे, उन्हीं का नाम काला, लुटेरा, गुलामादि का रखो, आर्य्य का नहीं ।
(पृष्ठ १६, प्रश्नोत्तर १००) पहले कहने वाला परमात्मा जयति’’
कहे और उत्तर देने वाला जयति परमात्मा’’ कहे ।’’
(समीक्षा) यह कल्पना वेदादि शास्त्रों से विरुद्ध होने के कारण सर्वथा
ही मिथ्या जान पड़ती है क्योंकि नमस्ते रुद्र मन्यवे० । नमो ज्येष्ठाय च
कनिष्ठाय च नमः’’ इत्यादि यजुर्वेद वचन परमर्षिभ्यो नमः’’ नमो ब्रह्मणे
नमस्ते वायो’’ इत्यादि उपनिषद् वचन, इन से निश्चित यही सिद्ध होता है कि
परस्पर सत्कारार्थ (नमस्ते) शब्द से व्यवहार करने में वेदादि शास्त्रों का प्रमाण
है और परस्पर अर्थ भी यथावत् घटता है जैसे (ते) तुभ्यं वा तव अर्थात् जिस
को मान्य देता है उस का वाची है और (नमः) शब्द नम्रार्थवाचक होने से
नमस्कार कर्त्ता का बोधक है मैं तुम कू नमता हूं अर्थात् (ते) आप वा तेरा
मान्य वा सत्कार करता हूं । इस में नमस्कर्ता और नमस्करणीय दोनों का परस्पर
प्रसग् प्रकाशित होता है और यही अभिप्राय दोनों का है कि दोनों प्रसन्न रहें
और जो असम्बद्ध प्रलाप अर्थात् तीसरे परमेश्वर का प्रसग् लाना है सो व्यर्थ
ही है । जैसे आम्रान् पृष्टः कोविदारानाचष्टे ।’’ किसी ने किसी से पूछा
कि आम्र के वृक्ष कौन से हैं ? उस ने उसे उत्तर दिया कि ये कचनार के वृक्ष
हैं । क्या ऐसी ही यह बात नहीं है ? किसी ने ईश्वर का प्रश्न पूछा ही नहीं
और न कोई परस्पर सत्कार के व्यवहार में ईश्वर प्रसंग है और कह देना कि
(परमात्मा सारे उत्कर्षों के साथ विराजमान है) यह वचन हठयुक्त का नहीं
तो और क्या है ? हां जहां परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना, उपासना, उपदेश और
व्याख्या करने का प्रसंग हो वहां परमात्मा के नाम का उच्चारण करना सब
को उचित है । जैसा राम—राम, जय गोपाल, जय कृष्णादि शब्दों से परस्पर
व्यवहार करना, यह हठ दुराग्रह से सम्प्रदायी लोगों ने वेदादि शास्त्रविरुद्ध
मनमानी व्यर्थ कल्पना की है, उसी प्रकार से मुन्शी इन्द्रमणि जी व लाला
जगन्नाथ जी की युक्ति और प्रमाण से शून्य यह कल्पना दृष्टि पड़ती है ।
इन विषयों में मुन्शी इन्द्रमणि जी और स्वामी दयानन्द सरस्वती जी
का संवाद पूर्व समय में भी हो चुका है । परन्तु मुन्शी जी कब मानते हैं।
विशेष क्या लिखें । शोक है कि लाला जगन्नाथदास की करतूतों को विचार
कर अब मुझ को यह कहना पड़ा कि इन दोनों महात्माओं के प्रतिज्ञा से
विरुद्ध करना आदि अन्यथा व्यवहारों को जो कोई सज्जन पुरुष जानना चाहें,
वे आर्यसमाज मेरठ लाला रामसरनदासादि व भद्र पुरुषों से पूछ देखें कि अन्य—
मार्गियों के विवाद विषय के शान्तिकारक व्यवहार प्रसंग में इन्होंने कैसा—कैसा
विपरीत व्यवहार किया, जिस को सब जानकार आर्य लोग जानते हैं । सत्य
यह बात चली आती है कि सब पापों का पाप लोभ है।’’ जो कोई उसी
तृष्णारूपी नदीप्रवाह में बहे जाते हैं उन में पवित्र वेदोक्त आर्य धर्म की स्थिरता
होनी कठिन है । अब जो मुन्शी इन्द्रमणि जी और उन के चेले लाला
जगन्नाथदास, स्वामी जी और भद्र आर्यों की व्यर्थ निन्दा करें तो इसमें क्या
आश्चर्य है ? पाठक गण ! ठीक ही तो है जब जैसे में वैसा मिले फिर क्या
न्यूनता रहे । जैसे दावानल अग्नि का सहायक वायु होता है वैसे ही इनके
श्री मुन्शी बख्तावरसिंह जी सहायकारी बन बैठे । अब तो जितनी निन्दा आर्य
लोगों की करें उतनी ही थोड़ी । चलो भाई यह भी अच्छी मण्डली जुड़ी।
महाशयो ! जब तक तुम्हारा पेट न भरे तब तक निन्दा करने में कसर न
रखना क्योंकि यह अवसर अच्छा मिला है । जैसे किसी कवि ने यह श्लोक
कहा है सो बहुत ठीक है ।
निन्दन्तु नीतिनिपुणाः यदि वा स्तुवन्तु,
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् ।
अघैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ।।१।।
चाहे कोई अपने मतलब की नीति में चतुर निन्दा करे वा स्तुति करे,
चाहे लक्ष्मी प्राप्त हो वा चली जावे, चाहे मरण आज ही हो वा वर्षान्तरों में,
परन्तु जो धीर पुरुष महाशय महात्मा आप्तजन हैं वे धर्म्म—मार्ग से एक पाद
भी विरुद्ध अर्थात् अधर्म—मार्ग में नहीं चलते ।।
सभ्य गणो ! यह तो आर्य्यों की शुभेच्छा का कारण है, परन्तु जो प्रथम
उत्तमाचरण करके पश्चात् गड़बड़ा जायें वे ही तो आर्य्यावर्त्त के हानिकारक
होते हैं । परन्तु यह सदा ध्यान में रखना चाहिए कि श्रेयांसि बहुविघ्नानि’’
जो इस सनातन वेदोक्त सत्य धर्म का आचरण करते हैं उस में अनेक विघ्न
क्यूं न होवें, तदपि इस सत्यमार्ग से चलायमान न होना चाहिए । सर्वशक्तिमान्
जगदीश्वर परमात्मा अपनी कृपादृष्टि से इन विघ्नों से हम से और हम को
इनसे सर्वथा दूर रखकर हम से आर्य्यावर्त्त की उन्नति कराने में सहायक रहे।
इस थोड़े लेख से सज्जन पुरुष बहुत सा जान लेंगे । अलमतिविस्तरेण
बुद्धिमद्वर्येषु ।