रात्रि में जो हम शयनकालीन मंत्र पढ़ते हैं, …..(30.04( उन मंत्रों में एक शब्द आता है हृत्प्रतिष्ठम् । अंतिम छठे मंत्र में आता है न। ………………तो उससे पता लगता है, कि मन, हृदय में रहता है। वो विद्वान लोग कहते हैं, कि हृदय दो तरह का है। एक छाती में है, एक सर में है। तो अपने चिंतन से, व्यवहार से, सामान्य स्वभाव से हमको ऐसा लगता है कि मन मस्तिष्क वाले हृदय में रहना चाहिए। क्यों रहना चाहिए? मन का काम है- संकल्प-विकल्प, विचार करना। जो हम विचार करते हैं, वो तो मस्तिष्क से ही करते हैं। मन का जो कार्य है विचार करना। विचार करने में जो स्थूल शरीर का भाग है, वो ब्रेन (दिमाग( ही है। इसी से हम विचार करते हैं। आज की मेडीकल साइंस भी यही कहती है। इससे लगता है कि मन-मस्तिष्क में रहना चाहिए।
अगला प्रश्न है – उसको पकड़े कैसे? आंख बंद कर के बैठो और अपने मन के विचारों को पकड़ो। मेरे मन में कौन सा विचार आ रहा है? वस्तुतः आ नहीं रहा है, हम ही ला रहे हैं। हम कौन सा विचार ला रहे हैं। हम खाने-पीने का विचार ला रहे हैं, घूमने-फिरने का विचार ला रहे हैं, उस विचार को पकड़ लीजिए, बस मन पकड़ में आ गया। गाय के गले में रस्सी बंधी है। अगर गले की रस्सी पकड़ में आ जाए, तो गाय पकड़ में आ गई न। मन का काम क्या है-विचार करना। बाल्टी की तरह पकड़ में नहीं आयेगा वो। विचारों से ही पकड़ में आयेगा। विचारों को पकड़िये, मन आ गया हाथ में।