इसके आगे जिन शब्दों के अर्थ के नहीं जानने से, टीकाकारों को भ्रम
हो गया है तथा नवीन ग्रन्थ बनाने वाले और कहने वाले तथा सुनने वाले
को भी भ्रम होता है । उन शब्दों का शास्त्र रीति तथा प्रमाण और युक्ति से,
जो ठीक—ठीक अर्थ है, उन्हीं का प्रकाश संक्षेप से लिखा जाता है । प्रथम
तो एक प्रतिमा शब्द है ।
प्रतिमीयते यया सा प्रतिमा ।
अर्थात् प्रतिमानम् जिससे प्रमाण अर्थात् परिमाण किया जाये, उसको
कहना प्रतिमा, जैसे कि छटांक, आधपाव, पावसेर, सेर, पसेरी इत्यादि और
यज्ञ के चमसादिक पात्र । क्योंकि इन से पदार्थों के परिमाण किये जाते हैं।
इससे इन्हों का ही नाम है प्रतिमा । यही अर्थ मनु भगवान् ने मनुस्मृति में
लिखा
तुलामानं प्रतिमानं सर्वं च स्यात् सुलक्षितम् ।
षट्सु षट्सु च मासेषु पुनरेव परीक्षयेत् ।।
पक्ष—पक्ष में, वा मास—मास में, अथवा छठवें—छठवें मास तुला की राजा
परीक्षा करे । क्योंकि तराजू की दण्डी में भीतर छिद्र करके पारा उसमें डाल
देते हैं । जब कोई पदार्थ को तौल के लेने लगते हैं, तब दण्डी को पीछे
नमा देते हैं । फिर पारा पीछे जाने से चीज अधिक आती है । और, जब
देने के समय में दण्डी आगे नमा देते हैं उससे चीज थोड़ी जाती है । इससे
तुला की परीक्षा अवश्य करनी चाहिए तथा प्रतिमान अर्थात् प्रतिमा की परीक्षा
अवश्य करे । राजा जिस से कि अधिक, न्यून प्रतिमा अर्थात् दुकान के बाट
जितने हैं, उन्हों का ही नाम प्रतिमा । इसी वास्ते प्रतिमा के भेदक अर्थात्
घाट बाढ़ तौलने वाले के ऊपर दण्ड लिखा है
संक्रमध्वजयष्टीनां प्रतिमानां च भेदकः ।
प्रतिकुर्याच्च तत्सर्वं पञ्च दघाच्छतानि च ।।
यह मनु जी का श्लोक है । इसका अभिप्राय यह है कि संक्रम अर्थात्
रथ, उस रथ के ध्वजा की यष्टि, जिसके ऊपर ध्वजा बांधी जाती है, और
प्रतिमा छटांक आदिक बटखरे, इन तीनों को तोड़ डाले वा अधिक न्यून कर
देवे, उनको उससे राजा बनवा लेवे । और जैसा जिसका ऐश्वर्य, उसके योग्य
दण्ड करे । जो दरिद्र, होवे तो उससे पांच सौ पैसा राजा दण्ड लेवे । जो
कुछ धनाढ्य होवे तो पांच सौ रुपया उससे दण्ड लेवे । और जो बहुत
धनाढ्य होवे, उससे पांच सौ अशर्फी दण्ड लेवे । रथादिकों को उसी के
हाथ से बनवा लेवे । इससे सज्जन लोग बटखरा तथा चमसादिक यज्ञ के
पात्र उन्हीं को ही प्रतिमा शब्द से निश्चित जानें ।
दूसरा पुराण शब्द है
पुराभवं पुराभवा वा पुराभवश्च इति पुराणं पुराणी पुराणः ।
जो पुराण पदार्थ होवे, उसको कहते हैं पुराणा । सो सदा विशेषण वाची
ही रहता है तथा पुरातन, प्राचीन और प्राक्तन आदि शब्द सब हैं तथा उनों के
विरोधी विशेषणवाची नूतन, नवीन, अघतन, अर्वाचीन आदिक शब्द हैं । जो
विशेषण वाची शब्द होते हैं, वे सब परस्पर व्यावर्तक होते हैं । जैसे कि यह
चीज पुरानी है तथा यह चीज नवीन है । पुराण शब्द जो है, सो नवीन शब्द
की व्यावृत्ति कर देता है । यह पदार्थ पुराना है अर्थात् नया नहीं । और, यह
पदार्थ नया है अर्थात् पुराना नहीं । जहां—जहां वेदादिकों में पुराणादिक शब्द
आते हैं, वहां—वहां इन अर्थों के वाचक ही आते हैं, अन्यथा नहीं । ऐसा ही
अर्थ गौतम मुनि जी के किये सूत्रों के ऊपर जो वात्स्यायन मुनि का किया
भाष्य है, उसमें लिखा है ।
वहां ब्राह्मण पुस्तक जो शतपथादिक उनों का ही नाम पुराण है । तथा
शटराचार्य जी ने भी शारीरक भाष्य में, और उपनिषद्भाष्य में, ब्राह्मण और
ब्रह्मविघा का ही पुराण शब्द से ग्रहण किया है । जो देखना चाहे सो उन
शास्त्रों में देख लेवे । वह इस प्रकार से कहा है कि जहां—जहां प्रश्न और
उत्तरपूर्वक कथा होवे, उसका नाम इतिहास है । और जहां—जहां ब्राह्मण पुस्तकों
में वंश—कथा होवे उसका नाम पुराण है । और ऐसे जो कहते हैं कि अठारह
ग्रन्थों का नाम पुराण है यह बात तो अत्यन्त अयुक्त है । क्योंकि उस बात
का वेदादिक सत्यशास्त्रों में प्रमाण कहीं नहीं है । और कथा भी इन में अयुक्त
ही है। इन का नाम कोई पुराण रक्खे तो इन से पूछना चाहिए कि वेद क्या
नवीन हो सकते हैं? सब ग्रन्थों से वेद ही पुराने हैं । और यह बात कहते
हैं कि अश्वमेध की जो पूर्ति हो जाय, उसके दसवें दिन पुराण की कथा
यजमान सुने । सो तो ठीक—ठीक है कि ब्राह्मण पुस्तक की कथा सुने और,
जो ऐसा कहे कि ब्रह्मवैवर्तादिकों की क्यों नहीं सुने ? उससे पूछना चाहिये
कि सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में जब—जब अश्वमेध भये थे, तब—तब किस
की कथा सुनी थी । क्योंकि उस वक्त व्यास जी का जन्म भी नहीं भया
था । तब पुराण कहां थे । और जो ऐसा कहे कि व्यास जी युग—युग में थे,
यह बात भी उसकी मिथ्या है । क्योंकि अब तक युधिष्ठिरादिकों का निशान
दिल्ली आदिकों में देख पड़ता है । उसी वक्त व्यास जी और व्यास जी की
माता आदिक वर्तमान थे । इससे यह भी उनका कहना मिथ्या ही है । पुराण
जितने ब्रह्मवैवर्त्तादिक वे सब सम्प्रदायी लोगों ने अपने—अपने मतलब के वास्ते
बना लिये हैं । व्यास जी का वा अन्य ऋषि—मुनियों का किया एक भी पुराण
नहीं है । क्योंकि वे बड़े विद्वान् और धर्मात्मा थे । उनका वचन सत्य ही
है तथा छः दर्शनों में उन के सत्य वचन देखने में आते हैं । मिथ्या एक
नहीं । और पुराणों में मिथ्या कथा तथा परस्पर विरोध ही है । और, जैसे
वे सम्प्रदायी लोग हैं, वैसे ही उनके बनाये पुराण भी सब नेष्ट हैं । सो सज्जनों
को ऐसा ही जानना उचित है, अन्यथा नहीं ।
तीसरा देवालय और चौथा देवपूजा शब्द है। देवालय, देवायतन,
देवागार तथा देवमन्दिर, इत्यादिक सब नाम यज्ञशालाओं के ही हैं ।
क्योंकि जिस स्थान में देवपूजा होवे, उसके नाम हैं, देवालयादिक । और देव
संज्ञा है परमेश्वर की तथा परमेश्वर की आज्ञा जो वेद उसके मन्त्रों की भी
देव संज्ञा है । देव जो होता है, सोई देवता है । यह बात पूर्वमीमांसा शास्त्र
में विस्तार से लिखी है । जिसको देखने की इच्छा हो, वह उस शास्त्र में
देख ले । जो कि शास्त्र कर्मकाण्ड के ऊपर है । वे जैमिनि मुनि के किये
सूत्र हैं । यहां तक उसमें लिखा है कि ब्रह्मा, विष्णु, महादेवादिक देव जो
देवलोक में रहते हैं, उन का भी पूजन कभी न करना चाहिये, एक परमेश्वर
के विना । सो वेद में इस प्रकार से निषेध किया है कि
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्म्माणि प्रथमान्यासन् ।
यह यजुर्वेद की श्रुति है । ब्रह्मादिक जो देव वे जब यज्ञ करते हैं, तब
उनों से अन्य कौन देव हैं, जो कि उनके यज्ञों में आके भाग लेवें । सो उन
से आगे कोई देव नहीं है । और जो कोई मानेगा तो उनके मत में अनवस्था
दोष आवेगा । इससे परमेश्वर और वेदों के मन्त्र उन को ही देव और देवता
मानना उचित है । अन्य कोई नहीं ।
अग्निर्देवतेत्यादिक जो यजुर्वेद में लिखा है, सो अग्नि आदिक सब नाम
परमेश्वर ही के हैं । क्योंकि देवता शब्द के विशेषण देने से इसमें मनुस्मृति
का प्रमाण है
आत्मैव देवताः सर्वाः सर्वमात्मन्यवस्थितम् ।
आत्मा हि जनयत्येषा कर्मयोगं शरीरिणम् ।।१।।
प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि ।
रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विघात्तं पुरुषं परम् ।।२।।
एतमगिं्न वन्दत्येके मनुमेके प्रजापतिम् ।
इन्द्रमेकेऽपरे प्राणमपरे ब्रह्म शाश्वतम् ।।३।।
इन श्लोकों से आत्मा, जो परमेश्वर, उसी का देवता नाम है । और
अग्न्यादिक जितने नाम हैं, वे भी परमेश्वर के ही हैं । परन्तु जहां—जहां ऐसा
प्रकरण हो कि उपासना, स्तुति, प्रार्थना तथा इस प्रकार के विशेषण वहां—वहां
परमेश्वर का ही ग्रहण होता है, अन्यत्र नहीं । किन्तु ट्टसर्वमात्मन्यवस्थितम्’
सिवाय परमेश्वर के कोई में सब जगह नहीं ठहर सकता । और ट्टप्रशासितारं
सर्वेषामित्यादिक’ विशेषणों से परमेश्वर का ही ग्रहण होता है, अन्य का नहीं।
क्योंकि सब का शासन करने वाला विना परमेश्वर से कोई नहीं । तथा सूक्ष्म
से भी अत्यन्त सूक्ष्म और पर पुरुष परमेश्वर से भिन्न, ऐसा कोई नहीं हो
सकता है । निरुक्त में भी यह लिखा है कि
यत्र देवतोच्यते तत्र तल्लिगे मन्त्रः ।
जहां—जहां देवता शब्द आवे, वहां—वहां उस नामवाले मन्त्र को ही लेना।
जैसा कि ट्टअग्निर्देवता’ इसमें अग्नि शब्द आया, सो जिस मन्त्र में अग्नि शब्द
होवे, उस मन्त्र का ही ग्रहण करना । ट्टअग्निमीडे पुरोहितमिति’ यह मन्त्र ही
देवता है । अन्य कोई नहीं । इससे क्या आया कि परमेश्वर और वेदों
के मन्त्र ही देव और देवता हैं । जिस स्थान में होम, परमेश्वर का विचार,
ध्यान और समाधि करें, उसके नाम हैं देवालयादिक । इसमें मनुस्मृति का
प्रमाण भी है
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् ।
होमो देवो बलिर्भौतो नृयज्ञोऽतिथिसेवनम् ।।१।।
स्वाध्यायेनार्चयेदर्षीन् होमैर्देवान्यथाविधि ।
पित¤न् श्राद्धैनर्¤नन्नैर्भूतानि बलिकर्मणा ।।२।।
इन श्लोकों से क्या आया कि होम जो है, सोई देवपूजा है अन्य कोई
नहीं । और होम स्थान जितने हैं, वे ही देवलयादिक शब्दों से लिये जाते
हैं ।
पूजा नाम सत्कार । क्योंकि ट्टअतिथिपूजनम् होमैर्देवानर्चयेत् ।’ अतिथियों
का पूजन, नाम सत्कार करना तथा देव परमेश्वर और मन्त्र इन्हों का सत्कार
इसका नाम है पूजा, अन्य का नहीं । और पाषाणादि मूर्ति स्थान देवालयादिक
शब्दों से भी नहीं लेना तथा घण्टा—नादादि पूजा शब्द से भी कभी नहीं लेना।
देवल और देवलक शब्द का यह अर्थ है कि
यद्वित्तं यज्ञशीलानां देवस्वं तद्विदुर्बुधाः ।
अयज्वनां तु यद्वित्तमासुरस्वं प्रचक्षते ।।१।।
यह मनु का श्लोक है । इसका अभिप्राय है कि जिन्हों का यज्ञ करने
का शील अर्थात् स्वभाव होवे, उसका सब धन यज्ञ के वास्ते ही होता है।
अर्थात् देवार्थ धन है ।
यद्दैवं तदेव देवस्वम्
अर्थात् होम के लिए जो धन होवे, उसका नाम देवस्व है । सो भिक्षा
अथवा प्रतिग्रह करके यज्ञ के नाम से धन लेके यज्ञ तो करें नहीं, और उस
धन से अपना व्यवहार करे, इसका नाम है देवल । सो इसकी शास्त्र में निन्दा
लिखी है । देवपितृकार्य में उसको निमन्त्रण कभी न करना चाहिए । ऐसा
उसका निषेध लिखा है । और जो यज्ञ के धन की चोरी करता है, वह होता
है देवलक ।
कुत्सितो देवलो देवलकः कुत्सिते इत्यनेन कन् प्रत्ययः ।
देवलक तो अत्यन्त निन्दित है ।
एक यह अन्धकार लोगों का देखना चाहिए कि
विद्वान् भोजनीयः सत्कर्तव्यश्चेति ।
विद्वान् को भोजन कराना चाहिये और उसका सत्कार भी करना
चाहिये । इससे कोई की ऐसी बुद्धि न होगी कि पाषाणादिक मूर्ति को भोजन
कराना, वा उसका सत्कार करना चाहिये । वह भी बात ऐसी ही है ।
एक बात वे लोग कहते हैं कि पाषाणादिक तो देव नहीं हैं, परन्तु भाव
से वे देव हो जाते हैं । उनसे पूछना चाहिये कि भाव सत्य होता है, वा
मिथ्या? जो वे कहें कि भाव सत्य होता है, फिर उनसे पूछना चाहिये कि
कोई भी मनुष्य दुःख का भाव नहीं करता, फिर उसको क्यों दुःख होता है
और सुख का भाव सब मनुष्य सदा चाहते हैं । फिर उनको सुख सदा क्यों
नहीं होता? फिर वे कहते हैं कि यह बात तो कर्म से होती है । अच्छा तो
आपका भाव कुछ भी नहीं ठहरा । अर्थात् मिथ्या ही हुआ है । सत्य नहीं
हुआ । आपसे मैं पूछता हूं कि अग्नि में जल का भाव करके हाथ डाले
तो क्या वह न जल जायेगा ? किन्तु जल ही जायेगा । इससे क्या आया पाषाण
को पाषाण ही मानना और देव को देव मानना चाहिये, अन्यथा नहीं । इससे
जो जैसा पदार्थ है, वैसा ही उसको सज्जन लोग मानें ।
काश्यादिक स्थान, गगदिक तीर्थ, एकादशी आदिक व्रत, राम,
शिव, कृष्णादिक नाम स्मरण तथा तोबा शब्द वा यीसू के विश्वास से
पापों का छूटना और मुक्ति का होना, तिलक, छाप, माला—धारण तथा श्ौव,
शाक्त, गाणपत्य, वैष्णव, क्रिश्चन और मुहम्मदी और नानक, कबीर आदिक
सम्प्रदाय, इन्हों से पाप सब छूट जाते हैं । और मुक्ति भी हो जाती है । यह
अन्यथा बुद्धि ही है । क्योंकि इस प्रकार के सुनने और मिथ्या निश्चय के
होने से सब लोग पापों में प्रवृत्त हो जाते हैं । कोई न भी होगा । तभी
कोई मनुष्य पाप करने में भय नहीं करते हैं । जैसे
अन्यक्षेत्रे कृतं पापं, काशीक्षेत्रे विनश्यति ।
काशीक्षेत्रे कृतं पापं पञ्चक्रोश्यां विनश्यति ।।१।।
पञ्चक्रोश्यां कृतं पापमन्तर्गृह्यां विनश्यति ।
अन्तर्गृह्यां कृतं पापमविमुक्ते विनश्यति ।।२।।
अविमुक्ते कृतं पापं स्मरणादेव नश्यति ।
काश्यां तु मरणान्मुक्तिर्नात्र कार्या विचारणा ।।३।।
इत्यादिक श्लोक काशीखण्डादिकों में लिखे हैं । ट्टकाश्यां मरणान्मुक्तिः।’
कोई पुरुष इसको श्रुति कहता है । सो यह वचन उसका मिथ्या ही है। क्योंकि
चारों वेदों के बीच में कहीं नहीं है । कोई ने मिथ्या जाबालोपनिषद् रच
लिया है । किन्तु अथर्ववेद के संहिता में तथा कोई वेद के ब्राह्मण में इस
प्रकार की श्रुति है नहीं । इससे यह श्रुति तो कभी नहीं हो सकती। किन्तु
कोई ने मिथ्या कल्पना कर ली है । जैसे कि ट्टअन्यक्षेत्रे कृतं पापं’ इत्यादि
श्लोक मिथ्या बना लिये हैं । इस प्रकार के श्लोकों को सुनने से, मनुष्यों
की बुद्धि भ्रष्ट होने से सदा पाप में प्रवृत्त हो जाते हैं । इससे सब सज्जन
लोगों को निश्चित जानना चाहिये कि जितने—जितने इस प्रकार के माहात्म्य
लिखे हैं, वे सब मिथ्या ही हैं । इन्हों से मनुष्यों का बड़ा अनुपकार होता
है । जो कोई धर्मात्मा बुद्धिमान् राजा होवे तो इन पुस्तकों का पठन—पाठन,
सुनना—सुनाना, बन्द कर दे और वेदादि सत्य शास्त्रों की यथावत् प्रवृत्ति करा
देवे । तब इस उपद्रव की यथावत् शान्ति होने से सब मनुष्य शिष्ट हो जायें,
अन्यथा नहीं ।
विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धनी ।
(योग० समा० ३५)
इस सूत्र के भाष्य में लिखा है कि
एतेन चन्द्रादित्यग्रहमणिप्रदीपरत्नादिषु प्रवृत्तिरुत्पन्ना विषयवत्येव
वेदितव्येति ।
इससे प्रतिमा—पूजन कभी नहीं आ सकता । क्योंकि इन में देवबुद्धि
करना नहीं लिखा । किन्तु जैसे वे जड़ हैं, वैसे ही योगी लोग उनको जानते
हैं । और बाह्यमुख जो वृत्ति, उस को भीतर मुख करने के वास्ते योगशास्त्र
की प्रवृत्ति है । बाहर के पदार्थ का ध्यान करना, योगी लोग को नहीं
लिखा । क्योंकि जितने सावयव पदार्थ हैं, उनमें कभी चित्त की स्थिरता नहीं
होती । और जो होवे तो मूर्तिमान् धन, पुत्र, दारादिक के ध्यान में सब संसार
लगा ही है । परन्तु चित्त की स्थिरता कोई की भी नहीं होती । इस वास्ते
यह सूत्र लिखा
विशोका वा ज्योतिष्मती (योग०समा० ६६)
इसका यह भाष्य है
प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धनीत्यनुवर्त्तते । हृदयपुण्डरीके
धारयतो बुद्धिसंवित् बुद्धिसत्त्वं हि भास्वरमाकाशकल्पं तत्र स्थिति—
वैशारघात् प्रवृत्तिः सूर्येन्दुग्रहमणिप्रभारूपाकारेण विकल्पते । तथाऽस्मितायां
समापन्नं चित्तं निस्तरग्महोदधिकल्पं शान्तमनन्तमस्मितामात्रं भवति ।
यत्रेदमुक्तम्तमणुमात्रमात्मानमनुविघास्मीति एवं तावत् सम्प्रजानीत
इति । एषा द्वयी विशोका विषयवती, अस्मितामात्रा च प्रवृत्ति—
र्ज्योतिष्मतीत्युच्यते यया योगिनश्चित्तं स्थितिपदं लभत इति ।
इसमें यह देखना चाहिये कि हृदय में धारणा चित्त की लिखी । इससे
निर्मल प्रकाशस्वरूप चित्त होता है । जैसा सूक्ष्म विभु आकाश है, वैसी ही
योगी की बुद्धि होती है । तत्र नाम अपने हृदय में विशाल स्थिति के होने
से, बुद्धि की जो शुद्ध प्रवृत्ति, सोई बुद्धि सूर्य, चन्द्र, ग्रह, मणि इन्हों की,
जैसी प्रभा, वैसे ही योगी की बुद्धि समाधि में होती है ।
तथा अस्मिता मात्रा अर्थात् यही मेरा स्वरूप है, ऐसा साक्षात्कार स्वरूप
का ज्ञान बुद्धि को जब होता है, तब चित्त निस्तरग्, अर्थात् निष्कम्प समुद्र
की नाईं एकरस व्यापक होता है । तथा शान्त, निरुपद्रव, अनन्त अर्थात् जिसकी
सीमा न होवे, यही मेरा स्वरूप है, अर्थात् मेरा आत्मा है, सो विगत अर्थात्
शोकरहित जो प्रवृत्ति वही विषयवती प्रवृत्ति कहाती है । उसको अस्मितामात्र
प्रवृत्ति कहते हैं । तथा ज्योतिष्मती भी उसी को कहते हैं । योगी का जो चित्त
है, सोई चन्द्रादित्य आदिक स्वरूप हो जाता है ।
सू०स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा ।। (योग० समा० ३८)
भाष्य०स्वप्नज्ञानालम्बनं निद्राज्ञानावलम्बनं वा तदाकारं योगिन—
श्चित्तं स्थितिपदं लभत इति ।
जैसे स्वप्नावस्था में चित्त ज्ञानस्वरूप होके पूर्वानुभूत संस्कारों को
यथावत् देखता है, तथा निद्रा अर्थात् सुषुप्ति में आनन्दस्वरूप ज्ञानवान् चित्त
होता है । ऐसा ही जागृतावस्था में, जब योगी ध्यान करता है, इस प्रकार आलम्ब
से तब योगी का चित्त स्थिर हो जाता है ।
सू०यथाभिमतध्यानाद्वा ।। (योग० समा० ३९)
भाष्य०यद्वाभिमतं तदेव ध्यायेत् तत्र लब्धस्थितिकमन्यत्रापि
स्थितिपदं लभत इति । नासिकाग्रे धारयतो या गन्धसंवित् ।
इससे लेके ट्टनिद्राज्ञानालम्बनं वा’ यहां तक शरीर में जितने चित्त के
स्थिर करने के वास्ते स्थान लिखे हैं, इन्हों में से कोई स्थान में योगी चित्त
को धारण करे ।
जिस स्थान में अपनी अभिमति, उसमें चित्त को ठहराये ।
सू०देशबन्धश्चित्तस्य धारणा । (योग० विभू० १)
भाष्य०नाभिचक्रे हृदयपुण्डरीके मूर्ध्नि ज्योतिषि नासिकाग्रे
जिह्वाग्र इत्येवमादिषु देशेषु बाह्ये वा विषये चित्तस्य वृत्तिमात्र्ेाण बन्ध
इति । बन्धो धारणा नाभि—हृदय—मूर्द्धा—ज्योतिः ।
अर्थात् नेत्र, नासिकाग्र, जिह्वाग्र, इत्यादिक देशों के बीच में चित्त को
योगी धारण करे । तथा बाह्य विषय जैसा कि ओटार वा गायत्री मन्त्र, इनमें
चित्त लगावे, हृदय से । क्योंकि
तज्जपस्तदर्थभावनम् । (योग० स० पाद २८)
यह सूत्र है योग का । इसका योगी जप, अर्थात् चित्त से पुनः पुनः
आवृत्ति करे । और इसका अर्थ जो ईश्वर, उसको हृदय में विचारे।
सू०तस्य वाचकः प्रणवः । (योग० स० २७)
ओटार का वाच्य ईश्वर है । और उसका वाचक ओटार है । बाह्य
विषय से इनको ही लेना, और कोई को नहीं । क्योंकि अन्य प्रमाण कहीं
नहीं ।
सू०तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् । (योग० विभू० २)
भाष्य०तस्मिन्देशे ध्येयालम्बनस्य प्रत्ययस्यैकतानता सदृशः प्रवाहः
प्रत्ययान्तरेणापरामृष्टो ध्यानम् ।
तीन देशों में अर्थात् नाभि आदिकों में, ध्येय जो आत्मा, उस आलम्बन
की, और चित्त की एकतानता, अर्थात् परस्पर दोनों की एकता, चित्त आत्मा
से भिन्न न रहे तथा आत्मा चित्त से पृथव्Q न रहे, उसका नाम है, सदृशप्रवाह।
जब चित्त प्रत्येक चेतन से ही युक्त रहे, अन्य प्रत्यय कोई पदार्थान्तर का स्मरण
न रहे, तब जानना कि ध्यान ठीक हुआ ।
सू०तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः ।
(योग० विभू० ३)
जब ध्याता, ध्यान और ध्येय, इन तीनों का पृथव्Q भाव न रहे, तब
जानना कि समाधि सिद्ध हो गई ।
सू०त्रयमन्तरग्ं पूर्वेभ्यः । (योग० विभू० ७)
यमादिक पांच अगें से धारणा, ध्यान और समाधि ये तीन अन्तरग्
हैं । और यमादिक बहिरग् हैं ।
सू०भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात् ।। (विभू० २६)
चन्द्रे ताराव्यूहज्ञानम् ।। २७ ।।
ध्रुवे तद्गतिज्ञानम् ।। २८ ।।
नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम् ।। २९।।
मूर्द्धज्योतिषि सिद्धदर्शनम् ।। ३२ ।।
प्रातिभाद्वा सर्वम् ।। ३३ ।।
इत्यादिक सूत्रों से यह प्रसिद्ध जाना जाता है कि धारणादिक तीन अग्
आभ्यन्तर के हैं । सो हृदय में ही योगी परमाणु पर्यन्त जितने पदार्थ हैं, उनको
योग ज्ञान से ही योगी जानता है । बाहर के पदार्थों से किञ्चिन्मात्र भी ध्यान
में सम्बन्ध योगी नहीं रखता किन्तु आत्मा से ही ध्यान का सम्बन्ध है, और
से नहीं । इस विषय में जो कोई अन्यथा कहे, सो उसका कहना सब सज्जन
लोग मिथ्या ही जानें । क्योंकि
सू०योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ।। (समा० २)
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ।। (समा० ३)
जब योगी चित्तवृत्तियों को निरोध करता है, बाहर और भीतर से उसी
वक्त द्रष्टा, जो आत्मा उस चेतनस्वरूप में ही स्थिर हो जाता है, अन्यत्र नहीं।
सू०विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम् । (योग० समा० ८)
विपरीत ज्ञान जो होता है, उसी को मिथ्या ज्ञान कहते हैं । उस योगी
को तो योग छोड़ के ही विपरीत होता है, अन्यथा कभी नहीं । इससे क्या
आया कि कोई योगशास्त्र से पाषाणादिक मूर्ति का पूजन कहे, सो मिथ्या
ही कहता है। इसमें कुछ भी सन्देह नहीं ।
श्लोक
दयाया आनन्दो विलसति परः स्वात्मविदितः,
सरस्वत्यस्यान्ते निवसति मुदा सत्यवचना ।
तदाख्यातिर्यस्य प्रकटितगुणा राष्ट्रशरणा,
स को दान्तः शान्तो विदितविदितो वेघविदितः ।।
श्रीदयानन्दसरस्वती स्वामिना विरचितमिदमिति विज्ञेयम् ।।