प्रणव’ शब्द का अर्थ है, वह शब्द, जिससे ईश्वर की अच्छी प्रकार से स्तुति की जाये। और वह होती है ‘ओ३म्’ से। तो प्रणव का अर्थ हुआ- ‘ओ३म्’।
स इस ओम का जप करना चाहिये। ओम शब्द को बार-बार दोहराना चाहिये और अर्थ सहित दोहराना चाहिये। योग दर्शन के सूत्र 1/27 में लिखा है- ‘तस्य वाचकः प्रणवः’। ईश्वर का का नाम ओम है। अगले सूत्र 1/28 में लिखा है, ‘तज्जपस्तदर्थ भावनाम्’ अर्थात् ‘ओ३म्’ का जप अर्थ की भावना सहित करो।
स अर्थ की भावना क्या होती है? अर्थ की भावना करना, ट्रांसलेसन करना नहीं कहलाता। ‘सबकी रक्षा करने वाला’ यह तो ओ३म शब्द का अनुवाद हुआ। अर्थ भावना नहीं हुई। अर्थ भावना का मतलब है, वैसी हमारी मानसिकता (मेनटेलिटी( भी बननी चाहिए, कि ‘ईश्वर सबकी रक्षा करने वाला है। मन-बु(ि में ऐसा हमको प्रतीत होना चाहिए। वो है ‘अर्थ भावना’। मान लीजिए, आप में से एक व्यक्ति मंच पर आ गया। आप उनका परिचय नहीं जानते। पहले-पहले जब आप परिचय नहीं जानते, तो आपको क्या दिखेगा। यह एक व्यक्ति है। चालीस की उमर दिखती है। बस, इतना दिखता है। अब जब उसका यह परिचय कराया जाएगा, कि ये जो व्यक्ति आपके सामने बैठे हुए हैं, ये हाईकोर्ट के जज हैं, तो आपकी दृष्टि बदल जाएगी। अब आपको वो चालीस साल का जवान नहीं दिखेगा। अब वो कुछ और दिखेगा। अब जो कुछ आपको दिख रहा है, वो है ‘अर्थ भावना’। अब आपको वह सामान्य व्यक्ति नहीं दिख रहा है, उसमें एक न्यायाधीश दिख रहा है। हाईकोर्ट का उच्च स्तर का एक बु(िमान न्यायाधीश दिख रहा है। तो अब जो कुछ भी दिख रहा है, दरअसल वो है ‘अर्थ भावना’।
स ऐसे ही जब ओ३म् का जप करें, तो अर्थ की भावना सहित करें। हम कहते हैं, ‘ओम सर्वरक्षक’, तो ‘ईश्वर सर्वव्यापक निराकार होता हुआ सबकी रक्षा करता है,’ ऐसे भाव हमारे मन में होने चाहिए। जब हम कहेंगे, ‘ओ३म् आनंदः’ तो ‘ईश्वर आनंद का भंडार है’, ऐसा प्रतीत होना चाहिए। जैसे रसगुल्ले का नाम लेते ही, उसकी याद करते ही मस्तिष्क में विचार आता है – वाह! बहुत अच्छी वस्तु है, मिठाई है, खाने की चीज है। बहुत सुखदाई है। उससे हमको आनंद मिलता है। जैसे रसगुल्ले का स्मरण करने से आनंद मिलता है, ये प्रतीति होती है। ऐसे ही भगवान को आनंद स्वरूप कहेंगे। उसको भी आनंद का भंडार मानना चाहिए। ‘इससे हमको आनंद मिलेगा,’ इस तरह का भाव यदि हमारे मन में है, तो यह हुई- ‘अर्थ-भावना’। इस प्रकार से जप करना चाहिए।