पैगम्बर को पृथ्वी पर भेजना

काशी में विज्ञापन—पत्र

सितम्बर, १८७९

सब सज्जन लोगों को विदित किया जाता है कि इस समय पण्डित

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी महाराज काशी में आकर श्रीयुत महाराज

विजयनगर के अधिपति के आनन्द बाग में जो महमूदरंग के समीप है, निवास

करते हैं । वे वेदमत का ग्रहण करके उस के विरुद्ध कुछ भी नहीं मानते।

किन्तु जो—जो ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव और वेदोक्त१सृष्टिक्रम,

२प्रत्यक्षादि प्रमाण, ३आप्तों का आचार और सिद्धान्त तथा ४आत्मा की

पवित्रता और विज्ञान के विरुद्ध होने के कारण पाषाणादि मूर्तिपूजा, जल और

स्थलविशेष पाप निवारण करने की शक्ति, व्यास मुनि आदि के नाम से छल

से प्रसिद्ध किये नवीन व्यर्थ पुराण नामक आदि, ब्रह्मवैवर्त्तादि ग्रन्थ, परमेश्वर

के अवतार व पुत्र होके अपने विश्वासियों के पाप क्षमा कर मुक्ति देने हारे

का मानना, उपदेश के लिए अपने मित्र पैगम्बर को पृथ्वी पर भेजना, पर्वतों

का उठाना, मुर्दों का जिलाना, चन्द्रमा का खण्डन करना, कारण के विना

कार्य की उत्पत्ति मानना, ईश्वर को नहीं मानना, स्वयं ब्रह्म बनना अर्थात् ब्रह्म

से अतिरिक्त वस्तु कुछ भी न मानना, जीव ब्रह्म को एक ही समझना, कण्ठी,

तिलक और रुद्राक्षादि धारण करना और श्ौव, शाक्त, वैष्णव गाणपत्यादि

सम्प्रदाय आदि हैं, इन सब का खण्डन करते हैं । इस से इस विषय में जिस

किसी वेदादि शास्त्रों के अर्थ जानने में कुशल, सभ्य, शिष्ट, आप्त विद्वान्

को विरुद्ध जान पड़े, अपने मत का स्थापन और दूसरे के मत का खण्डन

करने में सामर्थ्य हो वह स्वामी जी के साथ शास्त्रार्थ करके पूर्वोक्त व्यवहारों

को स्थापित करे । इस से विरुद्ध मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता । इस

शास्त्रार्थ में मध्यस्थ रहेंगे । वेदार्थ निश्चय के लिए जो ब्रह्मा से लेके जैमिनि

मुनि पर्यन्त के बनाये ऐतरेय ब्राह्मण से लेके पूर्वमीमांसा पर्यन्त वेदानुकूल

आर्ष ग्रन्थ हैं वे वादी और प्रतिवादी उभय पक्षवालों को माननीय होने के

कारण माने जावेंगे । और जो इस सभा में सभासद् हों वे भी पक्षपात रहित

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के स्वरूप तथा साधनों को ठीक—ठीक जानने,

सत्य के साथ प्रीति और असत्य के साथ द्वेष रखने वाले हों, इनके विपरीत

नहीं । दोनों पक्ष वाले जो कुछ कहें उस का शीघ्र लिखने वाले तीन लेखक

लिखते जावें । वादी और प्रतिवादी अपने—अपने लेख के अन्त में अपने—अपने

लेख पर हस्ताक्षर से अपना—अपना नाम लिखें । तब जो मुख्य सभासद् हों

वे भी दोनों के लेख पर हस्ताक्षर करें । उन तीन पुस्तकों में से एक वादी,

दूसरा प्रतिवादी को दिया जाय और तीसरा सब सभा सम्मति से किसी प्रतिष्ठित

राजपुरुष की सभा में रक्खा जावे कि जिस से कोई अन्यथा न कर सके।

जो इस प्रकार होने पर भी काशी के विद्वान् लोग सत्य और असत्य का निर्णय

करके औरों को न करावेंगे तो उन के लिए अत्यन्त लज्जा की बात है, क्योंकि

विद्वानों का यही स्वभाव होता है जो सत्य और असत्य को ठीक—ठीक जान

के सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग कर दूसरों को कराके आप आनन्द

में रहना औरों को आनन्द में रखना ।

पण्डित भीमसेन शर्मा (देवेन्द्रनाथ २।२२१)