(मौलवी अहमद हसन साहब से जालन्धर में शास्त्रार्थ२४ सितम्बर, १८७७)
भूमिका
फकीर मौहम्मद मिर्जा मवाहिद जालन्धर निवासी पाठकों को इस टै्रक्ट
(पुस्तिका) के प्रकाशित होने के कारणों से परिचित करता है कि मिति १३
सितम्बर, सन् १८७७ को स्वामी दयानन्द सरस्वती जी जालन्धर में भी भ्रमण
करते हुए पधारे और परोपकारमूर्ति श्री सरदार विक्रमसिंह जी अहलूवालिया
की कोठी में विराजमान हुए । वहां वे वेद के अनुसार जिसको वे ईश्वरीय
ज्ञान मानते हैं, कथा करने लगे । मैंने इच्छा प्रकट की कि सरदार साहब
तथा मौलवी अहमद हुसैन साहब की बातचीत भी किसी बौद्धिक विषय पर
होनी चाहिए । माननीय सरदार साहब ने इसको पसन्द किया और स्वामी जी
ने भी स्वीकार करके २४ सितम्बर के प्रातः सात बजे का समय एतदर्थ निश्चित
कर दिया । मौलवी साहब नियत समय पर हिन्दू तथा मुसलमान नगर—निवासियों
के साथ वहां आ गये । मौलवी साहब की इच्छानुसार पुनर्जन्म का विषय
तथा स्वामी जी की इच्छानुसार चमत्कार का विषय शास्त्रार्थ के लिए नियत
हुआ, अर्थात् यह निश्चय पाया कि स्वामी जी पुनर्जन्म को सिद्ध करेंगे तथा
मौलवी साहब उसका खण्डन करेंगे तथा मौलवी साहब अहले अल्लाह
(ईश्वर भक्तों) के चमत्कार को सिद्ध करेंगे तथा स्वामी जी उसका
खण्डन करेंगे । बातचीत प्रारम्भ होने से पूर्व यह निश्चित हुआ कि दोनों
ओर से कोई व्यक्ति सभ्यताविरुद्ध बात न करेगा और स्वामी जी की ओर
से यह घोषणा भी की गई कि कोई सज्जन इस शास्त्रार्थ के समाप्त होने
पर किसी की हार—जीत न माने यदि मानेगा तो पक्षपाती और असभ्य समझा
जायेगा क्योंकि ये समस्याएं ऐसी नहीं हैं कि दो तीन शास्त्रार्थों में इनका निर्णय
हो जाये अथवा किसी की हार—जीत समझी जाये । परन्तु जब यह शास्त्रार्थ
पुस्तक रूप में प्रकाशित होगा तो स्वयं हाथ कंगन को आरसी के सदृश होगा
और बुद्धिमान् इसको पढ़कर स्वयम् इसका निर्णय कर सकेंगे। जो प्रश्नोत्तर
लिखे जायेंगे वे ला० हमीरचन्द जी और मुन्शी मौहम्मद हुसैन साहब के हस्ताक्षर
कराने के पश्चात् प्रकाशित होंगे । शास्त्रार्थ समाप्त होने के पश्चात् मौलवी
साहब की ओर से विद्वानों की परिपाटी के विरुद्ध जो एक कार्य हुआ, न्याय
की दृष्टि से उसका वर्णन करना आवश्यक है और वह यह था कि बातचीत
समाप्त होने के पश्चात् मौलवी साहब खानकाहा (फकीरों के रहने का स्थान)
इमाम नासिर उद्दीन के द्वार पर गये और कुछ प्रशंसात्मक उपदेश देकर उपस्थित
मुसलमानों से अपनी ख्याति के इच्छुक हुए । यघपि विद्वान् और समझदार
मुसलमान तो इस ख्याति की इच्छा को मूर्खों का खेल समझकर इससे पृथव्Q
हो गये परन्तु साधारण असभ्य लोग जो मुर्गे और बटेर आदि की लड़ाई देखने
का स्वभाव रखते थे और जीत की ख्याति के इच्छुक थे उन्होंने मौलवी साहब
को विजयी घोषित किया और घोड़े पर चढ़ा कर शहर के गली कूचों में
भली भांति फिराया और हार—जीत का कोलाहल मचाया परन्तु विशेष समझदार
सभ्य लोगों ने इसको बुरा समझा । अब प्रश्नोत्तर सुन लीजिये ।
ट्टट्टचमत्कार के विषय में स्वामी दयानन्द सरस्वती जी और मौलवी
अहमद हुसैन साहब के मध्य होने वाले प्रश्नोत्तर’’
स्वामी जीचमत्कार आप किसको कहते हैं ?
मौलवीमनुष्य स्वभाव के विरुद्ध जो अद्भुत कार्य मनुष्य से सम्पन्न हो।
स्वामी जीस्वभाव आप किसको मानते हैं ?
मौलवीमनुष्य की प्राकृतिक इच्छा को स्वभाव कहते हैं ।
स्वामी जीजो मनुष्य की शक्ति के बाहर है वह किस प्रकार उससे हुआ?
मौलवीमनुष्य से होने वाले कार्य दो प्रकार के हैं । एक तो वे कि
मनुष्य को जिनका प्रकट करने वाला कहा जाता है और दूसरे वे कि मनुष्य
स्वयं जिनका कर्ता होता है । पहली प्रकार के कार्यों में मनुष्य को वास्तविक
कर्ता नहीं समझा जाता । उदाहरणार्थ जैसे कठपुतली का नाच ऐसे कार्य खुदा
की ओर से मनुष्य के द्वारा प्रकट होते हैं ।
स्वामी जीसब मनुष्यों में ये दोनों प्रकार के कार्य हैं अथवा किसी
एक में ?
मौलवीप्रत्येक में नहीं, कुछ में होते हैं ।
स्वामी जीईश्वर उलटे काम कर और करा सकता है या नहीं ?
मौलवीमनुष्य के स्वभाव के विरुद्ध करा सकता है परन्तु वह काम
ईश्वर के स्वभाव के विरुद्ध नहीं होता और स्वयम् अपने स्वभाव के विरुद्ध
नहीं करता ।
स्वामी जीईश्वर के काम उलटे होते हैं वा नहीं ?
मौलवीखुदा के कार्य कभी उसके स्वभाव के विरुद्ध नहीं होते यघपि
मनुष्यों के स्वभाव की अपेक्षा वे विरुद्ध समझे जा सकते हैं ।
स्वामी जीचमत्कार सृष्टि के स्वभाव के अनुसार होता है या नहीं
अर्थात् प्रकृति की इच्छा के विरुद्ध ?
मौलवी चमत्कार में यह आवश्यक नहीं कि समस्त सृष्टि के स्वभाव
के विरुद्ध हो । यघपि यह सम्भव है कि किसी नबी (पैगम्बर) या वली
(ईश्वर को प्राप्त करने वाला) से कोई ऐसा कार्य हो कि जो समस्त सृष्टि
के स्वभाव के अनुकूल न हो ।
स्वामी जी चमत्कार किसी ने दिखाया अथवा दिखावेगा इसका क्या
प्रमाण है ?
मौलवीयह प्रश्न ऐसा है जैसे कहा जावे कि किसी के मुख पर जो
दाढ़ी आई है उसके आने का क्या प्रमाण है ? जब चमत्कार के विषय में
यह कह दिया गया कि वह कार्य जो मनुष्य से मनुष्य के स्वभाव के विरुद्ध
हो । उसका कार्य मनुष्य के स्वभाव के विरुद्ध होता है यही चमत्कार का
प्रमाण है । बहुत से मनुष्यों ने जो दयालु ईश्वर की दृष्टि में सम्मानित और
प्रतिष्ठित हैं और ईश्वर ने जिनको सृष्टि के उपकार के लिए भेजा है, पूर्वकाल
में चमत्कार दिखाये और भविष्य में भी दिखायेंगे, जैसा कि अल्लाह के रसूल
हजरत मौहम्मद साहब ने भी बहुत चमत्कार करके दिखाये और ऐसे ही उनसे
पूर्व हजरत ईसा ने भी बहुत से चमत्कार करके दिखाये । सिद्धि इस बात
की दो प्रकार से होती है, एक तो सच्चे समाचारदाताओं के द्वारा और दूसरे
स्वयं देखने से । जैसा कि ऊपर दोनों महापुरुषों का वर्णन किया । जो लोग
उनके समय में विघमान थे उन्होंने स्वयम् अपनी आंखों से देखा और हम
लोग जो इस समय के हैं उनको इसका ज्ञान सच्चे समाचारदाताओं के वचनों
और लेखों से हुआ ।
स्वामी जीयह ठीक—ठीक युक्ति से सिद्ध नहीं हुआ क्योंकि सुनना
कहना और लिखना दो प्रकार का होता है, सच्चा और झूठा । अब यह चमत्कार
की बात सच्ची है, इसका क्या प्रमाण है ? जैसे कार्य को देख के कारण
की पहचान होती है अर्थात् नदी के प्रवाह को देखकर विदित होता है कि
ऊपर वर्षा हुई है । इसी प्रकार चमत्कार हुआ, इसकी सिद्धि में इस समय
क्या युक्ति है । कदाचित् वह झूठा ही लिखा, कहा अथवा सुना हो क्योंकि
जैसे अब कोई स्वार्थी मनुष्य झूठी बातों से बहका सुनाकर अपना प्रयोजन
सिद्ध करता है (वैसे ही यह भी है) जैसे इस समय में भी दो—चार चामत्कारिक
अवतार हुए हैं । आगरे में शिवदयाल और रामसिंह कूका जो काले पानी
चले गये हैं । एक अकलकोट का स्वामी दक्षिण में विघमान है और एक
देव मामलादार ने सात दिन वैकुण्ठ में रहकर फिर आकर सुनाया है कि मैं
नारायण से बात करके आया हूं । और जो जो आज्ञा हुई वह तुम को सुनाता
हूं । अब लाखों मनुष्य उसके चरणों में इतना नमस्कार करते हंै कि उसका
पैर सूज गया है । जैसे यह बात अब झूठ इन्द्रजालवत् है ऐसी पहले भी होगी।
अब इस समय इतने मनुष्यों के बीच में कोई चमत्कार दिखाने वाला विघमान
हो तो दिखलाइये और जो अब नहीं तो पहले भी नहीं था और आगे भी नहीं
होवेगा क्योंकि कार्य को देखे विना कारण की सिद्धि नहीं होती अथवा कारण
के देखे विना कार्य की ।
मौलवीजब यह सिद्ध हो चुका कि चमत्कार पवित्र ईश्वर का एक कर्म
है, यघपि मनुष्य की अपेक्षा से वह असम्भव होता है तथापि परमात्मा की अपेक्षा
से यह असम्भव नहीं क्योंकि यदि खुदा की अपेक्षा से वे असम्भव हो जायें तो
उड़ना पक्षी का कभी न पाया जाये । इसके अतिरिक्त स्वभाव के विरुद्ध समस्त
कर्म यघपि मनुष्य की अपेक्षा से असम्भव दिखाई देते हैं परन्तु परमात्मा की
अपेक्षा से असम्भव नहीं हैं । जब खुदा एक के बारे में वह अवसर उत्पन्न करता
है तो दूसरे शरीर के बारे में भी उत्पन्न कर सकता है । इसको अस्वीकार करना
मानो परमात्मा की शक्ति का अस्वीकार करना है । यदि समाचार प्रत्येक चीज
का झूठ हो तो हम को चाहिए कि कलकत्ता, लन्दन अथवा और कोई नगर जिस
को हमने अपनी आंखों से नहीं देखा है, उसका विश्वास न करें। इसीलिए सिद्धि
चमत्कार की इसी प्रकार से है जिस प्रकार आप वेद को सिद्ध करते हैं अर्थात्
जिससे आप यह कह सकते हैं कि यह वेद वही पुस्तक है जो ईश्वर की ओर
से आई थी अन्यथा उस पर कोई मुहर खुदा की लगी हुई नहीं है जिससे कहा
जावे कि यह वेद वही पुस्तक है । वेद की सिद्धि में जो युक्तियां आप देंगे वही
चमत्कार के विषय में भी होंगी ।
स्वामी जीमैंने यह पूछा था कि ईश्वर ने अमुक—अमुक व्यक्ति के द्वारा
चमत्कार दिखाये, इसका क्या प्रमाण है । चमत्कार परमेश्वर अपने स्वभाव के
विरुद्ध नहीं करता । इसका दृष्टान्त सब सृष्टि का रचना, धारण करना, प्रलय
करना आदि है । वह न्याय, दया तथा अनन्त विघा वाला है, कभी अपने स्वभाव
के विरुद्ध नहीं करता । इसका उदाहरण समस्त सृष्टि है । जैसे इस समय मनुष्य
का पुत्र मनुष्य ही होता है, पशु नहीं होता। इसी प्रकार परमेश्वर के काम में कभी
भूल नहीं रहती । इसलिए परमेश्वर की शक्ति मानना चमत्कार पर अवलम्बित
नहीं, और जो कोई चमत्कार मानता है वह वर्तमान समय में किसी चमत्कार
दिखाने वाले का उदाहरण दे । और परमेश्वर की शक्ति की भी कुछ न कुछ
सीमा है जैसे ईश्वर मर नहीं सकता, अज्ञानी नहीं हो सकता, बुरा काम नहीं कर
सकता क्योंकि वह न्यायकारी और अविनाशी है । यह उदाहरण चमत्कार पर
लागू नहीं हो सकता क्योंकि कोई कहे कि बम्बई नहीं तो वह बराबर बम्बई को
दिखा सकता है । ऐसे ही जो यह उदाहरण सच्चा हो तो बम्बई के समान चमत्कार
को भी दिखा दे। वेद का ईश्वरकृत होना असम्भव नहीं क्योंकि वह अन्तर्यामी
और पूर्ण विद्वान् दयालु तथा न्यायकारी है । वह बराबर जीवात्मा में अन्तर्यामी
रूप से अपना प्रकाश कर सकता है । जैसे इस समय भी बराबर अन्यायकारी
की आत्मा में भय और लज्जा और न्यायकारी की आत्मा में हर्ष तथा उत्साह
का प्रकाश करता है । इसलिए वेद का उदाहरण चमत्कार से सम्बन्धित नहीं
और अभिप्राय मेरा इस विषय के बारे में कि यह पुस्तक ईश्वरकृत है, यह है
कि जैसा ईश्वर का स्वभाव, जैसा सृष्टि का क्रम प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है
और अनन्त विघा का प्रकाश निर्दोषता आदि है, ईश्वर की रचना सिद्ध करने में
सब मुहरें हैं और जो आप कहें कि और प्रकार की मुहर चाहिए तो पृथिवी, सूर्य,
चन्द्र और मनुष्य पर ईश्वरकृत होने की मुहर क्या है ? जब मुहर से ईश्वर की
रचना सिद्ध करनी है तो कहीं मुहर दिखाई नहीं देती । ईश्वर का स्वभाव क्या
है ? जो ईश्वर मनुष्य के स्वभाव से उलटा करा सकता है तो किसी मनुष्य को
पांव से खिलाया और पिलाया है और मुख से पांव का काम लिया है या लिवाया
है ? मुझको ऐसा विदित होता है कि सब सम्प्रदाय वालों ने यह चमत्कार तथा
भविष्यवाणी जैसे कि रसायन आदि का लोभ दिखा के बहुत लोगों को फंसाया
है। परमेश्वर कृपा करे । सब के आत्मा में विघा का प्रकाश हो कि मनुष्य ऐसे
जाल—फन्दों से छूटकर सत्य को मानें और झूठ से अलग रहें ।
मौलवीहम पहले कह चुके हैं कि चमत्कार का कार्य मनुष्य के
स्वभाव के विरुद्ध कराना असम्भव बात नहीं है । जिससे कहा जावे कि
परमात्मा की शक्ति के बाहर है । यदि किसी को सन्देह हो तो मक्का नगर
अथवा शाम देश में जाकर उन चालीस मनुष्यों को देख लें कि जो चमत्कार
के दिखाने वाले हैं । वेद के अतिरिक्त ऐसी बहुत सी पुस्तकें हैं जिनको
कह सकते हैं कि मनुष्य के स्वभाव के विरुद्ध हैं जैसे शिक्षा के विषय में
ट्टट्टगुलिस्तां’’· और बोस्तां इत्यादि । किन्तु यह कहना कि इसमें सब विघाएं
हैं, यह दावा युक्तिशून्य है क्योंकि इसमें इल्मे इजतराब (उद्विजनविघा)कहां
है । अनोखी बातों का ज्ञान और निर्मित पदार्थों के ईश्वरकृत होने का प्रमाण
यह है कि वे निर्माण किये हुए हैं और यह निर्माण ही मानो खुदा की मुहर
हैं । यह पुस्तक तौरेत के काल से निस्सन्देह पहले की है। इसमें वह समाचार
· गुलिस्तां और बोस्तां शेखसादी द्वारा रचित फारसी भाषा की दो प्रख्यात
पुस्तकें हैं ।
है जो आज के दिन प्राप्त होता है । पुस्तक दानियाल अध्याय ११, पाठ १०
से १९ तक भी प्रमाण है कि वह भविष्यवाणी जो सैकड़ों वर्ष पूर्व लिखी
गई थी अब पूरी हुई । दूसरे कुरान शरीफ के बारे में मुसलमानों का तेरह
सौ वर्ष से सारे सम्प्रदायों के विरुद्ध यह दावा है कि इस कुरान शरीफ के
समान एक पंक्ति भी बनाकर कोई मनुष्य दिखावे । जैसा कि
फातू बिसूरतिम् मिम्मिस्लिही’’
(तो इसकी सी एक सूरत ले आओ) । अब तक किसी से बना नहीं
न बनेगा । यदि पण्डित साहब को यह चमत्कार स्वीकार नहीं तो इसके समान
एक पंक्ति बनाकर दिखायें । चमत्कार का प्रदर्शन मानो हमने इस सभा में
कर दिया । अब हम पवित्र परमात्मा से यह प्रार्थना करते हैं कि वह समस्त
सृष्टि को दृढ़ मार्ग पर लावे और उनकी दृष्टि से पक्षपात को दूर करे ।
मौलवीवर्तमान आकार के बिना सत्ता का होना सम्भव नहीं । जब
आकार की सत्ता विनाशी है तो अवश्य प्रकृति भी नाशवान् होनी चाहिए क्योंकि
प्रकृति को सत्ता आकार के द्वारा प्राप्त हुई । द्रव्य की अपेक्षा द्रव्य का कारण
प्रधान होता तो पुनर्जन्म मानने वालों के लिए जगत् का विनाशी मानना
आवश्यक हो जाता है परन्तु उन्होंने ऐसा माना था कि वह सनातन है ।
स्वामीआकृति दो प्रकार की होती हैंएक ज्ञान से ग्रहण होती
है और एक चक्षु आदि इन्द्रियों से । कारण में ही आकृति की स्थिति
है परन्तु वह इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं होती क्योंकि जो सूक्ष्म वस्तु होती है
जब वह स्वयं ही नहीं दिखाई देती तो उसका आकार क्या दिखाई देगा और
जो कारण में आकृति न हो तो कार्य में नहीं आ सकती क्योंकि जो कारण
के गुण हैं वही कार्य में आते हैं । जैसे एक तिल के दाने में तेल होता है,
वह करोड़ों दानों में भी बराबर होता है । लोहे के अणु में तेल नहीं होता
तो वह मन भर में भी नहीं होता । जो वस्तु नित्य है उसके गुण भी नित्य
हैं । कारण का होना न होना नहीं कहा जाता, वह तो सनातन है और जो
वस्तु सनातन है उसकी आकृति भी कारणावस्था में सनातन है । आकृति विना
द्रव्य के पृथव्Q नहीं रह सकती । वह आकृति उसी द्रव्य की है इससे सिद्ध
है कि कारण सनातन है ।
मौलवीयह नहीं कि जो चीज सिवाय किसी चीज के न पाई जाये तो
वह उसका रूप ही हो । उदाहरणार्थ जैसे चेष्टा हाथ और चाबी की । चेष्टा
चाबी की विना हाथ की चेष्टा के नहीं पाई जाती प्रत्युत जब चेष्टा चाबी की
होगी तो चेष्टा हाथ की होगी और जब चेष्टा हाथ की होगी तो चेष्टा चाबी की
होगी अर्थात् इन दोनों चेष्टाओं में कोई काल किसी का किसी से पहले या पीछे
नहीं निकलता और निस्सन्देह उत्कृष्ट बुद्धि जानती है कि कुञ्जी की चेष्टा विना
हाथ के नहीं अर्थात् चेष्टा कुञ्जी की हाथ की चेष्टा पर निर्भर है। यघपि वर्तमान
समय में इकट्ठी है । ऐसे ही प्रकृति और उसका रूप है । यघपि काल में एकता
है परन्तु बुद्धि इस बात को जानती है कि प्रकृति के आकार की अपेक्षा प्रकृति
सनातन है क्योंकि गुणी और मानने वाला गुण और माने हुए की अपेक्षा सनातन
होता है । प्रकृति की सत्ता अर्थात् उसका अनुभव होना दिखाई देना किसी चीज
के लगने से होता है । या तो आकृति के लगने से होता है या किसी और चीज
के लगने से । प्रत्येक अवस्था में वह पदार्थ जिसके लगने से वह प्रकृति संसार
में इस प्रकार स्थित हुई कि अनुभव हो और दिखाई दे वह किसी ऐसे कारण
से हुई जो पीछे से आकर प्रकृति को लगा । और जो उत्तर में यह लिखा गया
कि कारण का होना अथवा न होना नहीं कहा जाता तो वह चीज अद्भुत है
जिसका उपादान कारण में होना या न होना नहीं कह सकते । वह वस्तु जिसका
उपादान कारण ऐसा हो उसका होना किस प्रकार हो सकता है अर्थात् वर्तमान
वस्तु अभाव से नहीं बन सकती और यदि उसके सनातन होने से कोई मनुष्य
यह कहे कि वह विघमान भी होगा तो यह गलत है इसलिए कि अभाव से भाव
का होना उदाहरणार्थ जैसे कोई कहे कि ट्टट्टजैद’’ के तत्त्वों को एक विशेष आकार
प्राप्त हुआ है जिसके कारण उसका ट्टट्टजैद’’ नाम रखा गया तो वह विशेष आकार
इस आकार से पहले कभी विघमान न था इसलिए उसको अर्थात् उसके अभाव
को सनातन कहा जायेगा । रूप के जो दो प्रकार कहेएक वह कि जिसको
आकृति कहते हैं और एक उसके अतिरिक्त, इससे विदित हुआ कि आकार
प्रकृति से रहित है ।
स्वामीस्वाभाविक गुण, रूप आदि वस्तु के पीछे कभी नहीं होते और
जो पीछे हो उस को स्वाभाविक नहीं कहते । जैसे अग्नि के परमाणुओं का
स्वाभाविक अतीन्द्रिय रूप अर्थात् आंख से अनुभव न होना स्वाभाविक सब
काल उसके साथ है । निमित्तकारण के संयोग पर परमाणुओं का संयोग करने
से स्थूल कार्य होने से उसका इन्द्रिय—ग्राह्य रूप प्रकट होता है । जैसे जल
के परमाणु आकाश में उड़कर ठहरते हैं और जब तक बादल नहीं बनते तब
तक नहीं दीख पड़ते ।
हमारा यह अभिप्राय नहीं कि वह प्रकृति नहीं है या प्रकृति का
स्वाभाविक गुण नहीं है । उदाहरणार्थ जैसे लड़के का होना और लड़के का
न होना । जैसा कार्य में यह होना या न होना गुण है, वैसा कारण में नहीं
है । जो कारण और कारण के स्वाभाविक गुण हैं वे अनादि हैं । कार्य वह
है कि जो संयोग से हो और वियोग के पीछे न रहे । वह जो एक संयोगजन्य
आकृति है वह कार्य की आकृति कहलाती है । उसका प्रवाह से अनादिपन
है, स्वरूप से नहीं और ईश्वर जो कि सर्वज्ञ है उस का निमित्तकारण अर्थात्
बनाने वाला है । उसके ज्ञान में सदा है और रहेगा । (अन्तिम वाक्य का
उत्तर ऊपर आ गया) ।
मौलवीपदोत्कर्ष अर्थात् पहले होना दो प्रकार का होता है एक निजी
और एक सामयिक । निजी जैसा कि हम पहले वर्णन कर चुके हैं कि चेष्टा
हाथ की और चाबी की और ऐसा ही उत्कर्ष गुणी का अपने समवायी गुणों
पर उदाहरणार्थ उत्कर्ष पानी का अपने बहने पर । उत्कृष्ट बुद्धि जानती है
कि कहने की स्थिति पानी के साथ है । इस उत्कर्ष को निजी उत्कर्ष कहा
जावेगा । बहने का अभिप्राय यह कि उत्कर्ष गुणी का उन गुणों पर जो उसके
अपने गुण हैं निजी उत्कर्ष कहलाता है, क्योंकि गुणी अपने गुणों से अवश्य
उत्कृष्ट होता है और सन्देह तब उत्पन्न होते हैं जब उत्कर्ष सामयिक हो।
दूसरा सामयिक उत्कर्ष वह है जैसा कि बाप का अपने बेटे पर होता है ।
गुणी का गुणों से रिक्त होना तब आवश्यक होता है जब उत्कर्ष सामयिक
हो । तात्पर्य यह है कि अपने आकार पर जो उत्कर्ष प्रकृति का है वह निजी
उत्कर्ष है क्योंकि गुणी गुणों से उत्कृष्ट होना चाहिए ।
स्वामीद्रव्य उस को कहते हैं कि जिस में गुण, क्रिया, संयोग—वियोग
होने का स्वभाव पाया जावे परन्तु जो द्रव्य परिच्छिन्न अर्थात् पृथव्Q—पृथव्Q हैं
उनका यह लक्षण है । जो विभु व्यापक द्रव्य है वह संयोग वियोग के स्वभाव
से पृथव्Q होता है । किसी व्यापक में गुण ही प्रधान होते हैं, क्रिया नहीं जैसे
कि परमेश्वर, उसमें संयोग—वियोग नहीं होता परन्तु क्रिया और गुण हैं और
आकाश, दिशा काल ये व्यापक हैं परन्तु इनमें क्रिया नहीं, केवल गुण हैं ।
मौलवीयह उत्तर पहले प्रश्न से कुछ सम्बन्ध नहीं रखता क्योंकि इस
उत्तर में निजी और सामयिक भेद नहीं किया गया । ज्ञानस्थ आकृति की अपेक्षा
से ट्टट्टजैद’’ का विशेष प्रकार का अभाव अर्थात् उसके नियत शरीर का एक
नियत काल से जो सम्बन्ध था उस शरीर की उत्पत्ति के पूर्व उसका पूर्ण
अभाव था और यह जो विचार प्रकट किया गया कि पूर्ण अभाव उस शरीर
विशेष का नहीं है, उसकी आकृति ईश्वर के ज्ञान में विघमान है यह बिल्कुल
गलत है क्योंकि ईश्वर के ज्ञान में यह शरीर विशेष तो विघमान नहीं जो
तीन हाथ का है । किसी वस्तु के अनादि होने से किसी वस्तु की उत्पत्ति
तो सिद्ध नहीं होती । ज्ञानस्थ आकृति के बारे में बात यह है कि ईश्वर का
ज्ञान ज्ञानस्थ आकृति के साथ नहीं है क्योंकि ज्ञानस्थ आकृति वह होती है
जो बाहरी वस्तु के देखने से प्राप्त होती है । जब आकार विशेष को अनादि
नहीं माना जाता तो ईश्वर के ज्ञान में वह ज्ञानस्थ आकृति कहां से प्राप्त हुई?
यदि कोई वस्तु अनादि थी तो आपके मन्तव्य के अनुसार प्रकृति अनादि थी
और जिस वस्तु का साधनों द्वारा अनुभव न किया जा सके । जैसे कि आप
प्रकृति और आकार को मानते हैं कि प्रथम अवस्था में अनुभव के योग्य न
था तो उस का ज्ञान किसी प्रकार भी प्राप्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि
किसी पदार्थ को जानने की विधि यही है कि किसी चेष्टा के द्वारा
ज्ञानेन्द्रिय में उसका आकार प्राप्त हो उसी को ज्ञानस्थ आकृति कहा
जाता है और जहां तक जल के परमाणुओं का सूक्ष्म होकर वाष्प बन जाने
का प्रश्न है तो यघपि वह दृष्टिगोचर नहीं होता फिर भी किसी न किसी
चेष्टा के द्वारा वह जानने के योग्य है। प्रत्येक अवस्था में जो आकार इस
प्रकार का माना गया है कि जिसका ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा अनुभव नहीं
किया जा सकता तो उस का कोई अस्तित्व ही नहीं है । जब अनादित्व
ही गलत सिद्ध हुआ तो पुनर्जन्म कहां रह गया । यदि यूं कहा जाता है कि
एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने का कारण उसके वे कर्म हैं जो प्रथम शरीर
में किये थे तो यह प्रकट है कि कर्म चेष्टा द्वारा होते हैं और चेष्टा काल
पर निर्भर है और काल का आदि अन्त और मध्य इकट्ठा नहीं रह सकता।
इसके अतिरिक्त कर्म जो किसी समय के द्वारा किये गये वे भी नष्ट हो गये।
अथवा दूसरे शरीर से सम्बन्ध किसी उत्कर्षक की ओर से न होगा । जब
आत्मा का शरीरों से समान सम्बन्ध है तो विशेष सम्बन्ध होने से उत्कर्षता
बिना उत्कर्षक के बाधक होगी । इसके अतिरिक्त इस सम्बन्ध से बहुत सी
हानियां उत्पन्न होंगी क्योंकि विशेषताएं जो प्रथम शरीर में प्राप्त की थीं वे
दूर हो गईं और उदाहरणतया यदि दूसरा सम्बन्ध कुत्ते अथवा गधे से हो तो
उस कुत्ते और गधे के शरीर में वह विशेषताएं प्राप्त नहीं कर सकता जो
मनुष्य के शरीर में प्राप्त कर सकता था । अब आपको उचित है कि प्रथम
विघाओं के प्राप्त करने की विधि निश्चित कीजिये फिर उसके पश्चात् सम्बन्ध
का कारण निश्चित किया जावे तब उस पर आक्षेप किया जा सकता है ।
स्वामीदश इन्द्रियों के विषय में मौलवी साहब का कहना ठीक नहीं
जैसा कि जो जीवात्मा किसी इन्द्रिय से नहीं देखा जाता परन्तु अस्तित्व उस
का है । जो मौलवी साहब ने कहा कि अनादि वस्तु झूठी है, यह किसने
कहा है क्या यह बात अपने दिल से जोड़ ली है क्योंकि जब लिखवा चुका
कि परमेश्वर जीव और जगत् का कारण ये तीनों सनातन हैं । इस से अनादित्व
सिद्ध है और अभाव से भाव कभी नहीं होता । यदि कोई कहता है तो उस
का प्रमाण नहीं है । गधे और कुत्ते के शरीर में मनुष्य का जीव जाने से
मौलवी साहब कहते हैं कि बड़ी हानि होती है क्योंकि सब कमाई की हुई
चली जाती है । यदि मौलवी साहब ऐसा मानते हैं तो मौलवी साहब को कभी
सोना न चाहिए क्योंकि निद्रा में जाग्रत की कमाई सब भूल जाती है । यदि
मौलवी साहब कहें कि फिर जागने से वह ज्ञान आ जाता है तो कुत्ते,
गधे के शरीर में भी आ जायेगा और ज्ञान फिर प्राप्त कर सकता है । जैसे
कि मनुष्य निद्रा से जागकर करता है। इसलिये मैं जानता हूं कि मौलवी साहब
के भाषण और मेरे भाषण को बुद्धिमान् लोग स्वयं देख लेंगे और एक जन्म
इन बातों से सिद्ध नहीं होता परन्तु पुनर्जन्म सिद्ध है ।
हस्ताक्षर अंग्रेजी
ला० हमीरचन्द
हमारे समक्ष जो बातचीत के विषय निश्चित हुए वे वास्तव में यही
थे जो इस भूमिका में लिखे हैं । हस्ताक्षरमौहम्मद हुसैन महमूद
(दिग्विजयार्वQ पृ० ३१ से ३३, लेखराम पृ० ३५७ तथा ३९३ से ७००)