समाधान – आपने जो अपनी पीड़ा कही है वह युक्तियुक्त है। निश्चित रूप से जब एक ही बिन्दु पर दो विद्वान् भिन्न-भिन्न विचार प्रकट करते हैं तो सामान्य जन में भ्रान्ति उत्पन्न होती है। वह दोनों के प्रति विश्वास का भाव रखता है, ऐसा होते हुए वह सामान्य जन किसको नकारे वा किसको स्वीकारें। इस विषय में हमारा निवेदन है कि जब-जब ऐसी परिस्थिति बने तब-तब यह अवश्य देख लें कि किस विद्वान् की बात ऋषि समत है और किसकी बात ऋषियों से मेल नहीं रख पा रही। इन दोनों में जिस किसी की बात ऋषियों से प्रमाणित हो उसी विद्वान् की बात को सामान्य जन स्वीकार करें अन्य की नहीं। अस्तु।
अब मैं आपके एक-एक बिन्दु पर विचार करते हुए समाधान लिखता है-
(क) जुलाई प्रथम-2015 की जिज्ञासा-2 के समाधान में मैंने आत्मा का मुय स्थान इसलिए बताया क्योंकि जिज्ञासु आत्मा-परमात्मा को जानना चाहता है, सो इन दोनों का ज्ञान महर्षि दयानन्द के अनुसार हृदय प्रदेश में ही होता है। जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति में आत्मा के जो स्थान जिस उपनिषद् में कहे हैं, वे स्थान युक्ति व ऋषि दयानन्द के मन्तव्य से मेल नहीं रखते। ब्रह्मोपनिषद् में लिखा है-
नेत्रस्थं जागरितं विद्यात् कण्ठे स्वप्नं समाविशेत्।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मुर्ध्नि संस्थितम्।।
अर्थात् जागृत अवस्था में आत्मा को नेत्र में जानें, स्वप्न में कण्ठ में रहता है, सुषुप्ति में हृदयस्थ रहता है और तुरीय अवस्था में आत्मा मूर्धा में निवास करता है।
महर्षि दयानन्द ने दश उपनिषदों को प्रमाण माना है, ग्यारहवें श्वेताश्वतर के प्रमाण भी महर्षि ने अपने ग्रन्थों में कहे हैं इसलिए इस उपनिषद् को भी मिलाकर ग्यारह उपनिषदें प्रामाणिक हैं। यह ब्रह्मोपनिषद् इन ग्यारह से अतिरिक्त है, इस उपनिषद् में पौराणिकता से युक्त बातें भी कही गई हैं जो कि आर्षानुकूल नहीं हैं।
उपरोक्त श्लोक में आत्मा के कहे गये स्थान कितने युक्त हैं, आप करके देखे, जागते हुए जब हमें भय, दुःख, अशान्ति वा प्रसन्नता की अनुभूति आँखों में होती है वा ऋषि द्वारा वर्णित हृदय में। जब ये सारी अनुाूतियाँ हृदय में होती हैं तो आत्मा को वहीं मानना होगा, अर्थात् आत्मा का निवास स्थान हृदय है, इसलिए मैंने उस लेख में लिखा कि आत्मा का मुय निवास स्थान हृदय है। इसी प्रकार स्वप्न में भय अथवा प्रसन्नता अनुभूति कहाँ होती है, उसको देख विचार करें, वह अनुाूति भी हदृय में ही मिलेगी क्योंकि जहाँ आत्मा है, वहीं उसी स्थान पर प्रसन्नता-अप्रसन्नता की अनुभूति वह करता है। इस प्रकार यह कहना असंगत न होगा कि आत्मा का मूल निवास स्थान हृदय है।