आजकल के स्कूल-कॉलेज में चार तरह का द्रव्य पढ़ाया जाता है- ठोस, द्रव, गैस और प्लाजमा। सॉलिड, लिक्विड़, गैस और प्लाजमा नामक, ये चार तरह की वस्तुए पढ़ाई जाती हैं। उनका नाम वस्तु है, पदार्थ है, द्रव्य है, चीज है। ‘जो स्थान घेरती है,’ जिसमें भार रहता है, वह वस्तु कहलाती है।’
स ईश्वर और जीव तो इस परिभाषा में आता ही नहीं। ईश्वर और जीव न तो ठोस है, न द्रव है, न गैस है, न प्लाजमा है । तो उसको वस्तु क्यों कहा, पदार्थ क्यों कहा? तो इस प्रश्न का उत्तर है कि ये जो सालिड, लिक्विड, गैस और प्लाजमा की परिभाषा है, ये केवल भौतिक-विज्ञान की परिभाषा है। ईश्वर और आत्मा भौतिक विज्ञान का विषय ही नहीं है, उसका क्षेत्र (फील्ड( ही नहीं है। वस्तुतः वो जितनी बात जानते हैं, उतनी ही की तो परिभाषा बनायेंगे। जबकि दर्शन और वेद की वस्तु की परिभाषा इससे और व्यापक है।
स दर्शन और वेद की परिभाषा है- ‘जिस तत्त्व में कुछ गुण हों अथवा क्रिया भी हो, उसे पदार्थ कहते हैं। पदार्थ, वस्तु, चीज उसका नाम हैं, जिसमें गुण हों, अथवा गुण के साथ-साथ क्रिया भी हो। क्रिया हो या न हो, वो वैकल्पिक (ऑप्शनल( है, लेकिन गुण अवश्य होना चाहिए। उसको द्रव्य या वस्तु कहते हैं।
स अब इस परिभाषा में देखिये कि-ईश्वर में कुछ गुण हैं, या नहीं? हैं न। तो ईश्वर एक वस्तु हो गयी। आत्मा में कुछ गुण हैं या नहीं है। इसलिए आत्मा भी एक वस्तु है। और प्रकृति में तो गुण हैं ही। प्रकृति में रूप, रस, गंध आदि गुण हैं ही। इसलिए प्रकृति भी एक वस्तु है। तो वेदों के अनुसार, )षियों के अनुसार तीन वस्तुऐं अनादि हैं- ईश्वर, आत्मा और प्रकृति। इसलिए ईश्वर और आत्मा भी वस्तु हैं।
स इस आधार पर हम यह कह सकते हैं, कि वस्तुएँ दो प्रकार की होती हैं-एक जड़ वस्तुएँ, दूसरी चेतन वस्तुऐं। तीन में से एक जड़ वस्तु हैं ‘प्रकृति’। और दो हैं-चेतन वस्तुऐं- ‘ईश्वर’ और ‘आत्मा’। इसलिए इन दोनों को भी हम वस्तु कह सकते हैं, पदार्थ कह सकते हैं, द्रव्य कह सकते हैं, चीज भी कह सकते हैं।